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शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010

कृषि में संकट: किसानों द्वारा आत्महत्या

पी. सांईनाथ ने हिंदू में प्रकाशित अपने दो लेखों में अपने सामान्य भावावेश एवं सवेदना के साथ भारत में किसानों की आत्महत्या के सिलसिले के जारी रहने के दारूण चित्र पर ध्यान आकर्षित किया है। 1997 के बाद से (जबकि किसानों की आत्महत्या के आंकड़े रखने का काम शुरू हुआ) लेकर 2004 तक लगभग दो लाख (सही-सही कहें तो 199,132) किसान आत्महत्या कर चुके हैं। 2008 के एक अकेले वर्ष में ही कम से कम 16196 किसानों ने (यानी 2007 के मुकाबले केवल 436 कम संख्या में) आत्महत्याएं की। यह राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो से जारी आंकड़े हैं।

सबसे अधिक प्रभावित राज्य हैंः महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़। 66 प्रतिशत से अधिक आत्महताएं इन राज्यों में हुई। कह सकते हैं ये पांच राज्य मिलकर भारत का आत्महत्या बेल्ट यानी भारत के आत्महत्या क्षेत्र बन गये हैं

पी. सांईनाथ ने अर्थशास्त्री प्रो. के. नागराज, जिन्होंने राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरों के आंकड़ों का अध्ययन किया है, को उद्धृत किया है जिसमें उन्होंने कहा है कि ”आत्महत्या बेल्ट में आत्महत्याओं में कमी नहीं आयी है... यदि 2008 के उस वर्ष में जो 70,000 करोड़ रुपये कर्जो की माफी और विभिन्न कृषि पैकेजों का वर्ष था- यह हाल है तो किसी सूखे के वर्ष में तो आंकड़े बहुत भयानक हो सकते हैं। जो कृषि संकट लम्बे अरसे से चल रहा है वह पहले की तरह ही गंभीर चल रहा है।“ भारत जैसे कृषि प्रधान देश में यह एक राष्ट्रीय शर्म की बात है और गंभीर चिंता एंव अंतर्निरीक्षण का विषय है।

इस कटु एवं निराशाजनक तथ्य को नोट करना आश्यक है कि ख्ेाती करने वालों की संख्या तेजी से घट रही है पर उनकी आत्महत्याए अत्यधिक बढ़ती जा रही हैं। जनगणना के अनुसार 1991 से लेकर 2001 तक की अवधि में लगभग 80 लाख किसानों ने खेती करना छोड़ दिया।

2008 में 70,000 करोड़ रुपयों के किसानों के कर्जों की माफी निश्चय ही एक स्वागतयोग्य कदम था। हमने उसका स्वागत किया। पर साथ ही हमने कहा था कि उसकी अनेक सीमाएं हैं। हमने नोट किया था कि इस कर्जमाफी के दायरे में किसानों के केवल वही कर्ज आते थे जो उन्होंने बैंकों से लिये थे, साहूकारों से लिये गये कर्जे उसके दायरे में नहीं थे। किसानों की एक बड़ी भारी तादाद की बैंकों तक पहुंच ही नहीं है। वे साहूकारों से लिये गये कर्ज में दबे हैं। इसके अलावा जो किसान दो हेक्टेयर से कम जमीन पर और वर्षा सिंचित सूखी जमीन पर खेती करते हैं जैसे कि वे किसान जो गरीब और छोटे किसानों की श्रेणी में आ रहे हैं- वे भी कर्जमाफी के दायरे में नहीं आते थे। वह कर्जमाफी केवल एक बार राहत मिलने का कदम था, वह किसानों की चिरकालिक कर्जग्रस्तता का समाधान नहीं था।

हमने कहा था कि किसानों को बैंकों के कर्जों के अलावा साहूकारों-सूदखोरों के “धृतराष्ट्र आलिंगन“ से मुक्त करना होगा। इसके अलावा किसानों को उनके कृषि कार्यों के लिए कम ब्याज दर पर कर्ज मिलना चाहिए और आसानी से उपलब्ध होना चाहिए। किसानों के लिए ब्याज दर को घटाकर 4 प्रतिश्ता किया जाना चाहिए। इसके लिए ग्रामीण इलाकों में बैंकों का जाल बिछाना होगा। पर नव-उदार मुक्त बाजार की नीति के तहत इसका बिल्कुल उलटा हो रहा है। गांवों में बैंकों को मुनाफा कम होता है, इस आधार पर और विलय करने एवं मजबूत बनाने के नाम पर बड़े और अपेक्षाकृत अधिक बड़े बनाने के लक्ष्य के चलते गांवों में बैंकों की शाखाएं कम की जा रही हैं। विशाल जनगण को बैंकिंग सुविधाएं देने के बजाय सम्पन्न लोगों को बेहतर बंैकिंग सुविधाएं देने की नीति चल रही है। बैंकों के सामाजिक दायित्व की बातें भुला दी गयी हैं। कार्पोरेटों और बड़े कारोबारियों को अरबों-खरबों रुपये की विशाल धनराशि मामूली सी ब्याज दर पर मिल जाती है। बड़े कारोबारी घराने बैंकों से पैसा लेकर वापस भुगतान भी नहीं करते। बैंकों की ये गैर-निष्पादन परिसम्पत्तियां साल-दर-साल बढ़ती जा रही हैं। और फिर चुपके से उनकी इन देनदारियों को बट्टेखाते में डाल दिया जाता है। उन्हें सरकारी खजाने से बेल-आउट पैकेज दिये जाते हैं। पर जब किसानों को सहायता देने की बात उठती है तो सरकार कह देती है कि उसके पास पैसा ही नहीं है, कह दिया जाता है कि देश इस तरह का खर्च नहीं उठा सकता। किसानों को पैसा उधार लेने की जरूरत पड़ती है तो उन्हें सूदखोरों के रहमोकरम पर छोड़ दिया जाता है जिन्हें आजकल “अधिकृत रूप से प्रभावित ऋण प्रदाता“ का नाम दे दिया गया है।

कांग्रेस और संप्रग घटकों ने जबर्दस्त प्रचार करके दावा किया था कि कर्जमाफी से किसानों को “मुक्ति“ मिल गयी है। 2008 का वर्ष चुनाव से पहले का वर्ष था और इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि उस कर्जमाफी के पीछे एक बड़ा मकसद था। उससे कांग्रेस को चुनाच जीतने में मदद मिली पर उससे कृषि संकट का समाधान नहीं हुआ। कृषि पर सतही तौर पर निगाह डालने से पता चलता है कि कृषि में एक गंभीर एंव गहन संकट जारी है।

कृषि देश की 60 प्रतिशत से
अधिक आबादी को रोजी-रोटी देती है। पर जैसा कि ग्रामीण विकास मंत्रालय विभाग ने अपनी 15 नवम्बर 2008 की एक रिपोर्ट में कहा है कि “1980 के दशक के वर्षों में कृषि वृद्धि की दर 3.5 प्रतिशत थी जो 1990 के दशक वर्षों में घटकर 2.4 पर आ गयी और फिर 2004 में और भी घटकर 1.5 प्रतिशत पर आ यगी। 10वीं पंचवर्षीय योजना की अवधि में कृषि वृद्धि दर औसतन 1.8 प्रतिशत रहीं। 1970 में कृषि का सकल घरेलू उत्पाद में 46 प्रतिशत का बड़ा योगदान था, 1980 में वह 38 प्रतिशत और 2006 में वह 18 प्रतिशत रह गया। पर इस अवधि मे कृषि पर निर्भर रहने वाली आबादी 75 प्रतिशत से घटकर केवल 60 प्रतिशत पर ही आयी। इससे पता चलता है कि कृषि क्षेत्र पर आवश्यकता से अधिक लोग निर्भर हैं, कृषि में बेरोजगारी और अल्प रोजगारी है और कृषि से होने वाली प्रति व्यक्ति आमदनी बेहद कम है।“

राष्ट्रीय सेम्पल सर्वें संगठन (59वें दौर) द्वारा किये गये “किसानों की स्थिति का सर्वेक्षण 2003“ के अनुमानों के अनुसार लगभग भूमिहीन (0-.099 हेक्टयर जमीन वाले) परिवारों, सीमांत किसान (0.1-1.0 हेक्टयर जमीन वाले), परिवारों, छोटे किसान (1.0-2.0 हेक्टयर जमीन वाले) परिवारों को जमीन से रबी और खरीफ की फसलों से होने वाली वार्षिक आमदनी क्रमशः 829 रुपये, 5910 रुपये और 14020 रुपये होती हैं। उनके परिवार का आकार क्रमशः 5.0, 5.2 और 5.7 व्यक्तियारों का है तथा वे कुल किसान परिवारों का क्रमशः 5.9 प्रतिशत, 55.6 प्रतिशत और 18.1 प्रतिशत हिस्सा है। मजदूरी, पशुपालन और गैर कृषि कामकाज जैसे कुछ अन्य स्रोतों से भी वे कुछ और आमदनी कमा लेते हैं।

ग्रामीण इलाकों में 2004-05 की कीमतों पर राष्ट्रीय गरीबी रेखा 22000 रुपये प्रति परिवार प्रतिवर्ष है। इस प्रकार हम लगभग भूमिहीन, सीमांत और यहां तक कि छोटे किसानों की गरीबी के स्तर को देख सकते हैं। किसी प्राकृतिक आपदा के शिकार हो जाने पर वे घनघोर गरीबी की हालत में पड़ जाते हैं।

देश में कृषि उत्पादन, खासकर खाद्यान्न उत्पादन का रूझान काफी चिन्ताजनक है। यह कृषि संकट का एक खतरनाक संलक्षण है जिसका भारत सामना कर रहा है। आजादी के बाद 50 वर्षों के दौरान प्रति व्यक्ति वार्षिक खाद्यान्न की उपलब्धता कम हुई है और वह 199 किलो से घटकर 148 किलो हो गया। 1989-91 तक वह बढ़कर 177 किलो हो गया जिसकी वजह थी हरित क्रांति और नयी कृषि रणनीति जो अनेक खामियों के बावजूद 1950-51 के बाद व्यवहार में लागू थी। लेकिन पिछले दशक के दौरान आर्थिक सुधार की नव-उदार नीति ने इस रूझान को भारी नुकसान पहुंचाया।

हाल में वंदना शिवा और के. जलीस द्वारा लिखित प्रामाणिक पुस्तक में कहा गया है कि 1990 के दशक के मध्य से सभी फसलों के तहत कुल क्षेत्र करीब 142 मिलियन हेक्टर पर स्थिर रहा है। लेकिन 1991 और 2001 के बीच इनमें खाद्यान्न पैदा करने वाली 8 मिलियन हेक्टेयर भूमि पर निर्यात करने वाली फसलें उगायी जाने लगी।

कृषि के वाणिज्यीकरण के इस रूझान, भारतीय कृषि अर्थव्यवस्था के विश्व अर्थव्यवस्था में शामिल किये जाने के इस रूझान ने, जिसने भले ही किसानों के कुछ तबकों को लाभ पहुंचाया हो, खाद्य उपलब्धता तथा भारतीय जनता की खाद्य सुरक्षा पर नकारात्मक प्रभाव डाला। विश्व व्यापार संगठन तथा अमरीका के दबाव पर भारत की खाद्य अर्थव्यवस्था को भूमंडलीय वस्तु व्यापार के साथ जोड़ दिया गया।

उद्योग और तेजी से औद्योगीकरण करने वाले विश्व की जरूरतों को पूरा करने के नाम पर लाखों हेक्टेयर कृषि तथा चरागाह भूमि का इस्तेमाल जैव ईंधन-जैव डीजल एवं इथानोल पैदा करने के लिए किया जा रहा है। इतना ही नहीं। विशेष आर्थिक जोन की स्थापना के लिए, शहरी विकास के लिए तथा सभी तरह की परियोजनाओं के लिए किसानों से जीमन ली जा रही है। यह सही है कि इसके लिए जमीन की जरूरत है। पर कितना? इसका यह कदापि अर्थ नहीं है कि उर्वर कृषि भूमि का भी अधिग्रहण कर लिया जाये या सैकड़ों एवं यहां तक कि हजारों हेक्टर जमीन ले ली जाये। स्पष्ट है कि रीयल एस्टेट के लिए, न कि परियोजनाओं के लिए इतनी अधिक जमीन ली जा रही है। ब्रिटिश के समय से चले आ रहे भूमि अधिग्रहण कानून को अभी रद्द नहीं किया गया है या समय के अनुरूप उसमें मूलगामी परिवर्तन नहीं किया गया है।

अक्सरहां आर्थिक मुआवजा किसानों एवं उनके परिवारों को मकान एवं सुनिश्चित आजीविका की दीर्घकालीन व्यवस्था का आश्वासन नहीं दे सका है। न ही वह समुदाय के दूसरे तबके को ही आश्वासन दे सकता है जो परोक्ष रूप से जमीन से अपनी आजीविका प्राप्त करते हैं- जैसे खेत मजदूर, ग्रामीण दस्तकार या खुदरा व्यापारी एवं अन्य। यह अनुमान है कि करीब 2.1 करोड़ विस्थापित लोग हैं जो मुख्यतौर से आदिवासी, दलित एवं ग्रामीण गरीबों के अन्य तबके हैं जो विकास के ‘शिकार’ हो रहे हैं और उससे लाभ पाने की आशा नहीं कर सकते हैं। वे बेघरबार एवं आजीविका से वंचित छोड़ दिये जाते हैं।

इस या उस दलील पर कृषि भूमि से वंचित कर दिये जाने और सस्ते एवं आसान कर्ज की उपलब्धता की समस्याओं के अतिरिक्त किसानों को कृषि सामानों की बढ़ती कीमतों (उनमें से कुछ भूमंडलीय की प्रक्रिया से थोप दिये जाते हैं) के दंश तथा अपने उत्पादोें की लाभकारी कीमत के अभाव को भी झेलना पड़ता है।

आज भारत में गेहूं का उत्पादन (7.6 करोड़ टन) घरेलू मांग को पूरा करता है। पर फिर भी भारत-अमरीका समझौतो की शर्तों के तहत तथा डब्लूटीओ द्वारा थोपी गयी उदारीकृत व्यापार नीति (वह भी अमरीका के दबाव पर) के चलते भारत को गेहूं का आयात करने के लिए मजबूर कर दिया जाता है। जबकि सरकार ने विदेशी व्यापारियों को 2007 में प्रति टन 16000 रु. दिये, वहीं गेहूं के लिए न्यूनतम कीमत केवल 8500 रु. प्रति टन ही थी। सरकार भारतीय किसानों को जितना देने के लिए तैयार थी, उसने उससे प्रायः दूनी रकम प्रतिटन के हिसाब से उन्हें दी।

चावल के उत्पादन मे गिरावट आयी है। दालों का उत्पादन भी कम हुआ है जो भारतीय जनता के लिए प्रोटीन का मुख्य स्रोत है। सरकार पहले 15 लाख टन दालों तथा दस लाख टन खाद्य तेल के आयात की घोषणा कर चुकी है। हाल में सरकार ने कच्चे तथा रिफाइंड चीनी के ड्यूटी मुक्त आयात की घोषण की है। जैसा कि हम जानते हैं, खाद्यान्न, दालों, खाद्य तेल, चीनी आदि के दाम आसमान तक पहुंच गये हैं। हम बड़ी ही प्रसन्नता से इन सभी खाद्य वस्तुओं का आयात करते जा रहे हैं।

खाद्य का आयात उस देश के हाथों में एक बड़ा राजनीतिक हथियार है जहां से उसका आयात किया जाता है और इसके अलावा यह भारतीय खजाने पर भारी बोझ डालता है तथा सौदेबाजी में उसकी कृषि अर्थव्यवस्था विकृत होती है। अमरीका ने हमेशा अपने प्रभुत्व एवं ब्लैकमेल के लिए एक राजनीतिक हथियार के रूप में खाद्य का इस्तेमाल किया है।

भारत जैसा एक बड़ा देश जिसकी आबादी 110 करोड़ है, बड़े पैमाने पर खाद्य के आयात पर निर्भर नहीं कर सकता है। बढ़ती आबादी के साथ आगामी दिनों चुनौती और अधिक गंभीर होगी। उसकी खाद्य सुरक्षा गंभीर खतरे में पड़ जायगी। कृषि में संकट का समाधान किये बिना और ऊपर उल्लिखित कुछ समस्याओं का हल निकाले बिना आम जनता के लिए सस्ती कीमतों पर समुचित पोषणयुक्त मानक को कायम रखते हुए खाद्य सुरक्षा-पर्याप्त मात्रा में उपलब्धता संभव नहीं हो सकती है। इस कवायद में भारतीय किसान मुख्य खिलाड़ी हैं। भारत को 2020 तक 10 करोड़ टन गेहूं एवं 12 करोड़ टन चावल का उत्पादन करना होगा। इन लक्ष्यों को पूरा करने के लिए सरकार को कृषि में, सिंचाई एवं अन्य उद्देश्यों के लिए निवेश में तेजी लानी होगी। वास्तव में इस क्षेत्र में निवेश में कमी आयी हैं। बड़े पैमाने पर प्रौद्योगिकी को समुन्नत करना होगा, अनुसंधान आदि करने होंगे।

पूंजीपतियों तथा पूंजीपतियों की सरकार ने बहुत पहले ही भूमि सुधार को अलविदा कर दिया। हदबंदी कानून को लागू नहीं किया जा रहा है। भूमि वितरण का वस्तुतः परित्याग कर दिया गयज्ञ। केवल दस लाख हेक्टेयर जमीन का बंटवारा किया गया।, 80 लाख हेक्टेयर जमीन का बंटवारा किया जाना है। वास्तव में इसके उलट प्रक्रिय चल रही है। अब अधिक से अधिक कार्पोरेट एवं ठेका फार्मिंग का सहारा लेने की योजना बनायी जा रही है। किसानों से जमीन लेकर थैलीशाहों को देना, यह है नया चिन्तन। इसके अनुरूप, बड़े उद्योगपतियों को खड़ी फसल खरीदने दें। वायदा कारोबार को हरगिज बंद नहीं किया जाना चाहिए या उस पर पाबंदी नहीं लगायी जानी चाहिए। आवश्यक वस्तु कानून में संशोधन नहीं किया जायगा और कोई भी जखीरा खाली कराने का अभियान नहीं चलाया जायगा। यदि इस बीच कीमतें आसमान छूने लगे और आम आदमी मरता रहे एंव किसानों को कोई लाभ न मिले तो भी कुछ भी नहीं किया जा सकता है?

एक सरकार जो केवल कार्पोरेटों एंव बड़े उद्योगपतियों के मुनाफों की ही देखभाल करती हो और भूस्वामियों एवं भूमिपतियों के निहित स्वार्थों को हाथ लगाने से भी डरती हो, उससे किसी अन्य तरह से समस्या को देखने की अपेक्षा की ही नहीं जा सकती।

इसलिए इस बात की बेहद जरूरत है कि स्वयं संगठित किसानों द्वारा उन प्रत्येक मसले पर जिससे उनका सरोकार है,एक जन आंदोलन एंव जुझारू संघर्ष शुरू किया जाये। उसे अवश्य ही महंगाई के खिलाफ और खाद्य सुरक्षा के लिए मजदूरों एवं आम जनता के संघर्ष के साथ-साथ विकसित किया जान चाहिए। आज इसे कम्युनिस्टों और वामपंथ का एजेंडा होना चाहिए।

ए.बी. बर्धन

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