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शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010

भारतीय गणतंत्र - वर्तमान और भविष्य

भारतीय गणतंत्र 60 वर्ष का हो गया है। साठ वर्ष सही में एक लंबी अवधि है - हमारी उपलब्धियों एवं विफलताओं का पक्का चिट्ठा तैयार करने के लिए पर्याप्त लंबी अवधि।
भारत एक बड़ा देश है जिसकी एक पुरानी परंपरा और राष्ट्रीय मुक्ति के लिए साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष की एक गौरवपूर्ण विरासत है।
आजादी के बाद उसकी गुट- निरपेक्षता की सर्वमान्य नीति तथा अपनी स्ववतंत्रता एवं प्रगति के लिए संघर्षरत जनगण को दिये गये समर्थन ने उसे उन सभी देशों के शीर्ष पर प्रतिष्ठित कर दिया जिन्होंने उपनिवेशी गुलामी की बेड़ियों को तोड़ दिया था और नव-स्वतंत्र देशों के रूप में उभर रहे थे। उसने विश्व का सम्मान एवं प्रशंसा पायी।
भारत के पास प्रचुर प्राकृतिक संसाधान एवं प्रगतिशील लोग हैं। उसके पास विशाल वैज्ञानिक तथा तकनीकी कर्मी हैं जो उद्यमों के विभिन्न क्षेत्रों में देश का गौरव बढ़ा रहे हैं। अतीत से थोपे गये सभी अवरोधों एवं दबावों को झेलते हुए उसने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में एक स्थान हासिल किया। देश ने जो प्रगति की है, उसकी गति को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि भारत 1947 या 1950 का भारत नहीं है। विकास के गलत रास्ते तथा खोये हुए अवसरों के बावजूद यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि भारत जैसे एक विशाल देश तथा सभी संभावनाओं के साथ एक बड़ी अर्थव्यवस्था के साथ विश्व में उसकी एक वजनदार आवाज है। आज विश्व को प्रभावित करने वाला कोई मसला नहीं है जो दो महान देशों-भारत और चीन की भागीदारी के बिना निपटाया जा सकता है या जिसका समाधान किया जा सकता है।
इस संदर्भ को लक्षित करने के बाद हमारी जनता के विशाल बहुमत की जीवन दशा कैसी है? कैसे भारत द्वारा की गयी प्रगति उसकी जनता के जीवन में प्रतिबंबित होती है?
उसके द्वारा अपनाये गये विकास के पूंजीवादी पथ ने समाज में गहरा ध्रवीकरण ला दिया है। उसने अमीर और गरीब के बीच और विभिन्न क्षेत्रों के बीच भारी असमानताएं ला दी हैं। देश इंडिया और भारत के बीच गंभीर रूप से बंटा है। यह कठोर वास्तविकता सामने आ जाती है जब हम देखते हैं कि जब भारत विश्व के कम्प्यूटर साफ्टवेयर इंजीनियरों के एक-तिहाई को पैदा करता है। पर वहीं विश्व के एक चैथाई गरीब कुपोषित एवं अल्पपोषित तथा निरक्षर लोग भी यहीं हैं।
सोवियत संघ के पतन के बाद जिसने स्वतंत्र भारत को अपनी अर्थव्यवस्था की बुनियाद के रूप में सार्वजनिक क्षेत्र का निर्माण करने तथा उसे सुदृढ़ बनाने में मदद दी थी, सरकार खुलेआम नव-उदार पूंजीवादी माॅडेल को स्वीकार कर लिया। अमरीका और उसके प्रभुत्ववाले अंतर्राष्ट्रीय संगठनों जैसे अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्व बैंक एवं विश्व व्यापार संगठन के दबाव के तहत ऐसा किया गया। इसे ‘वाशिंगटन आमराय’ समझा गया जिसे भारत ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। सभी पूंजीवादी प्रचारक मुक्तकंठ से दावा करने लगे कि ”कोई विकल्प नहीं है (टिना)। उदारीकरण, निजीकरण तथा भूमंडलीकरण और मुक्त बाजार व्यवस्था को तथाकथित “आर्थिक सुधार“ के रूप में निर्बाध आगे बढ़ाया गया। यह दावा किया गया है कि इससे तेज ‘आर्थिक सुधार’ के रूप में निर्बाध आगे बढ़ाया गया। यह दावा किया गया है कि इससे तेज आर्थिक वृद्धि हुई है जहां जीडीपी प्रति वर्ष 9 प्रतिशत की दर से बढ़ा।
इसने समाज में ध्रुवीकरण को और अधिक बढ़ाया जो अकथनीय है। समाज के उच्च तबके के लोग खूब समृद्ध हुए। उनमें से अनेक तो अरबपति एवं खरबपति तक हो गये। भारत यह गौरव प्राप्त है कि विश्व में दस सबसे धनी व्यक्तियों में चार भारत में हैं। हाल ही में रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर तथा राज्यसभा सदस्य श्री विमल जालान ने कहा कि “देश के उच्च पांच खबरपतियों (अमरीकी डालर) की परिसंपत्ति का कुल मूल्य नीचे के 30 करोड़ लोगों के बराबर है।“
यह ‘भ्रष्ट’ वेतन में प्रतिबिंबित होता है जिसे अनेक कार्पोरेट एक्जीक्यूटिवों ने अपने लिए मंजूर करवा लिया है। यह अनुमान लगाया गया है कि ऐसे एक्जीक्यूटिवों की संख्या जो इस ‘भ्रष्ट’ वेतन श्रेणी में आते हैं, यानी जो प्रति वर्ष 5 करेाड़ रु. 40 करोड़ रु. के बीच पाते हैं, 3000 है। उनका कुल वेतन 20000 करोड़ रु. बैठता है।
दूसरी ओर 77 प्रतिशत लोग (यानी 84 करोड़) 20 रु. रोज से भी कम पर गुजारा करते हैं। ये मुख्यतः दलित, आदिवासी तथा दूसरे समुदायों के शहरी एवं ग्रामीण मेहनतकश लोगों के सर्वाधिक शोषित तबके से आते हैं। ये तबके विकास की किसी भी प्रक्रिया से वंचित रखे गये हैं।
कार्पोरेट कंपनियां विदेशों में विशाल प्रतिष्ठानों के अधिग्रहण तथा विलय के साथ ही बहुराष्ट्रीय हो गयी हैं।
इल गलत आर्थिक नीतियों की सबसे बदतर अभिव्यक्ति है खाद्यान्न और अन्य सभी उपभोक्ता वस्तुओं की आसमान छूती कीमतें। तीन महीनों में चावल की खुदरा कीमत 51 प्रतिशत बढ़ गयी। दाल की कीमतें जो भारतीय गरीबो के लिए प्रोटीन का मुख्य स्रोत है, 70 रु. और 100 रु. प्रतिकिलों तक बढ़ गयी है। यहां तक कि भारतीय गरीबों की ‘दाल-रोटी‘, ‘दाल-भात’ का निवाला भी उनके मुंह सेे छीना जा रहा है। सब्जियां, दूध, अंडे तो बहुत पहले ही उनकी पहुंच से बाहर हो गये हैं। चीनी की कीमत 50 रु. किलों के चकरा देने वाले स्तर तक पहुंच गयी है। चीनी कभी इतनी कड़वी नहीं हुई थी। यहां तक कि नमक का दाम भी पहले से काफी अधिक बढ़ गया है। जबकि गरीब मुसीबतों में डूबे हैं, वहीं मध्यम वर्ग के लिए भी परिवार के बजट की व्यवस्था करना काफी कठिन हो रहा है।
सप्ताह-दर-सप्ताह कीमतें बढ़ रही हैं और कुछ मामलों में तो दिन-ब-दिन। कमोबेश उसी मांग और आपूर्ति के संबंध के साथ जो पहले के वर्ष में विद्यमान था (सूखे के कारण कुछ फसलों के उत्पादन में गिरावट को छोड़कर), यह साफ है कि यह अभूतपूर्व महंगाई वस्तु बाजार में सट्टेबाजी के कार्यकलाप, खासकर वायदा कारोबार का परिणाम है। यह दावा करना गलत है कि मूल्यवृद्धि से सीधे उत्पादकों को लाभ होता है। यह वायदा कारोबार के व्यापारियों तथा बिचैलियों को ही भारी मुनाफा पहुंचाता है।
सरकार को इस बात को स्वीकार करने में अनेक महीनों लग गये कि महंगाई की समस्या गंभीर है। वे अब मुख्य तौर से बड़े पैमाने पर आयात के जरिये महंगाई को रोकने के लिए कुछ कदमों की घोषणा कर रहे हैं। भारत जैसा एक विशाल देश जिसकी आबादी 110 करोड़ है, खाद्य आयात पर निर्भर नहीं कर सकता है। यह अवश्य ही याद किया जाना चाहिए कि बड़े पैमाने पर खाद्य का आयात एक देश को गुलाम बनाने तथा उसकी अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने के लिए सबसे बड़ा राजनीतिक हथियार है।
दीर्घकाालीन तथा घोर गरीबी एवं भूख के चलते माताएं गंभीर रूप से कुपोषण की शिकार हो जाती है और उनके बच्चे भी जिनका वे जन्म देती हैं। 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों में 46 प्रतिशत का वजन कम होता है और वे कुपोषित होते हैं। भारत शिशु मृत्यु दर 2005 में प्रति 1000 बच्चों में 55 थी। इसकी तुलना में वह श्रीलंका में केवल 2 तथा क्यूबा में केवल 5 हैं। भारत में जीवन-क्षमता केवल 64 है जो दूसरे देशों से कम है। यह अनुमान लगाया गया है कि हमारी आबादी का कम से कम 35 प्रतिशत खाद्य के मामले में असुरक्षित है। दुनिया का 50 प्रतिशत भूखा भारत में रहता है।
यदि खाद्य, स्वच्छ पेयजल, मानव विकास का मानक है तो भारत का रिकार्ड आजादी के छह दशकों बाद भी निंदनीय है।
इसी तरह रोशनी के लिए बिजली तथा खाना पकाने के लिए एलपीजी जैसी आधुनिक ऊर्जा की सुविधा एक देश तथा उसकी जनता के विकास के चरण को दिखलाती है। इस मामले में केवल 44 प्रतिशत भारतीय घर-परिवार को बिजली की सेवा उपलब्ध है और उसकी आपूर्ति भी सर्वथा अनियमित होती हैं। विश्व भर में जिन लोगों को बिजली की
सुविधा उपलब्ध नहीं है, उनमें 35 प्रतिशत केवल भारत में रहते हैं, यानी करीब 57.6 करोड़।
ये निराशाजनक तथ्य एवं आंकड़े हैं। यह समय यम पूछने का हैः ओह मेरा देश, मेरा भारत महान! तुम आज राष्ट्रों के विश्व समुदाय में कहा खड़े हो?
भारत का स्थान मानव विकास सूचकांक में 132वां है।
प्रति व्यक्ति जीडीपी में उसका स्थान 126वां है।
जन्म पर जीवन क्षमता (बचे रहना) में उसका स्थान 127वां है।
वयस्क निरक्षरता में उसका स्थान 148वां है।
शासक हलके इन आंख खोल देने वाले आंकड़ों की उपेक्षा करते हैं। लेकिन आप उन्हें रद्दी कहकर इन्कार नहीं कर सकते हैं या उनकी उपेक्षा नहीं कर सकते हैं।
यह सब इस बात के बावजूद है कि भारत के पास वह हर चीज मौजूद है जो उसकी जनता के लिए एक बेहतर जीवन सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक है। सबों के लिए भोजन, रोजगार, शिक्षा तथा स्वास्थ्य देखभाल की सुविधा और घर की न्यूनतम सुविधा।
इसे कौन रोकता है। इसे रोकता है शोषक वर्गों का वर्गीय हित जो देश पर शासन करते हैं और उनकी वे नीतियां जिन्हें वह वे लागू करते हैं जो जनता की न्यूनतम जरूरतों को पूरा करने के बजाय वे अधिकतम मुनाफे की व्यवस्था करते हैं।
सबसे बड़ी मानवीय त्रासदी यह है कि भारत सरकार ने देश में गरीबी की वास्तविक गहराई एवं फैलाव पर ईमानदारी से विचार नहीं किया है, उस पर ध्यान नहीं दिया है। हमेशा उसे कम करके आंकने का प्रयास किया जाता है और उसे कम कर देने की आत्मतुष्ट बात की जाती है। गरीबी की परिभाषा और देश में गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों की संख्या के बारे में एक विवाद चलता रहता है।
योजना आयोग ने गरीबी की परिभाषा इस रूप में की है: प्रति व्यक्ति खर्च, जिस पर प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन ग्रामीण क्षेत्रों में 2400 कैलोरी लेता है और शहरी क्षेत्रों में 2100 कैलोरी। स्पष्ट रूप से इस परिभाषा में गरीबों के प्रति एक प्रणालीगत अन्याय है। यह मान लिया जाता है कि गरीबों के लिए अस्तित्व को बनाये रखने एवं कैलोरी इनटैक के अलावा और किसी चीज की जरूरत नहीं होती है। उसके लिए शिक्षा या स्वास्थ्य देखभाल की कोई जरूरत नहीं है।
प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के पूर्व प्रधानमंत्री सुरेश तेंदुलकर ने अनुमान लगाया है कि मोटे तौर से देश की शहरी आबादी एक-चैथाई हिस्सा 19 रु. प्रतिदिन पर गुजारा करता है जबकि ग्रामीण आबादी का 42 प्रतिशत मोटे तौर पर 15 रु. प्रतिदिन पर।
ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा गठित समिति का अपना ही अनुमान है जो ऊपर लिखित से भी अधिक है।
विश्व बैंक का अनुमान है कि भारत में 42 प्रतिशत भूमंडलीय गरीबी रेखा से नीचे रहता है। अर्जुन सेनगुप्त समिति का कहना कि 2004-05 में भारत की आबादी का 77 प्रतिशत 16 रु. प्रतिदिन के औसतन प्रति व्यक्ति खर्च पर गुजारा करता है।
करीब 28 प्रतिशत लोगों के गरीबी रेखा के नीचे रहने के मनमाने आंकड़े के आधार पर भारत सरकार अपनी गरीबी उन्मूलन स्कीम का निर्धारण करती है जिसमें इस लक्षित तबके को सहायता प्राप्त खाद्य पदार्थों की आपूर्ति भी शामिल है। यहां तक कि वह राज्य स्तर पर आंकड़े में अंतर के बारे में राज्य सरकारों से परामर्श करने से इन्कार करती है। सरकार कीमतों को क्यों नहीं नियंत्रित कर पाती है। उसका एक कारण है लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली का यह कारक जो गरबी रेखा से थोड़ा भी ऊपर है (एपीएल), उन्हें छोड़ दिया गया है, हालांकि बीपीएल श्रेणी से कम गरीब एवं नाजुक नहीं है।
गरीबों की संख्या का अनुमान लगाने में विफलता तथा दूसरा, उन लोगों की पहचान करने में विफलता जो गरीब हैं, भारत में सभी लक्षित कार्यक्रमों में ‘गलत बहिष्कारण (अलग रखना)’ की त्रुष्टियों के लिए जिम्मेवार है। भारत जैसे देश में जहां इतनी अधिक गरीबी है, सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सर्वव्यापक बनाना आजीविका की सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए सर्वाधिक सही एवं कारगर तरीका है। यह सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सर्वव्यापक बनाने के लिए वामपंथ की मांग का वैज्ञानिक आधार हैं
कीमतों की बेतहाशा वृद्धि पर रोक लगातर सस्ती दर (कीमतों पर) हमारे लोगों को खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए हम, वामपंथ के लोग यह प्रस्ताव करते रहे हैं कि सर्वव्यापक सार्वजनिक वितरण प्रणाली के साथ सरकार अवश्य ही वायदा कारोबार पर रोक लगाये जो कार्पोरेट घरानों, बड़े व्यापारियों, थोक विक्रेताओं को खड़ी फसल को खरीदने और फिर उत्पाद को जमा करने की सहूलियतें प्रदान करता है। वह जमाखोरी को बढ़ावा देता है तथा बड़े पूंजीपतियों को खाद्य पदार्थों की सट्टेबाजी करने, बाजार की जोड़तोड़ करने तथा कीमतें बढ़ाने के लिए सहूलियतें प्रदान करता है।
इसका यह भी अर्थ है कि सरकार अवश्य ही न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा करे जो लाभकारी मूल्य के बराबर हो और सीधे किसानों तथा नियमित बाजारों से उत्पाद खरीदने के लिए अपनी एजेंसी गठित करे। जब सरकार के पास स्टाक रहेगा तो वह बाजार को नियंत्रित करेगा एवं कीमतें बढ़ाने के लिए किसी भी कृत्रिम अभाव को रोकेगा।
आवश्यक वस्तु कानून को लागू किया जाये और यदि आवश्यक हो तो उसमें समुचित सुधार किया जाये ताकि जखीरा खाली किया जा सके एवं छिपाये गये स्टाकों को बाहर निकाला जा सके। लेकिन सरकार ने इन सभी प्रस्तावों को अनसुना कर दिया है।
हमने विस्तार से यह बात कही क्योंकि हमारे गणतंत्र की सबसे बड़ी विफलता अपने नागरिकों को खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने में विफलता रही है। यह जन-विरोधी एवं दोषपूर्ण आर्थिक नीति, उसके वर्गीय पक्षपात तथा आम जनता की भारी मुसीबतों के प्रति उसके असंवेदनशील रूख को ही दर्शाता है।
खाद्य सुरक्षा बिल जो विचारधीन है, स्थिति की वास्तविक चुनौती को पूरा नहीं करता है। अनेक राज्यों में यह बिल यदि पास किया गया और लागू किया गया, तो जो कुछ भी खाद्य की उपलब्धता है, उसे वास्तव में बुरी तरह प्रभावित करेगा। खाद्य सुरक्षा की बजाय वह खाद्य असुरक्षा का ही सूत्रपात करेगा। भविष्य के लिए केवल वायदा भूखे पेटों को नहीं भर सकता है।
इसके अतिरिक्त वह किसान ही है जो उत्पादकता तथा खाद्य उत्पादन बढ़ाने के मुख्य लोग हैं, जो सबों को खाद्य उपलब्ध करा सकता है। वर्तमान शासन व्यवस्था में किसान तथा खेत मजदूर सरकार के एजेंडे में अंतिम पायदान पर है। यह सरकार पूंजीपतियों को बचाने के लिए सैकड़ों करोड़ रुपये खर्च कर सकती है या सैकड़ों रुपये छोड़ सकती है, लेकिन वह किसानों के लिए संसाधन देने में किफायत करती है, चाहे वह कृषि में निवेश हो, किसानों को कर्ज के जाल से मुक्त करने की बात हो, उसे सस्ती दर पर कर्ज उपलब्ध कराना हो, सूखे, बाढ़ एवं अन्य प्राकृतिक आपदाओं के समय राजस्व अन्य भुगतान में माफी की बात हो या उनके उत्पादों को लाभकारी कीमत आदि देने की बात हो।
इसके विपरित सरकार इस या उस बहाने पर उसकी जमीन लेने के लिए तत्पर रहती है और उसका पुनर्वास करने उसकी आजीविका की तनिक भी परवाह नहीं करती।
स्वास्थ्य देखभाल के मामले में देश का उद्देश्य है सार्वभौम स्वास्थ्य देखभाल। यह एक सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली तथा पर्याप्त सार्वजनिक स्वास्थ्य पर खर्च के जरिये ही संभव हो सकता है। जब वामपंथ बाहर से यूपीए का समर्थन कर रहा था तो न्यूनतम साझा कार्यक्रम ने स्वास्थ्य देखभाल पर खर्च जीडीपी का 2-3 प्रतिशत तक बढ़ाने का प्रस्ताव दिया था। दुर्भाग्य से 2008-09 में सार्वजनिक स्वास्थ्य पर खर्च जीडीपी केवल 1.01 प्रतिशत ही रहा। यह एक ऐसे देश में सार्वजनिक स्वास्थ्य की घोर उपेक्षा को ही दर्शाता है जो अनेक महामारियों तथा देशांतर गामी बीमारियों से ग्रस्त है। भारत में बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों तथा उनकी सहायक कंपनियों ने दवाओं की कीमतें काफी बढ़ा दी है। भारत की स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली अमरीका की तरह निजी उच्च लागत वाली प्रणाली की ओर बढ़ रही है। जहां बीमाकृत/ जिसमें गरीब शामिल नहीं है। बीमा कंपनी तथा स्वास्थ्य देखभाल प्रबंधकों के बीच पूरी धुरी बनी हुई है। वहां हाल के एक स्वास्थ्य देखभाल बिल के जरिये जिसे बराक ओबामा ने पेश किया है, इसमें परिवर्तन लाने का सशक्त कदम उठाया गया है। ब्रिटेन में एक राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रणाली है।
इसलिए भारत के सामने लक्ष्य स्पष्ट है। उसे सार्वभौम राष्ट्रीय स्वास्थ्य देखभाल की तरफ बढ़ना है। उसे कम लागत की दवाओं के उत्पादन को विकसित करना है।
जब वामपंथ समर्थन दे रहा था तो यूपीए द्वारा स्वीकृत न्यूनतम साझा कार्यक्रम में शिक्षा पर जीडीपी का कम से कम 6 प्रतिशत खर्च करने की बात की गयी थी। वह 1950 के दशक की ही एक पुरानी सिफारिश है। लेकिन आज शिक्षा पर खर्च केवल 3 प्रतिशत ही है। शिक्षा का
अधिकाधिक व्यवसायीकरण तथा निजीकरण की दिशा में कदम उठाये जा रहे हैं। समान पड़ोस स्कूल और 6-14 वर्ष की उम्र से अनिवार्य सार्वभौम शिक्षा के लक्ष्य गरीब लोगों की पहुंच के बाहर हो रही है। आज शिक्षाा के क्षेत्र में विकृत प्राथमिकताओं के साथ घोर अराजकता का माहौल है।
भारत विश्व में सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का गर्व करता है। यह सही है हमारे यहां संसद से पंचायतों तक प्रतिनिधित्वपूर्ण निकायों के चुनावों की एक नियमित प्रणाली है।
लेकिन हमें उन विकृतियों तथा कमियों से भी अवगत और चैकस रहना चाहिए जो हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में घुस रही है एवं यहां तक कि उसे पुरी तहर प्रभावित कर रही है। उदाहरण के लिए 10वीं लोकसभा के लिए निर्वाचित 543 सदस्यों में 306 करोड़पति हैं। उनमें 141 कांग्रेस तथा 58 भाजपा के हैं। कैबिनेट में 64 मंत्रियों का एकाउंट 500 करोड़ रु. का है। उनमें 23 मंत्री 50 करोड़ रु. तथा उससे अधिक संपत्ति रखने वाले की श्रेणी में आते हैं। ये तथ्य हैं जो उन्हीं के शपथ पत्र एवं नेशनल इलेक्शन वाच के अध्ययन से सामने आये हैं। क्या इतने करोड़पतियों के साथ एक संसद और उनके ही प्रभाव वाला एक कैबिनेट आम लोगों की समस्याओं तथा गरीबों की मुसीबतों के प्रति संवेदनशील हो सकता है। ‘इकानोमिक एंड पालिटिकल वीकली’ में एक लेख में कहा गया है “सभी विकृतियों में जो भारत के औपचारिक लोकतंत्र में व्याप्त हैं, धनशक्ति, किराये कमाने वाली पूंजी तथा संसाधन का अभिशाप सर्वाधिक क्षति कारक है।“ उसने आगे कहा है, “क्रोनी (चहेता) पूंजीवाद और राजनीति के बीच धुरी दो के बीच एक विवाह में रूपांतरित हो गया है।“ इसमें संदेह नहीं कि यह हमारे लोकतंत्र पर एक बड़ा खतरा है।
यह रिपोर्ट आ रही है कि चुनावों के दौरान बड़ी रकम का सीेधे भुगतान करके वोट खरीदे जाते हैं। मतदाता स्लिप के साथ एक पांच सौ रुपये या एक हजार रुपये के नोट को नत्थी करने का शर्मनाक रिवाज एक आम बात हो गयी है। चुनाव आयोग असहाय है और चुनाव की निष्पक्षता अधिकाधिक संदेहास्पद हो गयी हैं। ये ऐसे व्यक्ति की टिप्पणी नहीं है जो इस प्रणाली का छिद्रान्वेशण करते हैं बल्कि उनकी चेतवानी है जोे देश में चुनाव की स्वतंत्र तथा निष्पक्ष प्रक्रिया की रक्षा करना चाहते हैं। इसका तकाजा है कि चुनावी सुधार हो, एक अधिक चैकस तथा प्रभावी आयोग हो, वर्तमान ‘फस्र्ट पास्ट द पोस्ट सिस्टम’ (जो प्रथम आये या जिसको सबसे अधिक वोट आये वह जीत जाये) से समानुपातिक प्रतिनिधित्व की प्रणाली में परिवर्तन की लोकतांत्रिक चेतना को बढ़ाया जाये।
अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में सरकार भारत को अमरीका के साथ वर्तमान समय का सबसे ताकतवर साम्राज्यवादी आक्रामक है, एक रणनीतिक भागीदारी में शामिल करने का प्रयास कर रही है। यहां तक कि वह इस्राइल के साथ कतारबंद हो रही है। उसके साथ ही विकासशील विश्व में भारत एक श्रेष्ठ स्थान उसे चीन, रूस ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका आदि के साथ संबंध विकसित करने के लिए बाध्य कर रहा है। हम, वामपंथ को इस द्विविधा को समाप्त करने का प्रयास करना है और हम कर रहे हैं, और भारत को साम्राज्यवादी अमरीका तथा उसके प्रतिनिधि इस्राइल के साथ किसी भी तरह की रणनीतिक भागीदारी से अलग करना है।
चाहे वह दोहा चक्र की विश्व व्यापार संगठन की वार्ता हो या जलवायु परिवर्तन पर वार्ता, सरकार लगातार अमरीका को खुश करने तथा भारत के राष्ट्रीय हितों की कीमत पर उसके दबाव के सामने झुक जाने का ही प्रयास करती है। कोपेनहेगन में ऐसा करते हुए उसने विकासशील देशों के ग्रुप से नाता तोड़ लिया है। हमें इसका प्रतिरोध करना है।
यहां-वहां सरकार की जन-विरोधी नीतियों के खिलाफ, लोकतांत्रिक अधिकारों पर हमले के खिलाफ तथा अमरीकी साम्राज्यवाद के साथ उसके समझौताकारी रूख के खिलाफ विरोध -प्रदर्शन हो रहे हैं। लेकिन वे छिटपुट रक्षात्मक लड़ाई ही है। अब जरूरत इस बात की है कि वर्तमान वर्गीय शासन में परिवर्तन लाने तथा अन्य प्रगतिशील और साम्राज्यवाद -
विरोधी तबकों के साथ मिलकर मजदूरों एवं किसानों का शासन स्थापित करने के लिए व्यापक हमला शुरू किया जाये। इसके लिए यह जरूरी है कि जनता खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों को प्रभावित करने वाले मसलों पर व्यापक जन आंदोलन और संघर्ष चलाया जाये। ऐसे संघर्षों के बिना कोई रूपांतकरण नहीं हो सकता है।
यह साफ हो गया है कि पूंजीवाद, के पास गरीबी, भूख, बेरोजगारी, निरक्षरता तथा बीमारी की समस्याओं का कोई समाधान नहीं है। वह विश्व के पर्यावरण के लिए भी एक खतरा है। उसके नव-उदार अवतार ने उसे और अधिक बिगाड़ा है। हाल के आर्थिक संकट ने जो अमरीका में पैदा हुआ और पूरे विश्व को प्रभावित किया, पूंजीवाद में अंतर्निहित अंतर्विरोधों को उजागर कर दिया है।
वर्तमान संकट वास्तव में पूंजीवाद का एक संकट है जो उसकी ऐतिहासिक सीमाओं को प्रदर्शित करता है। उसके तहत कोई सामाजिक न्याय नहीं हो सकता है और आम लोग एक बेहतर जीवन की आकांक्षा नहीं कर सकते हैं। जन संघर्ष उन्हें इस व्यवस्था को रूपांतरित करने और समाजवाद लाने की दिशा में ले जा रहा है। 21वीं सदी समाजवाद की सदी होगी।
लंबा रास्ता तय करना है। लेकिन हमें अवश्य ही आगे बढ़ने की दिशा तथा गंतव्य के बारे में स्पष्ट होना चाहिए जिस ओर भारतीय गणतंत्र को भविष्य में अवश्य ही आगे बढ़ना चाहिए।

ए.बी. बर्धन

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