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शनिवार, 16 जनवरी 2010

प्रगतिशील लेखकों के राष्ट्रीय महासंघ (लखनऊ) का घोषणा पत्र

हम भारत के प्रगतिशील लेखक जो अपने संगठन के स्वर्ण जयन्ती-समारोह के अवसर पर राष्ट्रीय प्रगतिशील लेखक महासंघ के चैथे सम्मेलन में एकत्र हुए हैं, फिर एक बार प्रगतिशील आन्दोलन के महान उद्देश्य के प्रति, जनतंत्र, धर्म निरपेक्षता, विविधता के बीच देश की एकता और समाजवाद के ध्येय के प्रति अपने को समर्पित करते हैं।
हमें इस बात की गहरी चिंता है कि राष्ट्रीय स्वतंत्रता आने के चार दशकों के दरम्यान शासक वर्ग और उनकी पार्टी, जिन पर निहित स्वार्थी तत्वों का प्रभुत्व रहा है, उपर्युक्त महान लक्ष्यों को विकसित तो नहीं ही कर सकें, बल्कि उनसे इतना दूर चले गये हैं कि जन-विरोधी और साम्प्रदायिक तत्व तथा क्षेत्रीय संकीर्णतावादी एवं खुली पृथकतावादी शक्तियां हमारे महान देश की सांस्कृतिक और सामाजिक एकता के ढांचे को तोड़ रही हैं।
हमने राष्ट्रीय स्वाधीनता-संग्राम की आग में तप कर अपनी व्यापक पहचान बनायी, लेकिन स्वतंत्रता मिलने के बाद हमारा शासक-समुदाय एक वैज्ञानिक सांस्कृतिक नीति के अभाव में विभिन्न भाषायी एवं नृवंशी इकाइयों की सक्षम पहचान की आवश्यकताओं की रक्षा करने में असमर्थ साबित हुआ है, जबकि ऐसा करने का आधार हमें स्वधीनतरा-संग्राम से ही मिला था।
आर्थिक और सामाजिक विकास में क्षेत्रीय असमानता, मूल्य-वृद्धि, गरीबी, बेरोजगारी, निरक्षरता, सामाजिक सुविधाओं के अभाव और जीवन में अनिश्चय की स्थिति ने हमारी मानवतावादी परम्पराओं को दबोच लिया है, क्योंकि शासक वर्ग भ्रष्टाचार की कीचड़ में डूबा हुआ है और मध्य वर्ग को सम्पन्नता के मोहक जाल में फंसाए जा रहा है। प्रतिक्रियावादी, सम्प्रदायवादी और फूटपरस्त ताकतें एवं पुनरुत्थानवादी तथा कट्टरपंथी विचारक भ्रष्ट तरीकों से जन-असंतोष और ऊब का फायदा उठाते हैं और साम्राज्यवादी ताकतों एवं उनके दलालों से उन्हें देश के भीतर तथा बाहर हर प्रकार की मदद मिल रही है।
वे कल्पित पौराणिक अतीत का गौरव गान करते हैं, मनुष्य की हस्ती को रहस्य में ढंक देते हैं, अपने भवितव्य का निर्माण करने की आस्था को वे दबाते हैं, अपने साथ रहने वाले भाइयों के प्रति वे नफरत और विद्वेष पैदा करते और फैलाते हैं। धर्म, वर्ण, जाति, लिंग और क्षेत्र के आधार पर भेदभाव का औचित्य सिद्ध करते हैं और अति दक्षिण तथा अति वाम दोनों ही रूपो में हिंसा की बर्बरतापूर्ण संस्कृति का निर्माण करते हैं। यह आश्चर्यजनक नहीं है कि भारत के कुछ इलाकों में धार्मिक कट्टरपंथी और वामपंथी अत्यंत सौहार्दपूर्ण गठबंधन से जुड़े हुए हैं।
हमारी जनता में आधुनिकीरण और वैज्ञानिक विकास की जो वाजिब लालसा है, उसका दुरूपयोग निहित स्वार्थी तत्व और उनका सहयोगी साम्राज्यवाद करते हैं। वे ऐसा करने का मौका इसलिए पा लेते हैं कि शासक हमारे देश में तकनीकी और वैज्ञानिक विकास के नाम पर विश्व बैंक और अमरीकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की सलाह पर भरोसा कर रहे हैं। इससे समय की कसौटी पर खरी उतरी हमारी आर्थिक आत्मनिर्भरता की नीति नष्ट हो रही है और श्रेष्ठ वर्गवाद एवं उपभोक्तावाद को बढ़ावा मिल रहा है। श्रेष्ठ वर्गवाद समाज पर शासन करने और अब सब कुछ के ऊपर सार्वभौम शक्ति होने क ी अभिजात वर्ग की धारणा को मजबूत बनाता है। इससे मेहनतकश जनता के प्रति बेरुखी और नफरत का भाव पैदा होता है, बावजूद इसके कि वह जनता सामाजिक रूप से पिछड़ी हुई है और गांवों एवं नगरों दोनों जगह सम्पन्न वर्ग की हिंसा की शिकार है। यह आकस्मिक नहीं है कि हाल के वर्षों में आरक्षण विरोधी आन्दोलन का नेतृत्व सम्पन्न वर्ग ने ही किया।
दुर्भाग्य से, हमारी नयी शिक्षा-नीति भी श्रेष्ठ वर्गवाद की ओर ही उन्मुख है। विचारों के क्षेत्र में उपर्युक्त प्रवृत्तियों की अभिव्यक्ति मनुष्य के अकेलेपन और आधारहीनता की धारणा में होती है, जिसकी नियति होती है स्वयं सूली पर चढ़ने के लिए कंघे पर सलीब लिए चलना। इसके अनुसार मनुष्य इतिहास से नहीं पैदा हुआ है, बल्कि अलग-अलग और निचले क्षणों में रहस्यपूर्ण ढंग से उसने रूप से ग्रहण किया है। साहित्य के क्षेत्र में इस प्रवृत्ति को इस तरह रहस्यपूर्ण बनाया जाता है कि साहित्य-सृजन को सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों और जन संघर्षों से तथा उसके कलात्मक रूप को अन्तर्वस्तु से स्वतंत्र कहा जाता है। इस स्थिति में साहित्य का उद्देश्य श्रेष्ठ कलात्मक गुण उपलब्ध करना मात्र समझा जाता है। साहित्य को आदमी के संघर्ष से अलग-थलग कर देने की कोशिश की जा रही है, जिससे निहित स्वार्थियों के हमने और यथास्थिति बनाये रखने की साजिशों के मुकाबले मेहनतकश जतना निरò हो जाए। साहित्य के पश्चिमी पंडित और साम्राज्यवाद के सिद्धांतकार, जो हमेशा कलात्मक सृजन के नये आधार खोजते रहते हैं, ऐसे विचारों को नये-नये रूपों में पेश करके नये लेखकों को प्रगतिशील आन्दोलन से दूर ले जाने की कोशिश करते रहते हैं।
इस पर गौर करना जरूरी है कि इलेक्ट्राॅनिकी के विकास ने संचार माध्यमों में क्रांति कर दी है। लेकिन दुर्योग से उस पर निहित स्वार्थियों और अमरीका के सूचना-साम्राज्य का कब्जा है, जो उपभोक्तावाद के नुकसानदेह व्यवहार का प्रचार करता रहता है। संचार-माध्यमों के लिए आज मानववादी मूल्यों की शिक्षा से ज्यादा महत्वपूर्ण है मनोरंजन। क्योंकि यह उपभोक्ता-सामग्री की बिक्री में मददगार होता है और श्रोताओं को रोजमर्रा की समसयाओं के प्रति संवेदनहीन बना देता है। यह पूंजीवादी मूल्यों को बड़े पैमाने पर फैलाने और मिथ्या चमक-दमक के पीछे दौड़ने का उकसावा देने का सबसे जोरदार माध्यम है। यह बात अब छिपी नहीं है कि धार्मिक कट्टरपंथ से लेकर श्रेष्ठ वर्गवाद और विश्व प्रभुत्ववाद तथा उसके विभिन्न रूपों तक का उदय साम्राज्यवाद से ही हो रहा है।
साम्राज्यवाद सभी स्वतंत्रता प्रेमी राष्ट्रों को, तोड़-फोड़ के जरिए, अस्थिरीकरण के लिए राजनीतिक-आर्थिक दबाव का उपयोग करके, उनसे नजदीक से नजदीक किसी स्थान पर सैनिक अधे कायम करके और पड़ोसी राष्ट्रों को हथियारबंद होने और एक-दूसरे से लड़ने के लिए उकसा कर, धमकाना चाहता है। साम्राज्यवाद सैनिक गुटतंत्रों को पे्ररित करके सम्बद्ध देश के शासक पर कब्जा कराता है, ताकि वह उक्त उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अपने औजार के रूप में उनका इस्तेमाल कर सके, जैसा कि पाकिस्तान और अमरीकी प्रभुत्व के अधीनस्थ अनेक देशों में हुआ है। अमरीकी प्रभुत्व कुबूल करने का मतलब है जनतंत्र का खात्मा। यह जगविदित है कि नस्लवाद, जातिवाद, उपनिवेशवाद आदि जो कलंक आज की दुनिया में मौजूद है, उन्हें अमरीकी साम्राज्यवाद का ही संरक्षण प्राप्त है।
साम्राज्यवाद अपने अंतिम पतन को रोकने के लिए सैन्यीकरण और हथियारों की होड़ का भी इस्तेमाल करता है। वह इस प्रकार का भ्रम पैदा करता है कि इस नाभकीय युग में सीमित युद्ध किया जा सकता है या यह कि उसने ‘सामरिक प्रतिरक्षा पहल’ के रूप में एक ऐसा हथियार पा लिया है, जो किसी भी नाभिकीय विनाश से पूर्ण सुरक्षा प्रदान करने में समर्थ है।
साम्राज्यवाद ने नाभिकीय हथियार चलाने का अधिकार कम्प्यूटर को सौंप कर मानवता का भवितव्य वास्तव में निर्जीव वस्तु के हाथों के हवाले कर दिया है, जिसका मतलब यह है कि मशीन की गति में छोटी-सी गड़बड़ी हमारे इस भूमंडल को पूरी तरह नष्ट कर दे सकती है।
लेकिन हम प्रगतिशील लेखक इस हालत में भी यह देखकर प्रेरणा पाते हैं कि मेहनतकश जनता हर जगह मानव-मूल्यों के लिए लड़ रही है। वह नए नायक, नए प्रकार का मनुष्य पैदा कर रही है, जो हर जगह हमारे लिए प्रकाश-स्तंभ की तरह डटा रहता है। उसके साथ सम्पर्क से, उसके संघर्ष में शिरकत करके हम उसे ज्यादा अच्छी तरह समझने में समर्थ होते हैं, दुश्मन को पहचान लेते हैं और जटिल सामाजिक, राजनीतिक और मनोवैज्ञानिक परिस्थितियों को समझने की गहरी दृष्टि प्राप्त करते हैं, जिससे हमारे सृजन को नयी चमक और गहराई प्राप्त होती है। इस तरह हम प्रगतिशील लेखक अपनी जनता के साथ रहते हैं, शत्रुतापूर्ण शक्तियों से लड़ते हैं और सामाजिक तथा सांस्कृतिक प्रगति का रास्ता साफ करते हैं।
हमारा परचम साम्राज्यवाद के खिलाफ मजबूती से ऊँचा उठा हुआ है, हम नाभिकीय हथियारों को समाप्त करने और दो विरोधी समाज-व्यवस्थाओं के शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के लिए विश्वव्यापी शान्ति आन्दोलन में भाग लेते हुए अपने भविष्य का निर्माण करने के हर राष्ट्र के अधिकार के लिए भी लड़ते रहेंगे।
हमने अपने परचम पर लिखा है- ‘आत्मनिर्भरता’, और हम देश की आर्थिक स्वतंत्रता को सुदृढ़ बनाने के संघर्ष में शामिल हैं। इसे दबोचने के हर साम्राज्यवादी प्रयत्न का हम पूरी ताकत से विरोध करते हैं, अमरीका और उसके सहयोगी देशों से तथाकथित तकनीक के हस्तान्तरण के नाम पर अधिकाधिक मुनाफे के लिए आर्थिक स्वतंत्रता को तिलांजलि देने के भारत के निहित स्वार्थियों के प्रयत्न का भी हम विरोध करते हैं।
हम आश्वस्त हैं कि भारत में काफी वैज्ञानिक और तकनीकी प्रतिभाएं हैं, इसलिए दूसरे देशों के अनुसंधान का फल अपने देश में लाने के बदले अगर हम अपने अनुसंधान-कार्य का विकास करें तो हम अपने बूते पर अगली सदी में पहुंच सकते हैं।
हमारे परचम पर विचारधारात्मक संघर्ष के अक्षर चमक रहे हैं। हम धार्मिक कट्टरपंथ, जातिवाद, क्षेत्रीय संकीर्णतावाद, सामंतवाद, रूढ़िवाद, श्रेष्ठ वर्गवाद, विश्व प्रभुत्ववाद और उपभोक्तावाद की मानवता विरोधी खतरनाक प्रवृत्तियों एवं विचारों के खिलाफ, उनके विभिन्न दार्शनिक एवं सौन्दर्य शास्त्रीय सिद्धान्तों के खिलाफ संघर्ष की घोषणा करते हैं, क्योंकि वे सिद्धान्त हिंसा और नफरत फैलाते हैं, मनुष्यता के भविष्य के प्रति-खास करके मेहनतकश जनता के प्रति उदासीनता पैदा करते हैं और सर्वाधिकारवादी रूझान को भी जन्म देते हैं। उपर्युक्त प्रवृत्तियां देश में अस्थिरता पैदा करती हैं और उनकी चल जाए तो देश विघटित भी हो सकता है।
हम घोषित करते हैं कि हमारा संघर्ष साम्राज्यवाद की संस्कृति और सूचना-व्यवस्था का खात्मा करने और नई अन्तर्राष्ट्रीय सूचना-व्यवस्था कायम करने और अपने राष्ट्रीय संचार माध्यम के जनतन्त्रीकरण के लिए भी है।
हम घोषित करते हैं कि हम अपने महान देश की सभी भाषाओं की समानता को कुबूल करते हैं और मुक्त और निर्भीक वातावरण में उन सबके विकास के लिए पूरा अवसर और अधिकार दिलाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
सर्वोत्तम के उत्तराधिकारी
हमारी घोषणा है कि हम पूरी मानव जाति की परम्पराओं और सांस्कृतिक उपलब्धियों के सर्वोत्तम अंश के उत्तराधिकारी हैं। हम राष्ट्रीय स्वतन्त्रता और समाजवाद के लिए अपनी जनता के वीरता पूर्ण संघर्ष को आगे बढ़ाने का संकल्प विशेष रूप से लेेते हैं, हमारा संघर्ष हमेशा इस विराट आन्दोलन का अंग रहा है।
हम घोषणा करते हैं कि अपनी कलात्मक परम्पराओं के अनुसार नये कला-रूपों और अभिव्यक्ति के नए प्रकारों के लिए हमारी खोज जारी है और अपनी कला में ताजगी लाने के लिए हम जनता की जिन्दगी में रोज-ब-रोज व्यवहृत मुहावरों, बिम्बों और रूपकों के विशाल भण्डार का लाभ उठाएंगे।
हम प्रगतिशील लेखक, सभी देशभक्त और जनतांत्रिक लेखकों से आग्रह करते हैं कि इस भीषण संकट की घड़ी में अपनी पूरी कलात्मक क्षमता के साथ एकताबद्ध हों और मानव जाति के विवेक के प्रतिफलित करने वाले प्रगतिशील लेखक आन्दोलन को मजबूत बनाएं। यह आन्दोलन वास्तव में हमारे युग के उस महान आन्दोलन का अंग है, जो विश्व शांति की रक्षा करने, राष्ट्रीय स्वतन्त्रता एवं अखण्डता को सुदृढ़ बनाने, जनतांत्रिक मूल्यों तथा संस्कृति को सुरक्षित रखने और न्यायोचित एवं विवेक संगत समाज व्यवस्था कायम रखने के लिए छिड़ा हुआ है।

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