भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रकाशन पार्टी जीवन पाक्षिक वार्षिक मूल्य : 70 रुपये; त्रैवार्षिक : 200 रुपये; आजीवन 1200 रुपये पार्टी के सभी सदस्यों, शुभचिंतको से अनुरोध है कि पार्टी जीवन का सदस्य अवश्य बने संपादक: डॉक्टर गिरीश; कार्यकारी संपादक: प्रदीप तिवारी

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Communist Party of India, U.P. State Council

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शनिवार, 31 जुलाई 2010

सोये हुए लोगों के बीच जागना पड़ रहा है मुझे

सोये हुए लोगों के बीच जागना पड़ रहा है मुझे
परछाइयों से नीद में लड़ते हुए लोग
जीवन से अपरिचित अपने से भागे
अपने जूतों की कीलें चमका कर संतुष्ट
संतुष्ट अपने झूठ की मार से
अपने सच से मुँह फेर कर पड़े
रोशनी को देखकर मूँद लेते हैं आँखें

सोते हुए लोगों के बीच जागना पड़ रहा है मुझे
ऋतुओं से डरते हैं, ये डरते हैं ताज़ा हवा के झोंकों से
बारिश का संगीत इन पर कोई असर नहीं डालता
पहाड़ों की ऊँचाई से बेख़बर
समन्दरों की गहराई से नावाकिफ़
रोटियों पर लिखे अपने नाम की इबारत नहीं पढ़ सकते
तलाश नहीं सकते ज़मीन का वह टुकड़ा जो इनका अपना है
सोये हुए लोगों के बीच जागना पड़ रहा है मुझे
इनकी भावना न चुरा ले जाए कोई
चुरा न ले जाए इनका चित्र
इनके विचारों की रखवाली करनी पड रही है मुझे
रखवाली करनी पड रही है इनके मान की
सोये हुए लोगों के बीच जागना पड़ रहा है मुझे
- शलभ श्रीराम सिंह
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थम नहीं रहा है थाईलैंड का संकट

थाईलैंड गंभीर उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा है। हालांकि सेना ने राजधानी बैंकाक को सरकार विरोधी रेडशर्ट पर कड़ प्रहार करके तत्काल प्रदर्शनकारियों से मुक्त कर दिया है लेकिन राजनीतिक असंतोष, बेचैनी तथा संघर्ष अभी खत्म नहीं हुआ है। पिछले कुछ समय से बैंकाक तथा आसपास के इलाके हिंसा की गिरफ्त में थे। सेना की कार्रवाई से स्थिति भले ही नियंत्रण में मालूम पड़े लेकिन असंतोष उबल रहा है। 45 दिनों से चला आ रहा उग्र प्रदर्शन अभिसित बेज्जजीवा के इस्तीफे की मांग कर रहे थे। वे नए चुनाव की भी मांग कर रहे थे। इस कार्रवाई से उन लोेगों में रोष और बढ़ेगा जो यह समझते रहे हैं कि वर्तमान सरकार ने गैरकानूनी तरीके से सत्ता पर कब्जा कर रखा है। इससे अभिसित विरोधी और सरकार समर्थक ताकतों के बीच राजनीतिक धु्रवीकरण बढ़ेगा ही। सरकार विरोधी ताकतों ने तानाशाही के खिलाफ लोकतंत्र के लिए संयुक्त मोर्चा (यूडीडी) का गठन किया है। उसमें रेड शर्ट भी शामिल है।
ऐसा नहीं लगता है कि रेड शर्ट सरकार को अपदस्थ करने का प्रयास छोडें़गे और सरकार भी ताकत के सहारे उसे दबाने का प्रयास करेगी। दो ऐसे अवसर आए थे जब इस गतिरोध को दूर किया जा सकता था लेकिन दोनों पक्षों ने उसका उपयोग करने से इंकार कर दिया। हाल के सप्ताहों में दो बड़ी घटनाओं में रेडशर्ट तथा सुरक्षा बलों के बीच संघर्ष में कम से कम 60 लोग मारे गए। पहले प्रधानमंत्री अभिसित बेज्जजीवा ने निर्धारित समय से एक वर्ष पहले नवंबर में चुनाव कराने की पेशकश की। लेकिन रेडशर्ट ने उसे अस्वीकार कर दिया। वे पहले अभिसित बेज्जजीवा सरकार का इस्तीफा चाहते थे। प्रदर्शनकारी यह भी चाहते थे कि सरकार के वरिष्ठ मंत्री को हिंसा के प्रथम दोैर के लिए जिम्मेदार घोषित किया जाए जो अप्रैल में घटित हुई थी। फिर मई के दूसरे सप्ताह में हिंसा की घटना हुई। उसके तीन दिन पहले संकट का समाधान सन्निकट मालूम पड़ता था लेकिन सरकार की ओर से उसे ठुकरा दिया गया। ऐसा लगता है कि दोनों पक्षों के गरमपंथी शांति कायम करने के पक्ष में नहीं हैं।
वर्तमान थाई सरकार पूर्व प्रधानमंत्री थाकसिन शिनवात्रा को इसके लिए दोषी मानती है जिन्हें 2006 में सत्ताहरण के दौरान अपदस्थ कर दिया गया था और जो अभी विदेश में स्व-निर्वासन में रह रहे हैं एवं थाईलैंड में सरकार विरोधी कार्रवाई को हवा दे रहे हैं। सरकार शिनवात्रा को वर्तमान संकट तथा हिंसा के लिए दोषी समझती है। रेडशर्ट का एक तबका शिनवात्रा का समर्थन बताया जाता है जो यह समझता है कि उन्हें गलत एवं गैरकानूनी तरीके से अपदस्थ कर दिया गया था। लेकिन यह भी सच है कि विरोध प्रदर्शन गहरे असंतोष को भी प्रतिबिंबित करता है। बैंकाक में चल रहे प्रदर्शनों तथा विरोध कार्रवाइयांे में मुख्य तौर से आर्थिक रूप से पिछड़े एवं उपेक्षित ग्रामांचल के लोगों ने हिस्सा लिया। ये लोग चाहते हैं कि सरकार और प्रशासन में उनकी आवाज को भी महत्व दिया जाए। राष्ट्रीय मेल-मिलाप के लिए कोई रोड मैप तैयार नहीं किया जा सकता है। यदि लोकतंत्र की उनकी मांग पर गौर नहीं किया जाएगा जो पूरे राष्ट्र को सत्ताधिकार में शामिल करें न कि केवल सेना तथा राजशाही द्वारा समर्थित शासक विशिष्ट वर्ग को।
थाईलैंड के वर्तमान संकट में अनेक चीजें शामिल हैं। आंशिक रूप से ही सही यह एक वर्ग संघर्ष भी है जिसमें उत्तर तथा पूरब के गरीब किसान शामिल हैं जिन्हें यह भय है कि वे कारपोरेट खेती तथा अन्य किस्म के कृषि व्यवसाय को अपनी जमीन खो देंगे। एक अंश में यह दो किस्म की राजनीति के बीच संघर्ष है एक ओर सेना समर्थित तथा शाही समर्थक विशिष्ट वर्ग एवं संकुचित लोकतंत्र है जिसने दशकों से किसी चुनौती का सामना नहीं किया है तथा दूसरी ओर थाकसिन शिनवात्रा जैसे पूंजीपति का भूमंडलीकृत पूंजीवाद जिन्होंने जनता को लामबंद करने के लिए सार्वभौम का लाभ उठाया एवं अपने नियंत्रण में टेलीविजन स्टेशनों का उपयोग किया।
थाईलैंड में प्रकट रूप से असमानता नहीं है जहां इडोनेशिया या भारत जैसी बड़े पैमाने पर शहरी झुग्गी-झोपड़ियां हैं। संपत्ति की खाई अधिकांशतः छिपी है क्योंकि वह भौगोलिक रूप से निर्धारित है। कुछ आप्रवासन के बावजूद दो-तिहाई से अधिक थाई अभी भी ग्रामांचल में रहते हैं और उनमें से करीब आधे गरीबों की श्रेणी में आते हैं। नगरों में नव मध्यम वर्ग लोकतंत्र का अच्छा ड्राइवर साबित नहीं हुआ है जिसकी अनेक विश्लेषकों ने भविष्यवाणी की थी। उसके अधिकांश सदस्य सुधार को दबाने के सरकार के प्रयासों का समर्थन करते हैं जिसमें हाल का विरोध प्रदर्शन भी शामिल हैं
अभी सबसे अधिक जरूरत इस बात की है कि सरकार बातचीत शुरू करने की रेडशर्ट की मांग को स्वीकार करे। यह सच है कि नवंबर में चुनाव कराने की सरकार की पेशकश को स्वीकारनहीं किया क्योंकि प्रदर्शनकारियों को गरमपंथी तबके ने बेरिकेड को खत्म करने से इंकार कर दिया। लेकिन फिर भी प्रधानमंत्री अभिसित बेज्जजीवा को अपनी पेशकश तथा रियायत को रद्द नहीं करना चाहिए था और सेना को कार्रवाई के लिए नहीं बुलाना चाहिए था। इस कार्रवाई से तो यही लगता है कि अभी भी वहां सेना प्रभुत्वकारी शासक तंत्र बनी हुई है। उन्होंने अपने एक अलग वायदे को भी पूरा नहीं किया। उन्होंने दक्षिण में मुस्लिम बहुल इलाके में सुरक्षा बलों को नियंत्रित करने का वायदा किया था जहां एक अलग विद्रोह थम नहीं रहा है।
यह बात छिपी नहीं है कि सेना के पीछे राजभवन है। हालांकि राजा के समर्थकों ने यह प्रचारित किया कि वे राजनीतिक संघर्ष से ऊपर है लेकिन यह भी सच है कि राजा ने अपने 60 वर्षों के शासनकाल में हर सैनिक सत्ताहरण का समर्थन किया। लेकिन बहुत की कम थाई खुलकर यह बात कहता है फिर भी लोग महसूस करने लगे हैं कि अब समय आ गया है कि थाईलैंड में संसदीय लोकतंत्र स्थापित किया जाए। पिछले सितंबर से ही राजा भूमिबोल आदुल्यादेज अस्पताल में हैं उनकी अनुपस्थिति ने एक शून्य पैदा कर दिया है। जिसे एक कामचलाऊ सरकार से भरा जाना चाहिए जो चुनाव की तैयारी करे और राजशाही की शक्ति कम करने के लिए एक आयोग की पहल करे। हाल की अवधि में विदेश मंत्री कासित पिरोम्या विदेशी राजनयिकों से थाई संकट में हस्तक्षेप नहीं करने का आग्रह करते रहे हैं लेकिन हाल में उन्होंने ऐसी बातें स्पष्ट रूप से कही जो अनेक थाई महीनों से निजी रूप से कहते रहे हैं।
कासित पिरोम्या ने अप्रैल में बाल्टीमोर में जोन्स होपकिन्स विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ एडवास्ड इंटरनेशनल स्टडीज में भाषण देते हुए कहा कि थाई राजनीतिक घटनाक्रम में एक सकारात्मक चीज यह है कि 15 या 20 वर्ष पूर्व थाईलैंड की स्थिति के विपरीत सामान्य जन राजनीतिक प्रक्रिया में भाग ले रहे हैं। 15 या 20 वर्ष पूर्व राजनीतिक खिलाड़ी नौकरशाहों, कुछ हद तक उद्योगपतियों, कुछ हद तक पेशेवर राजनीतिज्ञों तथा कुछ हद तक सैनिक आधिकारियों तक सीमित थे। उन्होंने आगे कहा कि हम आशा करते हैं कि घातक हिंसक अनुभवों के साथ ही वहां एक ऐसा लोकतंत्र होगा जो प्रत्यक्ष लोकतांत्रिक भागीदारी के साथ प्रतिनिधित्वपूर्ण लोकतंत्र को जोड़ेगा। फिर उन्होंने यह महत्वपूर्ण बात कही कि मैं समझता हूं कि हमें इतना साहसी होना चाहिए कि हमें राजशाही की संस्था के वर्जित विषय के संबंध में भी बातचीत करनी चाहिए। हमें बहस करनी चाहिए कि हमें किस प्रकार का लोकतांत्रिक समाज चाहिए। उन्होंने अंत में यह भी कहा कि बैंकाक की सड़कों पर अब कोई रक्तपात नहीं होना चाहिए और फिर थाईलैंड की निश्चलता समाप्त हो।
जब थाईलैंड के भविष्य के संबंध में संघर्ष चल रहा है तो एक व्यक्ति जो पहले ऐसे कठिन संघर्षों का समाधान निकालने में सक्षम थे, एकदम चुप है। वे हैं राजा भूमिबोल आदुल्यादेज जो एक लम्बे समय तक अपने देश को एकताबद्ध करने वाले विशिष्ट व्यक्ति थे। जब देश कठिन दौर से गुजर रहा है एवं देश के विशिष्ट वर्ग और उसके अधिकार वंचित गरीबों के बीच तीक्ष्ण संघर्ष चल रहा है तो 82 वर्षीय राजा घटनाक्रम को प्रभावित करने वाले अपने अधिकार को क्षीण होते देख रहे हैं। थाईलैंड के एक विशेषज्ञ चार्ल्स केयेस ने कहा है कि यह राजनीतिक सहमति की समाप्ति है जिसे राजा ने बनाए रखने में मदद की। यह उत्तराधिकार के मसले से अधिक कुछ है। राजा ने अभी तक कुछ भी नहीं कहा है कि जिससे तनाव समाप्त हो जैसा कि उन्होंने 1993 और 1992 में किया जब उन्होंने अपनी बात कहकर राजनीतिक रक्तपात होने से रोक दिया था।
करीब 64 वर्ष पहजे राजगद्दी पर आरूढ़ होने के बाद भूमिबोल ने राजनीतिक अधिकार के बिना एक संवैधानिक राजा की भूमिका ग्रहण की और उस भूमिका का विस्तार करके एक विपुल नैतिक शक्ति प्राप्त कर ली। उन्होंने शाही परिवार के विशाल व्यावसायिक संपत्ति का विस्तार किया। राजशाही का समर्थन करते हुए एक विशिष्ट राजतंत्रवादी वर्ग उभर कर सामने आ गया जिसमें नौकरशाही, सेना और उच्च व्यावसायिक वर्ग शामिल थे। वर्तमान संकट के दौरान एक पैलेस प्रिबी काँसिल ने अपनी शक्ति का प्रयोग किया। यही यह विशिष्ट वर्ग है जिसे अभी प्रदर्शनकारी चुनौती दे रहे हैं।
जो लेाग यथास्थिति बनाए रखना चाहते हैं, वे अपने को राजा के प्रति निष्ठावान घोषित करते हैं और रेडशर्ट पर राजशाही को समाप्त करने का प्रयास करने का दोषारोपण करते हैं क्योंकि वे थाई समाज में परिवर्तन लाना चाहते हैं। थाईलैंड के संबंध में एक ब्रिटिश इतिहासकार क्रिस बेकर ने कहा है कि राजा के नाम का राजनीतिकरण ने यह सुनिश्चित कर दिया है कि राजशाही अब केन्द्रीय सुलहकारी भूमिका अदा नहीं कर सकता है। अनेक रेडशर्ट का कहना है कि वे राजा का सम्मान करते हैं लेकिन उस व्यवस्था में परिवतर्न लाना चाहते हैं जिसका उन्होंने निर्माण किया है। ऐसा लगता है कि समाज में विभाजन काफी गहरा हो गया है और शेष इतना उग्र हो गया है कि मेल मिलाप करने में काफी समय लग जाएगा। अनेक विश्लेषकों को कहना है कि देश की जागरूक ग्रामीण जनता और उसके विशिष्ट वर्ग के बीच एक स्थायी संघर्ष शुरू हो गया है जिसे आसानी से दूर नहीं किया जा सकता है। राजा की बीमारी ने भविष्य की चिंता बढ़ा दी है। राजगद्दी के उत्तराधिकारी राजकुमार महाबाजी- रालोंगकोर्न ने अपनी पिता की लोकप्रियता हासिल नहीं की है।
उत्तराधिकारी तथा राजशाही की भावी भूमिका के बारे मंें बातचीत निषिद्ध है और उसके बारे में काना-फूसी ही हो सकती है। इसके लिए कठोर लेसे मैजेस्टी कानून बना हुआ है जिसके अंतर्गत किसी भी व्यक्ति को जो राजा रानी, उनके उत्तराधिकारी या रीजेंट को बदनाम, अपमानित या धमकी देता हो पंद्रह वर्ष की सजा दी जा सकती है। इसके तहत लेखकों, अकादमीशियनों, कार्यकर्ताओं तथा दोनों विदेशी एवं स्थानीय पत्रकारों को भी सजा दी जा सकती है।
हालांकि वे प्रदर्शनकारी ही हैं जो थाई समाज में परिवर्तन की मांग कर रहे हैं। इनमें वे कुछ लोग भी शामिल हैं जो भविष्य में एक रिपब्लिकन तरह की सरकार चाहते हैं। थाईलैंड के विदेश मंत्री कासित पिरोम्या ने भी इस संबंध में आवाज उठाई है।
- कमलेश मिश्र
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अन्तर्राष्ट्रीय आन्दोलन की अनिवार्यता

विश्व के 20 देशों के प्रधानों की जो बैठक अभी कनाडा के टोरेण्टो शहर में हुई उससे उम्मीद की जाती थी कि 2008 से विश्व में जो भारी आर्थिक संक्ट (रिसेशन) आया और जिसमें करोड़ो लोग बेरोजगार हो गये, उनके घर बिक गये, पेन्सन के मूल्य में कटौतियां हुईं, भारी संख्या में आबादी दरिद्र हो गयी जिसमें अकेले चीन में 230 मिलियन और भारत में 3.37 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे चले आये और यूरोप अभी भारी संकट से गुजर रहा है तथा अमरीका में भारी संख्या में बेरोजगारी चल रही है उस गम्भीर समस्या के ऐसे समाधान पर विचार करेगी जिससे आगे फिर ऐसा संकट नहीं आये। इस पर भी विचार करेगी कि यह संकट वाशिंगटन कनसेनसल को लागू करने और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्व बैंक, विश्व टेªड सेन्टर आदि के जरिये उसे फैलाने जिसमें फ्री टेªड, न्यूनतम सरकारी हस्तक्षेप या व्यापार के संबंध में कोई सरकारी कानून नहीं रखना, बैंक पर भी सरकारी नियम नहीं रखना सिवाय मुद्रा प्रसार रोकने के लिए, पब्लिक सेक्टर का खानगीकरण आदि के कारण हुआ। शुरू में तो इस नीति के कारण भारी विकास हुआ लेकिन बाद में यह भारी संकट आया। इस संकट में गरीब तो और गरीब हो गये लेकिन करोड़पतियों की भारी वृद्धि हुई। न्यूज वीके 28 जून के मुताबिक इस भारी आर्थिक संकट के समय विश्व भर में 98 प्रतिशत, अमरीका में 15 प्रतिशत, चीन में 39 प्रतिशत, सिंगापुर में 35 प्रतिशत करोड़पतियों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई। भारत में 2005 में 3000 करेाड़पति थे और 2008 में 126756 हो गये। लेकिन 20 देशों के प्रधानों ने ऐसा कुछ नहीं किया। सरकारी खजाने से एक ट्रिलियन से भी ज्यादा ऋण या सहायता उन पूंजीपतियों को दी गयी जिन्होंने यह भारी संकट पैदा किया था। यह सहायता देना जारी रखा जाय इस पर ही हमारे प्रधानमंत्री ने जोर दिया वह न भोपाल हादसा का सवाल उठाया और न अमरीका के प्रेसीडेन्ट से उस पर बात की। अमरीकी राष्ट्रपति ने बैंकों पर और कम्पनियों पर टैक्स लगाने की बात की। उन्होंने अपने देश में मुक्त व्यापार में सरकारी हस्तक्षेप का कानून बना रहे हैं। लेकिन यह कोई ऐसा बुनियादी परिवर्तन नहीं लायेगा जिससे ऐसा संकट फिर नहीं आये। विश्व विख्यात अर्थशास्त्री जोसेफ स्तीगलीज के मुताबिक वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था में ऐसा छोटा संकट आता ही रहता है। अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “फ्री फॉल” में उन्होंने बताया है कि सन् 1950 और 2008 के बीच विभिन्न रूप में अलग-अलग देशों में 724 बार आर्थिक संकट आये हैं और उसमें अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक ने सिर्फ मदद नहीं की बल्कि उल्टे गलत सुझाव दिये।
साम्राज्यी शोषण रोकना
ग्लोबलाइजेशन तो रहना ही है और ग्लोबलाईजेशन के समय जो विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के जरिये शोषण होता है उसे रोकने के लिए भारत को नेहरू युग के निर्गुट आन्दोलन की तरह आन्दोलन उठाना चाहिए। जोसेफ स्तलिन्तज साहब ने लिखा है कि डालर को ग्लोबल रिर्जव सिस्टम रखकर अमरीका दूसरे देशों, गरीबों देशों का शून्य या न्यूनतम सूद पर अपने टेªजरी विल्स में डालर रखकर उसका उपयोग करता है। भारत का भी उसमें 36.977 डालर जमा है। इसलिए उनका सुझाव है कि गरीब देशों के इस शोषण को रोकने के लिए एक नया ग्लोबल रिर्जव सिस्टम बनाने की सख्त जरूरत है जिससे यह शोषण रूके। हमारे प्रधानमंत्री प्रसिद्ध अर्थशास्त्री हैं लेकिन इस पर चुप हैं।
स्तगलिन्तज साहब का यह भी सुझाव है कि अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक का ऐसा सुधार हो जिससे गरीब देशों को समय पर उचित सहायता मिले।छोटे-छोटे कारखानों या कम्पनियों को ज्यादा सहायता मिलनी चाहिये जिससे ज्याद लोगों को काम मिले।
दुनिया के कुछ देश दूसरे देशों के भ्रष्टाचार वाले धन को अपने बैंकों में रखते हैं इसमंे लंदन और अमरीका भी है। इसे रोकने के लिए कारगार कानून बनाने की जरूरत हैं। ऐसे ही कुछ देश हैं जिसके जरिये बड़े पैमाने पर कर वंचना बहुराष्ट्रीय भी करते हैं।
अन्तर्राष्ट्रीय रोविन टैक्स का बहुत दिनों से आया हुआ है। अब तो जरूरत है अन्तरदेशीय कम्पनियों पर एक विशेष गरीबी दूर करने के लिए कर लगाया जाय।
जब तक ग्लोबल कोआरडिनेटेड उत्साहवर्द्धक व्यवस्था नहीं होगा और ग्लोबल कोआरडिनेटेड शासन नहीं होगा तब तक पूंजीवादी आर्थिक संकट को रोका नहीं जा सकता है।
प्रकृत का जो दोहन चल रहा है जिस कारण निकट दशाब्दियों में ही मानव जाति को विनाश का सामना करना होगा उसे रोकने के लिए भी अन्तर्राष्ट्रीय कड़ा कानून चाहिए जिससे बड़े-बड़े धनी देशों पर भी नियंत्रण हो।
अन्तर्राष्ट्रीय आन्दोलन की अनिवार्यता
अगर ऐसा विश्वव्यापी जोरदार आन्दोलन नहीं होगा तो इस बार का भयानक आर्थिक संकट भी जैसे तैसे बातचीत में ही बीत जायेगा फिर दुनियां जैसी की तैसी गरीबों के भूखे मरने की बनी रहेगी। दक्षिण अमरीका का अमरीका विरोधी आन्दोलन भी ऐसी नयी व्यवस्था नहीं ला सका जिसमें बेरोजगारी नहीं हो, सभी को मकान हो, सभी बच्चे पढ़े, बिना इलाज कोई मरे नहीं, गरीबी नहीं रहे, सभी सम्मानजनक और आधुनिक स्तर के जीवन बिता सकें।
समेकित विकास के आधार
अभी विश्व भर में इन्क्लयूसिव ग्रोथ की बात भी चल रहा है, लेकिन इन्क्लयूसिव ग्रोथ छिटपूट कुछ कल्याणकारी कदम उठाना नहीं है। स्वीडेन में उसके जीडीपी का 48-49 प्रतिशत टैक्स पूंजीपति देते हैं और स्वीडेन अपनी जीडीपी का साढ़े तीन प्रशित विभिन्न विषयों के अनुसंधान पर लगाता है जिससे वहां कल कारखाने, दवा आदि आधुनिकतम तकनीक के हैं। वहां विश्व का सबसे ऊांचा जीवन स्तर है। भारत को कुछ ऐसा करना चाहिए जिसमें प्रत्येक नागरिक को:
1. ऐसा उचित अवसर मिले जिसमें आमदनी के बहुत तरीके उपलब्ध हों।
2. योग्यता: ऐसी व्यवस्था हो जिसमें नागरिक योग्यता हासिल करें जिसमें वह नये-नये अवसरों का उपयोग कर सके।
3. सामाजिक सुरक्षा: अस्थायी रूप में बेराजगार होने पर भी सामाजिक सुरक्षा रहे।
4. पिछडे़ क्षेत्रों के लिए विकास के लिए विशेष प्रोग्राम रहे।
5. खानगी और राजकीय सभी को यह सुरक्षा गारन्टी करना हो।
तभी सही में समेकित विकास हो सकेगा।विशाल गरीब आबादी में एक नयी जागृति लाना अनिवार्य हो गया है। सिर्फ एक वोट गिराना ही नहीं बल्कि सांसदों-विधायकों पर लगातार जन-दबाव। चुने हुये सांसदों-विधायकों को गलती करने पर वापस बुलाने का अध् िाकार भी हो। नौकरशाही पर ऐसा जन दबाव हो तभी गरीबी दूर हो सकेगी।
- चतुरानन मिश्र
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शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

पीथमपुर ही क्यों!

पीथमपुर मध्यप्रदेश का सबसे बड़ा औद्योगिक क्षेत्र है, जहां प्रदेश की सरकार यूनियन कार्बाइड का जहरीला कचरा नष्ट करने जा रही है। प्रदेश सरकार का यह फैसला किसी एक स्थान पर किसी कारखाने के कचरे को नष्ट करने मात्र का नहीं है, बल्कि यह पर्यावरण और मानव जीवन पर एक गंभीर आघात है। लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के कल्याणकारी स्वर पर प्रश्न चिह्न है यह। भोपाल गैस त्रासदी के लिए जिम्मेदार यूनियन कार्बाइड के परिसर में पिछले 25 सालों से जहरीला कचरा पड़ा है, जो वहां के जन-जमीन और समूचे पर्यावरण को प्रभावित कर रहा है। यह बात पूरी तरह स्पष्ट हो चुकी है कि यह कचरा मानव जीवन के लिए खतरा है।

1999 में ग्रीन पीस इंटरनेशनल के विशेषज्ञों ने भी अपनी रिपोर्ट में इस कचरे को भूमि के खतरनाक स्तर तक प्रदूषित माना था। इसके पहले इस कचरे को गुजरात के अंकलेवर स्थित प्लांट में जलाने का निर्णय लिया गया था, लेकिन वहां के विरोध स्वरूप मध्य प्रदेश सरकार ने इसे इंदौर के समीप पीथमपुर के हवाले करने का निर्णय लिया। इस संबंध में सर्वोच्च न्यायालय में हुई सुनवाई में भारत सरकार के रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय के निदेशक द्वारा 13 अपै्रल 2009 को न्यायालय में प्रस्तुत किए गए शपथ पत्र में कहा गया था कि यूनियन कार्बाइड के खतरनाक कचरे को अंकलेश्वर के भस्मक में जलाए जाने की अनुमति इसलिए रद्द कर दी गई, क्योंकि वहां के नागरिक अधिकार समूह इसका तीखा विरोध कर रहे हैं।

स्पष्ट है कि यूनियन कार्बाइड का कचरा मानव जीवन के लिए खतरनाक है। तब यह सवाल उठता है कि आखिर पीथमपुर और उसके आसपास के लोगों को ही इसका शिकार क्यों बनाया जा रहा है?

सरकार द्वारा इस कारखाने में व्याप्त कचरे की मात्रा 350 टन बताई जा रही है, जबकि 1969 में कारखाना स्थापित होने के बाद से ही लगातार जहरीला कचरा भोपाल की जमीन पर फेंका जा रहा था, जिसकी कुल मात्रा 27 हजार टन है। 2007 में मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में 39.6 टन ठोस कचरा पीथमपुर और 346 टन ज्वलनशील अपशिष्ट को गुजरात के अंकलेश्वर में स्थित भस्मक में जलाने के निर्देश दिए थे, जबकि गुजरात सरकार ने इस कचरे को अपने यहां जलाने से इंकार कर दिया है। दूसरी ओर जून 2008 में मध्य प्रदेश सरकार द्वारा 39.3 टन कचरा पीथमपुर में दफन कर दिया गया। इस कचरे के दफन करने के बाद उसके पास के मंदिर के कुएं का पानी काला पड़ गया और समीप बसे गांव तारपुर के लोगों द्वारा उस पानी का उपयोग बंद कर दिया गया। इस दशा में यह 27 हजार टन कचरा पीथमपुर में नष्ट किया जाएगा तो वहां के मानव जीवन पर पड़ने वाला असर कल्पना से परे है।

इस सवाल पर विचार की जरूरत है कि आखिरी पीथमपुर में कार्बाइड के कचरे से किसके जीवन को नुकसान होने वाला है? यह स्पष्ट है कि इससे उद्योगपतियों, प्रबंधकों, अधिकारियों और राजनेताओं पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ेगा। करीब 400 उद्यमों वाले पीथमपुर क्षेत्र में उद्योगपति और प्रबंधक और उनके अधिकारी निवास नहीं करते। वे इंदौर शहर या धार कस्बे में रहते हैं। पीथमपुर औद्योगिक क्षेत्र होने के साथ ही साढ़े पांच लाख श्रमिकों की बस्ती भी है।

दरअसल पीथमपुर के औद्योगिकरण को हम यूरोप की औद्योगिक क्रांति से उत्पन्न
विचारधारा से मुक्त नहीं मान सकते। औद्योगिक क्रांति ने पूंजीवाद को जन्म दिया और इस पूंजीवाद ने श्रमिकों इंसान के बजाय श्रम करने और मुनाफा देने वाले औजार के रूप में माना। 1936 में प्रदर्शित चार्ली चैप्लिन की एक मूक फिल्म में मशीन और इंसान के संबंध को बताया गया है। वास्तव में उद्योगपति और राज्य की दृष्टि में मजदूर को मशीन का ही एक हिस्सा माना गया था, जिसका श्रम बेचकर उद्योगपति मुनाफा कमाते थे। भारतीय कृषि व्यवस्था के संदर्भ में खेती के काम में लगाए जाने वाले पशुओं का भी यही स्थान है। इसी पूंजीवाद को जिंदा रखने के लिए इंसान द्वारा इंसान का शोषण का विरोध करने वाली समाजवादी धारा को सफल नहीं होने दिया गया।

आजाद भारत में संविधान लागू होने के बाद यह उम्मीद जगी थी कि अब यहां के उद्योग कल्याणकारी विचारधारा का पोषण करेंगे। व्यावहारिक धरातल पर औद्योगिक क्रांति की शोषणकारी विचारधारा को हम भुला नहीं पाए और किसी खास मौके पर यह विचारधारा अंगद के पांव की तरह हमारे सामने अडिग हो जाती है। पीथमपुर में कार्बाइड के कचरे को इसी रूप में देखा जा सकता है।

उद्योगों को कौड़ियों के दाम पर जमीन देने वाली सरकार ने एक दशक में पीथमपुर की मजदूर बस्तियों के विकास के लिए कोई बड़ी राशि सुनिश्चित नहीं की। उद्योगपतियों और प्रबंधकों के आवागमन को सुगम बनाने वाली सरकार ने पीथमपुर के मजदूरों के बच्चों की शिक्षा और स्वास्थ्य पर कोई ध्यान नहीं दिया। दूसरी ओर जब कार्बाइड के जहरीले कचरे को नष्ट करने की बात आई तो सरकार को यहां पीथमपुर दिखाई दिया, जहां साढ़े पांच लाख मजदूर अपने पेट भरने के लिए बसर करते हैं।

संविधान के अनुच्छेद 21 में देश के प्रत्येक नागरिक को प्राण और दैहिक सुरक्षा का अधिकार प्रदान किया गया है। दूसरी ओर सरकार खुद पीथमपुर के मजदूरों का यह
अधिकार छीनने की तैयारी चल रही है। तथ्यों से यह साफ कि पीथमपुर में कार्बाइड का जहरीला कचरा नष्ट किया जाएगा तो वहां बसर कर रही श्रमिक आबादी की सेहत पर प्रभाव पड़ेगा।

सरकार का एक चेहरा भारत के संविधान में निहित है, जिसमें लोक कल्याणकारी राज्य और नागरिक के मौलिक अधिकार की बात कही गई है। लेकिन औद्योगिक क्षेत्रों की मजदूर बस्तियों में यह चेहरा औद्योगिक क्रांति से उत्पन्न पूंजीवादी चेहरे में तब्दील हो जाता है।

- राजेन्द्र बंधु
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उत्तर प्रदेश में नई ताकत बन कर उभरे किसान

लखनऊ, 21 जुलाई। उत्तर प्रदेश में किसानों की बढ़ती ताकत के आगे मायावती सरकार लगातार पीछे हट रही है। दो दिन पहले दादरी कि किसानों के लिए जमीन का मुआवजा देने की मियाद बढ़ा दी गई। इससे पहले लखनऊ में दशहरी आम के ढाई सौ साल पुराने पेड़ के साथ कई बगीचे बचाने का फैसला किया गया। चंदौली में किसानों की दस हजार हेक्टेयर जमीन जो रेलवे कॉरिडोर के लिए ली जानी थी, वह फैसला रद्द कर दिया गया।

इससे राज्य के विभिन्न इलाकों में खेती की जमीन के अधिग्रहण को लेकर जो भी आंदोलन हुए, उससे किसानों की ताकत बढ़ी है। चंदौली, लखनऊ, ललितपुर, हाथरस, बलिया, इलाहाबाद, मिर्जापुर, दादरी, मेरठ, मुजफ्फरनगर और लखीमपुर जैसे कई इलाकों में किसानों के छोटे-बड़े आंदोलन हुए, जिसने नई जमीन तैयार की है। खास बात यह है कि इन आंदलनों में भूमिहीन मजदूर किसानों की अपेक्षा मझोले और बड़े किसानों की ज्यादा हिस्सेदारी रही है। इनकी कामयाबी की एक वजह यह भी मानी जाती है।

दादरी में जो किसान आंदोलन हुआ,उसमें भी मझोले किसानों की हिस्सेदारी ज्यादा थी। दादरी के किसानों के लिए हाई कोर्ट ने 2762 एकड़ जमीन लौटाने का आदेश दिया है। इसके लिए किसानों को मुआवजा वापस करना है। इसकी मियाद सरकार बढ़ा रही है। किसान मंच के अध्यक्ष विनोद सिंह ने कहा कि सरकार की तरफ से जानकारी मिली है कि मुआवजा वापस करने की मियाद दो महीने के लिए बढ़ाई जा रही है।

दूसरी तरफ जिन चार गांवों सदरौना, सरौसा, भरोसा और मुजफ्फराबाद की 200 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया जाना था, वह अब टल गया है। यहां वामपंथी दलों की पहल पर किसान आंदोलन शुरू हुआ था। इसी तरह चंदौली में रेलवे कॉरिडोर के लिए किसानों की दस हजार हेक्टेयर जमीन का सरकार अधिग्रहण करने वाली थी पर भाकपा के नेतृत्व में किसानों ने यहां भी नंदीग्राम और सिंगुर की तरह आंदोलन छेड़ने की चेतावनी दी तो फैसला रद्द कर दिया गया। भाकपा के सचिव डा. गिरीश ने कहा कि राज्य के विभिन्न इलाकों में किसानों की बढ़ती ताकत के कारण कई जगह सरकार ने टकराव टाला और फैसला बदला है।

यमुना एक्सप्रेस हाई वे अथारिटी के लिए हाथरस, मथुरा, आगरा और अलीगढ़ के 850 गांवों की नौ लाख हेक्टेयर जमीन का अधिग्रहण का काम भी आंदोलन के दबाव में रूक गया है। इस मुद्दे पर एक तरफ भाकपा किसानों को गोलबंद कर रही थी तो दूसरी तरफ लोकदल ने आंदोलन छोड़ दिया था। यह इलाका चौधरी अजित सिंह के राजनैतिक प्रभाव का इलाका है जिस वजह से उन्हें खुद सड़क पर उतरना पड़ा।

इससे पहले गन्ना किसानों ने भी अपनी ताकत दिखा दी थी जिसके कारण कारकार को झुकना पड़ा। गन्ना किसानों में भी ज्यादातर मझोले और बड़े किसान है। इसी तरह ललितपुर जिले के दैलवारा सहित कुछ गांवों की जमीन एक बिजली घर के लिए ली जा रही थी पर किसानों के आंदोलन के कारण यहां भी सरकार को पीछे हटना पड़ा। दो दिन पहले ही इलाहाबाद में उस जमीन को लेकर किसानों ने आंदोलन शुरू किया जो अब जेपी समूह को दी जा चुकी है। इस तरह पूरे राज्य में कई जगह किसानों के आगे सरकार झुकी है। भाकपा की एक रपट में इस बात का जिक्र किया गया है कि राज्य में किसान एक नई ताकत बन कर उभर रहा है जो एक परिवर्तनकारी संकेत है।

(साभार: “जनसत्ता”)

- अंबरीश कुमार

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गुरुवार, 29 जुलाई 2010

मैं बढ़ा ही जा रहा हूँ

मैं बढ़ा ही जा रहा हूँ, पर तुम्हें भूला नहीं हूँ ।

चल रहा हूँ, क्योंकि चलने से थकावट दूर होती,
जल रहा हूँ क्योंकि जलने से तमिस्त्रा चूर होती,
गल रहा हूँ क्योंकि हल्का बोझ हो जाता हृदय का,
ढल रहा हूँ क्योंकि ढलकर साथ पा जाता समय का ।

चाहता तो था कि रुक लूँ पार्श्व में क्षण-भर तुम्हारे
किन्तु अगणित स्वर बुलाते हैं मुझे बाँहे पसारे,
अनसुनी करना उन्हें भारी प्रवंचन कापुरुषता
मुँह दिखाने योग्य रक्खेगी ना मुझको स्वार्थपरता ।
इसलिए ही आज युग की देहली को लाँघ कर मैं-
पथ नया अपना रहा हूँ

पर तुम्हें भूला नहीं हूँ ।

ज्ञात है कब तक टिकेगी यह घड़ी भी संक्रमण की
और जीवन में अमर है भूख तन की, भूख मन की
विश्व-व्यापक-वेदना केवल कहानी ही नहीं है
एक जलता सत्य केवल आँख का पानी नहीं है ।

शान्ति कैसी, छा रही वातावरण में जब उदासी
तृप्ति कैसी, रो रही सारी धरा ही आज प्यासी
ध्यान तक विश्राम का पथ पर महान अनर्थ होगा
ऋण न युग का दे सका तो जन्म लेना व्यर्थ होगा ।
इसलिए ही आज युग की आग अपने राग में भर-
गीत नूतन गा रहा हूँ

पर तुम्हें भूला नहीं हूँ ।

सोचता हूँ आदिकवि क्या दे गये हैं हमें थाती
क्रौञ्चिनी की वेदना से फट गई थी हाय छाती
जबकि पक्षी की व्यथा से आदिकवि का व्यथित अन्तर
प्रेरणा कैसे न दे कवि को मनुज कंकाल जर्जर ।

अन्य मानव और कवि में है बड़ा कोई ना अन्तर
मात्र मुखरित कर सके, मन की व्यथा, अनुभूति के स्वर
वेदना असहाय हृदयों में उमड़ती जो निरन्तर
कवि न यदि कह दे उसे तो व्यर्थ वाणी का मिला वर
इसलिए ही मूक हृदयों में घुमड़ती विवशता को-
मैं सुनाता जा रहा हूँ

पर तुम्हें भूला नहीं हूँ ।

आज शोषक-शोषितों में हो गया जग का विभाजन
अस्थियों की नींव पर अकड़ा खड़ा प्रासाद का तन
धातु के कुछ ठीकरों पर मानवी-संज्ञा-विसर्जन
मोल कंकड़-पत्थरों के बिक रहा है मनुज-जीवन ।

एक ही बीती कहानी जो युगों से कह रहे हैं
वज्र की छाती बनाए, सह रहे हैं, रह रहे हैं
अस्थि-मज्जा से जगत के सुख-सदन गढ़ते रहे जो
तीक्ष्णतर असिधार पर हँसते हुए बढ़ते रहे जो
अश्रु से उन धूलि-धूसर शूल जर्जर क्षत पगों को-
मैं भिगोता जा रहा हूँ

पर तुम्हें भूला नहीं हूँ ।

आज जो मैं इस तरह आवेश में हूँ अनमना हूँ
यह न समझो मैं किसी के रक्त का प्यासा बना हूँ
सत्य कहता हूँ पराए पैर का काँटा कसकता
भूल से चींटी कहीं दब जाय तो भी हाय करता

पर जिन्होंने स्वार्थवश जीवन विषाक्त बना दिया है
कोटि-कोटि बुभुक्षितों का कौर तलक छिना लिया है
'लाभ शुभ' लिख कर ज़माने का हृदय चूसा जिन्होंने
और कल बंगालवाली लाश पर थूका जिन्होंने ।

बिलखते शिशु की व्यथा पर दृष्टि तक जिनने न फेरी
यदि क्षमा कर दूँ उन्हें धिक्कार माँ की कोख मेरी
चाहता हूँ ध्वंस कर देना विषमता की कहानी
हो सुलभ सबको जगत में वस्त्र, भोजन, अन्न, पानी ।
नव भवन निर्माणहित मैं जर्जरित प्राचीनता का-
गढ़ ढ़हाता जा रहा हूँ ।

पर तुम्हें भूला नहीं हूँ ।

- शिवमंगल सिंह सुमन
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“नए बिहार के निर्माण” के नारे के साथ विधान सभा चुनावों में उतरेगी भाकपा

पटना, 9 जुलाई, 2010: भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, कृषि और औद्योगिक पिछड़ापन, बाढ़-सुखाड़, महंगाई, खाद्य सुरक्षा, प्रशासनिक भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, पानी और बिजली संकट आदि समस्याओं का समाधान तथा भूमिहीनों को कम से कम एक एकड़ जमीन, भूमिहीन बेघरों को कम से कम 10 डिसमिल आवासीय भूमि तथा मकान, जनवितरण प्रणाली के माध्यम से सभी परिवारों को निर्धारित उचित मूल्य पर आवश्यक उपभोक्ता वस्तुओं की आपूर्ति तथा सभी नागरिको को भर पेट भोजन की व्यवस्था करने के लिए एक नए बिहार के निर्माण के आह्वान के साथ विधान सभा चुनाव में उतरेगी।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का बिहार राज्य परिषद की सम्पन्न दो दिवसीय बैठक में पारित राजनीतिक प्रस्ताव में उपरोक्त बातें कहीं गयी हैं। बैठक में जारी प्रेस विज्ञप्ति में बैठक के फैसले की जानकारी देते हुए पार्टी की राज्य सचिवमंडल के सदस्य मो. जव्वार आलम ने कहा कि बिहार में अगामी विधानसभा चुनाव में वामदलों के साथ एकता बनाकर पार्टी चुनाव लड़ने का प्रयास करेगी। इस दिशा में वामदलों के साथ बातचीत शुरू हो चुकी है। बैठक में स्वीकृत राजनीतिक प्रस्ताव में कहा गया है कि बिहार में आर्थिक विकास के बारे में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार उल्टा प्रचार कर रहे हैं। यहां कृषि, उद्योग, बिजली आदि जो किसी भी राज्य के आर्थिक विकास के मेरूदंड होते हैं अत्यन्त दयनीय स्थिति में हैं। ऊपर से यू.पी.ए. के केन्द्र सरकार की नवउदारवादी नीतियों एवं जनविरोधी कार्रवाईयों के कारण महंगाई, बेराजगारी, कुपोषण आदि समस्याओं से बिहार की जनता परेशान है। राजद-लोजपा भी इन समस्याओं के समाधान के प्रति न तो ईमानदार है और न ही सक्षम। ऐसी परिस्थिति में बिहार में एक बेहतर राजनीतिक विकल्प की आवश्यकता है। प्रस्ताव में कहा गया है कि राज्य में कोई भी बेहतर विकल्प वामपंथ के सहयोग के बिना नहीं बन सकता।
श्री आलम ने कहा कि बिहार की राजनीतिक परिस्थिति ऐसी बनती जा रही है जिसमें किसी एक दल या दलों के किसी एक गठबंधन द्वारा सरकार बनाने की संभावना क्षीण दिखायी पड़ रही है। चुनाव बाद ही सरकार बनाने के वास्ते कोई नया राजनीतिक समीकरण उभर सकता है जिसमें वामपंथ की महत्वपूर्ण भूमिका होगी। इसलिए प्रस्ताव में राज्य की जनता से यह आह्वान किया गया है कि आगामी चुनाव में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी सहित अन्य वामदलों की शक्ति को बढ़ावे।
श्री आलम ने बतलाया कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने अपनी चुनावी तैयारी शुरू कर दी हैं। राज्य में पार्टी द्वारा लड़ी जानेवाली सीटों की पहचान की जा रही है। प्रत्येक सीट के लिए उम्मीदवार के चयन की प्रक्रिया भी शुरू हो चुकी है। युवाओं, महिलाओं, अल्पसंख्यकों, दलितों एवं अन्य कमजोर वर्गों से अधिक से अधिक संख्या में पार्टी उम्मीदवार बनाने के बारे में गंभीरता पूर्वक विचार किया जा रहा है। इसके साथ ही पार्टी के कुछ वरिष्ठ एवं दिग्गज नेताओं को चुनाव मैदान में उतारने पर भी विचार किया जा रहा है। उम्मीदवार चयन का काम शीघ्र ही पूरा कर लिया जायेगा।
श्री आलम ने वहां की आगामी विधानसभा चुनाव में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी महंगाई, खाद्य सुरक्षा, बेरोजगारी, भूमिसुधार, कृषि-औद्योगिक पिछड़ापन, बाढ़-सुखाड़, बिजली, पानी संकट, प्रशासनिक भ्रष्टाचार आदि मुद्दों पर चुनाव लड़ेगी। पार्टी प्रयास करेगी कि आगामी चुनाव राज्य की जनता की जिन्दगी से जुड़े सवालों को लेकर लड़ा जाय, न कि जाति एवं साम्प्रदायिक गोलबंदी के आधार पर।
बैठक में पार्टी के महासचिव, ए.बी. बर्धन, उप महासचिव सुधाकर रेड्डी, राष्ट्रीय सचिव गुरूदास दासगुप्ता, सांसद एवं केन्द्रीय कार्यकारिणी के सदस्य गया सिंह भी उपस्थित थे। श्री ए.बी. बर्धन ने पार्टी ईकाइयों, नेताओं और कार्यकर्ताओं का आह्वान किया कि वामपंथ के सामने खड़ी चुनौतियों का सामना करने के लिए पहले से कहीं ज्यादा एकताबद्ध और सक्रिय होने की जरुरत है। उन्होंने कहा कि संसद या विधान सभाओं में वामपंथ की शक्ति को बढ़ाना आज एक राजनीतिक आवश्यकता बन गया है। क्योंकि कमजोर वामपंथ का लाभ उठाते हुए केन्द्र की यू.पी.ए. सरकार स्वच्छन्द होकर जनविरोधी आर्थिक नीतियां चला रही है और जनहित की इसे कोई चिन्ता नहीं रह गयी है।
बैठक में एक प्रस्ताव पारित करके हड़ताल पर रहे कालेज शिक्षकों एवं शिक्षाकेत्तर कर्मचारियों की मांगों का समर्थन करते हुए सरकार से अपील की गयी है कि हड़ताली नेताओं से शीघ्र बातचीत करके कोई सम्मानजनक समझौता किया जाय ताकि उनकी हड़ताल जल्द समाप्त हो सके और कालेजों में पठन-पाठन एवं शिक्षण का काम हो सके। हड़ताल के कारण छात्रों की पढ़ाई तो ठप है ही नामांकन का काम भी वंचित हो गया है।
बैठक के आरम्भ में कानू सान्याल, गिरजा प्रसाद कोईराला, भैरोसिंह शेखावत, आचार्य राममूर्ति, सुधा श्रीवास्ताव, दिग्विजय सिंह सहित पार्टी के अन्य दिवंगत नेताओं और कार्यकर्ताओं की मृत्यु पर भी शोक व्यक्त किया गया।
पार्टी की राज्य परिषद के बैठक की अध्यक्षता पार्टी के वरिष्ठ नेता शत्रुघन प्रसाद सिंह ने की।
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1960 की केन्द्रीय कर्मचारी हड़ताल

संगठन, संस्था, समाज और देश के इतिहास में कुछ जाज्वल्यमान कालखण्ड होते हैं, जिन पर उन्हें नाज होता है। उनकी गौरव गाथाएं होती हैं। समस्त केन्द्रीय कर्मचारी जब अपने संयुक्त संघर्षशील आंदोलन का सिंहावलोकन करते हैं तो देखते हैं, कि 1944 की हड़ताल से पहला वेतन आयोग जन्मा और 1957 के हड़ताल के नोटिस के कारण दूसरे वेतन आयोग का गठन हुआ। उसी आयोग की कर्मचारीविरोधी अनुशंसाओं और केन्द्र सरकार के अड़ियल रूख के कारण 12 जुलाई 1960 से 5 दिवसीय अनिश्चितकालीन हड़ताल प्रारंभ हुई, जिसका स्वर्ण जयंती वर्ष पूरे वर्ष देश में मनाया जा रहा है।
उस हड़ताल को केन्द्रीय गृहमंत्री पं. गोविन्दवल्लभ पंत ने सिविल विद्रोह कहा था। यह भी कहा था कि यदि यह सफल होती, तो आज हम यहां (संसद में) नहीं होते। तत्कालीन एटक के जनरल सेक्रेटरी और सांसद कामरेड एस.ए. डांगे ने उसे पांच दिवसीय शालीन हड़ताल (5 डेज ग्लोरियस स्ट्राइक) कहा था। यह भी तर्क दिया था कि जब मुनाफे बढ़े गये हैं, उत्पादन बढ़ गया है, हर तरह विकास हो रहा है, परन्तु कर्मचारी का वेतन घट गया है। अतः हड़ताल उचित, सामयिक और जायज है।
इस हड़ताल से चार दिन पहले अनिवार्य सेवा अध्यादेश लागू कर दिया गया था। रेलवे, डाक-तार, सिविल एविऐशन, सेक्यूरिटी प्रेस, टकसाल आदि को अनिवार्य सेवाएं घोषित कर दिया गया। हड़ताल को अवैध करार दिया गया। यह धमकी दी गयी, जो हड़ताल में शामिल होगा, उसे एक साल का सश्रम कारावास और 1000 रुपए जुर्माना किया जायेगा। कई अखबार और आकाशवाणी बौखला गये थे। राष्ट्रीय स्तर पर अशोक मेहता, एस.एम. जोशी, फिरोज गांधी, आर.के. खांडिलकर आदि ने मध्यस्थता करने के कई प्रयास किये। केन्द्र सरकार ने किसी की नहीं सुनी और कर्मचारी हड़ताल पर जाने को बाध्य हो गये। नेहरू जी ने भी आकाशवाणी से अपील की। एटक, एचएमएस, यूटीयूसी ने हड़ताल का समर्थन किया। जबकि इंटक ने घोर विरोध किया।
संयुक्त संघर्ष समिति (जेसीए) की मांग थी -
(1) महंगाई भत्ते का आयोग की रिपोर्ट के आधार पर भुगतान हो।
(2) 15वें श्रम सम्मेलन के अनुसार न्यूनतम वेतन 125 रुपये हो, जबकि सरकार ने 80 रुपये माना था
(3) सभी विभागों में कर्मचारी हितों के लिये स्टैंडिंग बोर्ड बनाये जायें,
(4) प्राप्त सुविधाओं व अधिकारों मे कोई कटौती नहीं हो,
(5) एक उद्योग में एक यूनियन हो,
(6) रेल 4(अ) और 4 (ब) को निरस्त किया जाये (जो बाद में कोर्ट ने किया)
11 जुलाई, 1960 को रात्रि शून्यकाल से हड़ताल शुरू हुई, जो रात्रिकालीन ड्यूटी पर थे, वे बाहर आ गए। हड़ताल विरोधी सघन प्रचार और पुलिसिया आतंक के बावजूद देश भर में हड़ताल के अद्भुत नजारे दिखाई दिये। गुजरात के दाहोद में हड़तालियों पर गोलियां चली और पांच रेलवे कर्मचारी शहीद हुए। 22 लाख केन्द्रीय कर्मचारियों में से सरकारी आंकड़ों के अनुसार 5 लाख ने हड़ताल में शिरकत की। उनमें से 94,525 डाक तार कर्मचारी थे। 17,700 गिरफ्तारियों में से 6500 डाक तार वाले थे। 27,700 निलंबित में से 13000 पी एंड टी कर्मचारी थे। अधिकतर गिरफ्तार कर्मचारियों को तुरन्त बर्खास्त किया गया। जेल में आदेश दिए गए। हजारों को आरोप पत्र और स्थानांतरण जारी किये गये। उन्हीं प्रताड़नाओं की तीखी आंच से यह स्वर्णिम जयन्ती वर्ष जन्मा है।
अविभाजित मध्य प्रदेश में छत्तीसगढ़ क्षेत्र में जमकर हड़ताल हुए। जेलें भरी गयी। इन्दौर, भोपाल, रीवा में हड़ताल हुई। जबलपुर में जे.पी. पाण्डे जी को डाकघर में गिरफ्तार किया। रीवां और भिलाई में 11.00 बजे सजायें सुनाकर जेल भेज दिया था। बिलासपुर करगी रोड के पोस्ट मास्टर व्ही.जी. खानखोजे को हथकड़ियां पहनाकर सड़क पर पैदल अदालत ले गए। बीएस सिंह, सत्तू शर्मा, खानखोजे, सुन्दरलाल शर्मा, एच.एस. परिहार, महावीर सिंह, मासोदरकर, आर.के. अग्रवाल निलम्बित किए गए। एक समाचार पत्र नेे एक कार्टून छापा था कि अशोक मेहता सम्राट अशोक की भांति कलिंग की रणभूमि में हताहतों को देखकर अत्यंत दुखी खड़े हैं।
22 जुलाई, 1960 को सभी संगठनों और फेडरेशन की मान्यताएं छीन ली गयीं। जबरदस्त दमन हुआ। एस.एम. जोश्ी सांसद संयुक्त संघर्ष समिति के अध्यक्ष थे और एस. मधुसूदन महासिचव। ओ.पी. गुप्ता ने टेलीकॉम पत्रिका के मुख्य पृष्ठ पर चित्र छापा था, उसे शीर्षक दिया था एनएफपीटीआई लायलोन (अंजनयलू इल चेंस)। आंकड़े, जो भी कहें, मगर सारा सरकारी तंत्र ठप्प था। इसी के परिणामस्वरूप 1961 में महंगाई भत्ता और संयुक्त सलाहकार परिषद (जेसीएम) का गठन हुआ। नागपुर से डाक तार विभाग का मुख्यालय भोपाल आया। सबसे बड़ी उपलब्धि ये थी, कि 1960 का एक भी हड़ताली कर्मचारी सेवाओं से बाहर नहीं रहा। देर-सबेर सभी वापस आ गये।
- गोविन्द सिंह असिवाल
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बुधवार, 28 जुलाई 2010

धर्मयुद्ध

युद्ध कभी धार्मिक नहीं होता
या फिर यों कहा तो युद्ध का कोई धर्म नहीं होता है
यह बात अलग है कि विजय के
बाद धर्म जयी के साथ हो जाता है
यदि राम रावण युद्ध में
रावण जीत गया होता
तो हमारा सारा समय
सीता को कुलटा कहते बीतता
रात कायर, लक्ष्मण हिज,
और हनुमान हमें कमजोर नजर आता
जगह-जगह भगवान रावण पूजा जाता
और विभीषण को देशद्रोही कहते हुए देश से निकाला जाता
सच मानो दोस्तो
यदि इराक अमेरिका युद्ध में इराक जीत जाता
तो इराक में मानवता के खिलाफ अपराध के लिए
जार्ज बुश का आखिरी दिन फांसी के तख्ते पर बीतता
और तब धर्म यही कहता
क्योंकि धर्म हमेशा जयी के साथ होता है!
- राम सागर सिंह परिहार
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अमरीका में हर महीने 13 बैंक फेल

दुनिया में मुक्त बाजार और डीरेगुलेशन (विनियंत्रण) का सबसे बड़ा समर्थक है अमरीका-हमारे प्रधानमंत्री का प्रेरणास्रोत अमरीका। और उसके जेबी संगठन हैंः विश्व बैक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व व्यापार संगठप-जिनके इशारे पर निर्देश से हमारी आर्थिक नीतियां तय होती हैं। जिसका नवीनतम उदाहरण पेट्रो-उत्पादो के मूल्य तय करने के काम को तेल कम्पनियों के हवाले किया जाना है, जिसके कारण डीजल, पेट्रोल, केरोसिन और रसोई गैस के मूल्य बढ़ गये हैं।
विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुदा कोष के इशारे पर हमारे प्रधानमंत्री बैंंिकंग, बीमा, पेंशन-गर्ज कि पूरे वित्त क्षेत्र में तथाकथित सुधारों के लिए बड़े व्याकुल हैं। पर खासकर वामपंथी पार्टियों के विरोध एवं ससंद का अंकगणित अनुकूल न होने के कारण वह इन सुधारों को कर नहीं पाये हैं। पर इन सुधारों के उन हिस्सों को, जिनके लिए संसद में जाने की जरूरत नहीं, वह आगे बढ़ाते जा रहे हैं।
वित्त क्षेत्र में जिन आर्थिक सुधारों के लिए प्रधानमंत्री इतने बेचैन हैं उनका स्वयं अमरीका में क्या नतीजा हुआ है, वह उसे भी देखने को तैयार नहीं। अमरीका वित्त क्षेत्र में जिन नीतियों पर चलता रहा है, उसके फलस्वरूप वह पिछले तीन वर्षों से गंभीर आर्थिक संकट-1929 और 1933 के बीच के महान आर्थिक संकट जैसे संकट से दो-चार है और तमाम कोशिश के बाद उस संकट से निकल नहीं पा रहा है।
जिस अमरीका को प्रधानमंत्री अपना प्रेरणास्रोत समझते हैं और जिन संस्थाओं-विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व व्यापार संगठन की नीतियों को अपना मार्गदर्शक मानते हैं, उनकी नीतियों के चलते अमरीका के वित्त क्षेत्र की क्या दुर्गति हुई है उसे इस बात से समझा जा सकता है कि अमरीका में वर्ष 2010 में हर महीने औसतन 13 बैंक फेल हो रहे हैं। इस वर्ष अब तक 90 बैंक डूब चुके हैं।
आधिकारिक आंकड़ों के अनुसा, इस साल मई और जून में कुल 22 बैंकों को बंद करना पड़ा। अप्रैल में 23 बैंक फेल हुए थे। 2010 की पहली तिमाही में 41 बैंक फेल हुए। पिछले वर्ष कुल 140 बैंकों का कारोबार बंद हुआ था। तथाकथित आर्थिक सुधारों और खासकर वित्त क्षेत्र के डीरेगुलेशन की जो नीतियां अमरीका में ही फेल हो चुकी हैं तो क्या भारत में भी उनका वही हश्र नहीं होगा?
- आर. एस. यादव
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मंगलवार, 27 जुलाई 2010

बुरे समय में नई शुरूआत का स्वप्न

पुस्तक समीक्षा: उपन्यास बरखारचाई - लेखक: असगर वज़ाहत

बहुमुखी प्रतिभा के धनी असग़र वजाहत का ताजा उपन्यास बरखारचाई कई दूसरे कारणों के अतिरिक्त इस कारण भी महत्वपूर्ण है कि उम्मीदों के टूटने व स्वप्न भंग के दौर में उम्मीद एक चिर यथार्थ के समान उसमें उपस्थित है। उम्मीद एक लौ की तरह उसमें से फूटती है। ऐसे समय में जबकि कथा साहित्य में बहुत कुछ बदल गया है, भाषा, टेक्निक, विषय चयन की पद्धति तथा उसकी प्रस्तुति का अंदाज, पक्षधरताओं की भंगिमाएं। तक कुछ रिवायती अंदाज में नये विवेक के साथ पुरानी पक्षधरता को दोहराना षण्ड्यंत्र पूर्वक हरा दिये गये उपेक्षित दमित जन की ओर जाने की शुरूआत की जरूरत का रेखांकित होना अपने आप में बड़ी घटना है। अवाम की ओर जाते हुए उपन्यास का नायक साजिद समझ रहा है कि उधार ली गई शब्दावली और बाहरी उपकरणों पर अत्याधिक भरोसा उसकी असफलता का बड़ा कारण है। यह उसकी मात्र व्यक्तिगत नहीं बल्कि एक सोच एक विचार की असफलता है।

यह मान लेने में कोई हर्ज नहीं कि साजिद अप्रांसगिक मान ली गई वामपंथी चेतना व विचार धारा का प्रतिनिधि है। एक जरूरी लड़ाई को आकार देनेे की इच्छा के तहत ही अपने गांव व शहर में कम्युनिस्ट पार्टी का संगठन खड़ा करने की कोशिश करता है। फलस्वरूप उपन्यास चेतना के होने और न होने के बीच लम्बे संघर्ष का साक्षी भी बनता है। जो लोग साहित्य में विचार धारा के हस्तक्षेप को मृत प्राय माने बैठे हैं, उन्हें इससे थोड़ी निराशा हो सकती है।

“बरखारचाई” एक तरह से असग़र वजाहत के पूर्व प्रकाशित उपन्यास “कैसी आगि लगाई” का अगला पड़ाव है। जिसका तीसरा खण्ड आना अभी शेष है फिर भी कथावस्तु की स्वायत्त कहीं आहत नहीं होती। उपन्यास का ताना बाना विभिन्न घटना-चक्रों से बुना गया है, जिनका प्रतिनिधित्व अलग-अलग पात्र करते हैं जैसे कि शकील, उसका बेटा कमाल, रावत, निगम, नवीन जोशी, जावेद कमाल, अहमद, अनुराधा इत्यादिः-

साजिद जिसमें कई बार असग़र वजाहत की झलक दिख जाती है (कि वह भी विज्ञान के स्नातक हैं, के.पी.0 सिंह उन्हें, हिन्दी तथा साहित्य की आरे लाये) विज्ञान का स्नातक है, लेेकिन तृतीय श्रेणी में ए.एम.यू. से हिन्दी में एम.ए. करने के बाद जब दिल्ली में नौकरी प्राप्त कर पाने में असफल होता है तो वह अपने पैतृक गांव लौट कर खेती करने का विचार बनाता है। व्यवस्था द्वारा अपमानित होने का भाव उसे भीतर-भीतर सालता है। गांव के जीवन में रमने की कोशिश करता है और खेती किसानी की चुनौतियों को स्वीकार करता है। इस बहाने ग्रामीण जीवन के कई उत्तेजक, चाक्षुष और डरावने चित्र उभरते हैं। विपरीत हालत कैसे खेती किसानी करने वालों का हौसला तोड़ते हैं कैसे पूंजी तथा बाहुबल का गठजोड़ जातिवादी-सामंती शक्तियों का प्रभुत्व खेती करने के नये संकल्पियों के लिए हताशा और घाटे का वातावरण बनाता है, उपन्यास पढ़कर जाना जा सकता है। एक जीवन जो अभावों व असुविधाओं की गहरी जकड़न में है। लेकिन जहां एक खास तरह की स्वच्छन्दता भी है। रूढ़ियों और परम्पराओं में जकड़े इस जीवन में सेक्स कर्म का एक अलग बहुत मादक आस्वाद है। साजिद नदी में डुबकी लगाने जैसे अंदाज में जिसके मजे लेता है। कभी सल्लो से कभी बिंदेसरी से। जहां उसे सेक्स सम्बन्धों का एक जरूरी शब्द “चिन्हारी” का ज्ञान होता है।

“मान लेव रात हो... हमारे पास आओ... तो चिन्हारी देख के समझे न कि तुम हो” रात के समय इसे ही उपन्यास में जाति बिरादरी का बदल जाना कहा गया है।

हाड़ तोड़ मेहनत खुली गांठ पैसा खर्च करने के बावजूद लोग कहां हार रहे हैं उपन्यासकार इस रहस्य को पाने की कोशिश करता है। उसकी चिंता है आखिर क्यों एकाधिकार वादीताना शाही, तानाशाही (सामंतवाद) व विदेशी गुलामी से लोकतंत्र की ओर प्रस्थान के बावजूद कई सारे बदलावों के बाद भी भारतीय जन के बड़े हिस्से के जीवन में बुनियादी तब्दीलियां संभव नहीं हो पा रही है। प्रशन यह भी है कि लोकतंत्र की भीतरी खाइयां किस तरह का संकट पैदा कर रही है। उपन्यासकार की पैनी नजर स्थितियों की भीतरी तहों तक जाती है।

उपन्यास का फलक बहुत व्यापक है। भारतीय जीवन के वर्तमान की विविध परिधियों में जाने की बेचैनी इसमें दिखती है। यानी गांव से शहर तक का जीवन। शहर भी दिल्ली जैसा जो अपने आप में कई शहर छिपाये है। जहां लोकतंत्र की सीमाएं बनती और बिगड़ती हैं। जहां के फैसलों पर नागरिकों की खुशहाली और बदहाली निर्भर करती है। उस दिल्ली में जीवन की कितनी गतियां है। कितने रूप हैं। भयानक चकाचौंध वैसा ही अंधेरा, एक ओर सम्पन्नता की अट्टालिकाएं दूसरी ओर सागर की लहरों सा उछाल मारता भ्रष्टाचार जिसने समूचे सिस्टम को ही औंधे मुहं गिरा दिया है। अपराध और राजनीति के सम्बन्धों की नित नई ऊंचाइयां, कोढ़ में खाज सा जातिवाद उसके सम्मुख भारतीय राजनीति का समर्पण। न्याय व्यवस्था, शिक्षा सब पर उपन्यासकार की गहरी नजर है। सभी जगह कमजोर आदमी को
अधिक कमजोर करने के उपक्रम हैं। लोकतंत्र के चौथे खंभे के रूप में जन संचार माध्यमों की पतनशीलता उनका मुनाफाखोर ताकतों का दलाल बनतें जाना। बुद्धिजीवियों का कैरियरोन्मुखी अवसरवाद तथा चारों ओर व्याप्त होती वैचारिक गिरावट, नैतिक मूल्यों की पराजय, पूंजी की सत्ता का लगातार मजबूत होते जाना। उपन्यासकार का व्यापक जीवनानुभव नैरेटर साजिद के बहुत काम आता है, वह इस जीवन के विविध रोमांचक और उदास करने वाले चित्र दिखाता है। प्रतिष्ठित पत्र “दनेशन” में नौकरी मिल जाने के बाद गांव में किये गये अपने प्रयासों से निराश साजिद दिल्ली चला आता है। उसी दिल्ली में जिस पर उसने कभी न थूकने का संकल्प लिया था। अखबार में नौकरी करने तथा काफी हाउस में बैठने की लत के कारण वह कई दुनियाओं को बहुत करीब से देखने का अवसर प्राप्त करता है, नित नये अनुभव उसकी दृष्टिगत पौढ़ता को सघन बनाते चलते हैं। इसी दिल्ली के व्हाईट हाउस तक पहुंचने के लिए शकील कैसे-कैसे हथकण्डे अपनाता है, जिलाध्यक्ष से केन्द्रीय मंत्री की हैसियत तक पहुंचे शकील पर उसी का बेटा उसकी सत्ता को हथियाने के लोभ में जान लेवा हमला करवाता है, पर्वतीय क्षेत्र से दिल्ली आये रावत के पिता को एक दिन जंगली भेड़िये जिन्दा खा गये थे, रावत को शहर के जातिवादी भेड़िये खा जाते हैं,.... इसी दिल्ली में साजिद को अपने मीनिंग लेस होने का बोध होता है।

“कभी-कभी अपने अर्थहीन होने का दौरा पड़ जाता है लगता है मेरा होने या न होने का कोई मतलब नहीं मैं पूरी तरह मीनिंग लेस हूं।”

इसी दिल्ली में ऐसे बहुत लोग हैं जो अपने तरीके से अपने आस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं, ऐसे भी बहुत लोग हैं जो दूसरों का अस्तित्व समाप्त करने की मुहिम में लगे हुए हैं। साजिद के वे मित्र हैं जिन्होंने मूल्यों पर अवसर को प्राथमिकता दीं, पश्चाताप उनकी नियति बनी। सिंद्धातवादी लेबर कमिश्नर विनय टण्डन हैं, जिन्होंने उसके आदिवासी प्रोजेक्ट में बहुत मदद की लेकिन जहां उसकी लन्दन वासी पत्नी “नूरी” बहुत दिन नहीं रह पाती। उस आलीशान बंगले में भी जो उसके पिता ने अपने दामाद को उपहार में दिया है। उसी दिल्ली में एक कॉफी हाउस था, जो सोचनें वालों को अपने घर जैसा लगता था। “कॉफी हाउस के अन्दर आते ही लगता है जैसे घर में आ गये हांे” कॉफी हाउस का अपना एक लोक हैं, जहां अन्य के अलावा कम्युनिस्ट पार्टी के होलटाईमर का. जोगेश्वर को देखा जा सकता है जिन्होंने मूवमेंट के लिए सब कुछ वार दिया लेकिन उम्मीद नहीं छोड़ी। देश की राजधानी के बहु आयामी वृतांत के साथ ही छोटे शहरों की भी पीड़ा है, जिसके विवरण अवसाद को अधिक गहरा करते हैं। छोटा शहर, जहां उसके वाल्दैन और बचपन के साथी रहते है, जो उसके अन्दर हर क्षण सांस लेता है। उपन्यास के वे हिस्से खासे महत्वपूर्ण और विचलित करने वाले हैं जिसमें आदिवासियों की व्यथा को शब्द बद्ध करने का प्रयास हुआ है। गहरी संवेदनात्मकता से उकेरे गये हैं ये चित्र। इस पूरी स्थिति पर साजिद “दनेशन” के लिए एक रिपोर्ट तैयार करता है, जिसके प्रकाशित होते ही कोहराम मच जाता है, मैनेजमेंट उससे जवाब तलब करती है, उसने इण्डस्ट्री को टारगेट क्यों किया। व्यथित साजिद के कानों में शकील के शब्द गूंजते हैं “आखिर अखबार का मालिक भी इण्डस्ट्रीयलिस्ट है, पार्यलयामेन्ट में इनके कितने लोग हैं....”। (पृ. 95)

“एडीटर इनचीफ विस्तार से बता रहे थे कि अब अखबार का वह रोल नहीं रह गया है जो तीस साल पहले हुआ करता था। अब अखबार भी एक प्रोडेक्ट है और उसे खरीदने वाले पाठक नहीं बल्कि बायर हैं....” (पृ. 163)

यही वह क्षण है जब पराजय का भाव साजिद को अपनी चपेट में लेता प्रतीक होता है।

“देखो अकेले आदमी के बोलने और झगड़ने से क्या होगा। थोड़ा चीजों को समझने की कोशिश करते हैं, मैंने जिन्दगीभर रूरल इण्डिया की रिर्पोर्टिंग की। चार किताबें हैं, अवार्ड्स हैं लेकिन आज जब किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं तो मेरा अखबार मुझसे यह नहीं कहता कि मैं उन इलाकों का दौरा करूं और लिखंूः” (पृ. 163)

लेकिन इसकी परिणति आधुनिकतावादी आत्मोन्मुखता में नहीं बल्कि इस आत्म विश्लेषण में होती है-

“...सवाल यह है कि मैं ऐसा क्या करूं जो मेरे लिए और दूसरे लोगों के लिए छोटे बेसहारा लोगों के लिए अच्छा हो... सार्थकता को तलाश करने की कोशिश न की तो शायद अपने को क्षमा नहीं कर पाऊंगां” (पृ. 224)

सार्थकता की यह तलाश ही उसे एक बार फिर गांव की ओर ले जाती है इस बार उसका वहां जाना नौकरी के विकल्प के तौर पर नहीं बल्कि एक संवेदनात्मक वैचारिक उद्देश्य लिये हुए है, जो उसके लिए एक शुरूआत की तरह है-

“यहीं से शुरूआत होती है... और इसी शुरूआत की जरूरत है... बाकी चीजें तो बाद की हैं... केवल जाना और देखना... देखना बहुत बड़ी चीज है।”

दरअसल बरखारचाई को घटनाओं स्थितियों विवरणों तथा पात्रों के जरिये मौजूदा जीवन को समझने और उसके वास्तविक संकट को उद्घाटित करने की गंभीर कोशिश के रूप में देखा जा सकता है। जिसमें यथार्थ की कई पर्तें हैं, लेकिन केन्द्रीय सच तो एक ही है। राजनीति, अपराध एवम् लूटवादी मुनाफाखोर शक्तियों की निर्लज सांठ गांठ के कारण सत्ता का मजबूत होता जन विरोधी चरित्र तथा इस भयावह यथार्थ के प्रति गहरे तक विचलित करने वाला सघन मौन।

उपन्यास को असाधारण घटना न मानते हुए भी कहा जा सकता है कि जीवन में गहरे पैठे तथा निश्चित वैचारिक दृष्टिकोण के बिना ऐसा उपन्यास नहीं लिखा जा सकता। प्रवाहमयी भाषा असगर वजाहत की बड़ी पूंजी है, जिस पर उर्दू का प्रभाव साफ दिख जाता है, चरित्रों से गहरी पहचान और उनका स्वाभाविक विकास तथा अलग दिखती विविध घटनाओं के बीच आन्तरिक सूत्रबद्धता कथानक को चुस्त बनाती है। स्त्री पात्रों के प्रति उपन्यासकार का रवैया अवश्य चौंकाता है। कथ्य में ज्यादातर स्त्रियां देह की तरह प्रवेश करती हैं, वो अपने साथ अपने दुख भी लाती हैं लेकिन शेष रहती है देह की तरह। साजिद जिनसे मन चाहा सम्बन्ध बनाता है। सल्लो हो, बिन्देसरी हो या अनुराधा और सुप्रिया। इनके साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाते हुए उसेे तनिक भी हिचकिचाहट क्यों नहीं होती। आखिर वह पारीस्थितियों का लाभ ही तो उठाता है। यह प्रश्न इसलिए जरूरी हो जाता है क्योंकि साजिद निश्चित सोच वाला व्यक्ति है। यकीनन उपन्यास में ऐसी भी स्त्रियां हैं जो पुरुषवादी प्रभुत्व को चुनौती देती हैं लेकिन शेष तो इस प्रभुत्व की चपेट में हैं। बहरहाल गंगाजमुनी भाषा में रचे गये बहुत जीवन्त गद्य, यथार्थ के चित्रण में सामाजिक आलोचना की धार, उम्मीद के बचे रह जाने के विश्वास, बहुरंगी चरित्रों, वर्तमान समय के कुछ जरूरी दस्तावेजी विवरणों तथा बेहतर की तलाश में वैचारिकता के हस्तक्षेप की प्रभावपूर्ण अनुभूतिपरक प्रस्तुति के कारण यह उपन्यास पाठकों को आकृष्ट करेगा।

- शकील सिद्दीकी
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महंगाई रोकने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक के कदम अपर्याप्त - भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी

लखनऊ 27 जुलाई। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की उत्तर प्रदेश राज्य कौंसिल ने भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा त्रैमाषिक समीक्षा में उठाये गये कदमों को महंगाई रोकने के लिए नाकाफी बताते हुए कहा है कि भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर के बयान से साफ जाहिर है कि खाद्य वस्तुओं की कमरतोड़ महंगाई रिजर्व बैंक का सरोकार नहीं है जबकि यही महंगाई हिन्दुस्तान के 90 प्रतिशत नागरिकों के जीवन को समस्याग्रस्त बना चुकी है। भारतीय रिजर्व बैंक का केवल गैर खाद्य पदार्थों की महंगाई पर चिन्तित होना इस देश की आम जनता के हितों के खिलाफ है।

यहां जारी एक प्रेस बयान में भाकपा के राज्य कोषाध्यक्ष प्रदीप तिवारी ने कहा है कि भारतीय रिजर्व बैंक ने खाद्य वस्तुओं के लिए गैर कृषि क्षेत्र को दिए जाने वाले अग्रिम में कटौती के लिए कोई उपाय नहीं किए हैं जिससे इन वस्तुओं की जमाखोरी पर अंकुश लगता। उन्होंने कहा कि हम आशा कर रहे थे कि भारतीय रिजर्व बैंक कम से कम अब खाद्य वस्तुओं के लिए अग्रिम पर सेलेक्टिव क्रेडिट कंट्रोल उपायों को लागू करेगा और इस क्षेत्र को मुद्रा प्रवाह को संकुचित करेगा।

बयान में कहा गया है कि शेयर मार्केट में उछाल और व्यवसायिक घरानों द्वारा भारतीय रिजर्व बैंक के कदमों की सराहना से साबित होता है कि बाजार और सरमायेदार जैसा चाहते थे, भारतीय रिजर्व बैंक ने केवल उतने ही कदम उठाये हैं। केन्द्रीय बैंक का आम जनता से सरोकार समाप्त होना चिन्ता का विषय है जिस पर गम्भीर और व्यापक चर्चा होनी चाहिए।
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आज के युग में पैसा भगवान से ऊपर है

सुबह पेपर की मुख्य लाइन में घोर अन्याय पढ़कर और झुर्रीवाली बूढ़ी महिला का विलाप करता फोटो देखकर आंखों में आंसू आ गये।

भोपाल गैस त्रासदी के 25 साल बाद आये निर्णय को पढ़कर न्यायालय से भी विश्वास उठ गया। जिन लोगों के जिगर के टुकड़ों को इस भीषणतम त्रासदी निगल गई उनके परिवार, बच्चों, सगे संबंधियों के बारे में जरा सोचो। दो वर्ष का कारावास का निर्णय सुनकर उनके दिल पर क्या गुजरी होगी। यही कि आज के दुनिया में जहां पैसों के आगे भगवान को भी झुका दिया जाता है। कौन करेगा भगवान पर भरोसा इस निर्णय को सुनकर! बल्कि हर कोई इस निर्णय के बाद न्याय व्यवस्था से निर्भय होकर केवल पैसा कमाने की फिराक में रहेगा। धिक्कार है ऐसी दुनिया पर, जहां सोने चांदी की झनकार इंसानियत को भी बहरा बना देती है। जब इतने बड़े हादसे के बाद लोग सिर्फ दो साल की सजा पाएंगे तो फिर भ्रष्टाचार, जमीनों का घोटाला करने वालों को तो शायद दो दिन की जेल की सजा ही मिलेगी या फिर वह भी पैसों के बल पर माफ करवा देंगे।

बहुत ही शर्मनाक निर्णय है पढ़ने को भी मन नहीं लगा। दुनिया से मन उठ गया। आज मुझे हमारे भोपाल शहर के उन लोगों की और अपने उन कामरेड़ों की याद आ रही है जो इस हादसे के शिकार हो गये थे, आज उनके परिवार वालों को किस मुंह से सांत्वना दूं।

धिक्कार है इस न्याय प्रणाली को एक और घटना मुझे आज यह पढ़कर याद आ रही है। वैसे म.प्र. तथा केन्द्र की सरकार ने इस ओर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया हालांकि मेरे स्वर्गीय पति होमी दाजी ने जी-तोड़ मेहनत करके इसे लोगों के सामने पेश करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी थी- पर बदकिस्मती से उस समय न तो वे विधायक थे और न सांसद। इसलिए दोनों सरकारों ने पैसे वालों की बातें तो सुनी पर दाजी की बातें सुनने का उनके पास समय नहीं था।

जिस दिन यह हादसा हुआ, उस दिन दाजी दिल्ली से रेल द्वारा भोपाल आ रहे थे। अचानक रेल एक स्टेशन से पहले घंटों रुकी रह गई। ट्रेन क्यों इतनी देर रुकी है यह तलाशने की दाजी ने कोशिश की तो पता चला कि भोपाल स्टेशन मास्टर का फोन आया है कि भोपाल कांड हो गया है। उस भोपाल के स्टोशन मास्टर की ड्यूटी का समय समाप्त हो चुका था तथा घर जाने का वक्त था। किंतु गैस कांड की भयानकता एवं यात्रियों की जान की हिफाजत की चिंता के कारण उन्होंने भोपाल आने वाले सभी टेªनों को एक दो स्टेशन पहले ही रुकवा दिया था। फोन कर-कर स्टेशन मास्टर ने अपनी होशियारी, जिम्मेदारी तथा सेवा भाव की एक मिसाल कायम की।

जब सब शांत होने पर टेªन भोपाल पहुंची तो दाजी भी भोपाल पहुंचे। वे स्टेशन मास्टर के कमरे के पास खड़ी भीड़ देखकर तलाश की तो दंग रह गय। उनकी भी आंखों में पानी आ गया, जब उन्होंने उस नेक स्टेशन मास्टर को टेबिल पर सिर रखे हुए, गैस से दम घुट जाने के कारण मृत पाया। वह स्टेशन मास्टर कौन थे, उनका नाम तो मुझे नहीं मालूम, न दाजी हैं जिनसे पूछकर नाम याद किया जा सका है। पर उस समय तुरन्त और उसके बाद दाजी ने कई मंत्रियों से चर्चा की, मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह को भी पत्र लिखा, बात की कि ऐसे सेवाभावी तथा योग्य स्टेशन मास्टर की एक प्रतिमा उनके नेक काम का हाल लिखकर भोपाल स्टेशन के बाहर लगाना अति आवश्यक है जिससे लोगों में नेक कामों की प्रेरणा मिल सके, उनके परिवार वालों को आर्थिक सहायता देना चाहिये तथा पुरस्कार देना चाहिए। पर आज भी इस पैसे की दुनिया में लोग सेवा या अच्छे कर्मों को कहां महत्व देते हैं; लोग तो बस पैसा-पैसा और पैसा ही देखते हैं।

अगर उस भले एवं नेक दिल स्टेशन मास्टर ने यात्रियों की जिन्दगी की बजाय स्वंय के जीवन के बारे में सोचा होता तो और हजारों लोगों की जाने चली जाती जिसमें दाजी भी थे, उनकी उस समय गैस त्रासदी या टेªन दुर्घटना में ही मृत्यु हो जाती। पर पैसों की महत्वकांक्षी इस दुनिया में आज भी आम आदमी कीड़े-मकोड़ों की तरह रोज मारे जा रहे हैं।

इतने बड़े हादसे की सजा केवल दो साल ही है तो फिर लोगों की मनोवृति अपराध करने की बढ़ेगी या कम होगी। मेरा एक सुझाव है कि म.प्र. मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अभी भी उस स्टेशन मास्टर के नाम का पता लगवाकर उनकी प्रतिमा भोपाल स्टेशन के बाहर लगवायें, ताकि लोगों को नेक कामों की प्रेरणा मिल सके, साथ ही उस स्टेशन मास्टर को सच्ची श्रद्धांजली अर्पित की जा सके जिसके वे सही हकदार थे। उनके परिवार वालों को भी आर्थिक सहायता सम्मान के साथ दी जाय।

- पेरीन होमी दाजी
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सोमवार, 26 जुलाई 2010

5 जुलाई 2010 की अखिल भारतीय हड़ताल - हड़ताल जर्बदस्त सफल! आगे क्या?

देश का आम आदमी बेहद गुस्से में है; मनमोहन सिंह सरकार की जनविरोधी नीतियों को जनता स्वीकार नहीं करती। देश के आम लोगों का यह गुस्सा और यूपीए-दो सरकार के प्रति उनका मोहभंग 5 जुलाई 2010 की राष्ट्रव्यापी हड़ताल के रूप में सामने आया। यह राष्ट्रव्यापी हड़ताल जबर्दस्त सफल हुई और वस्तुतः भारत बंद बन गयी।

अति प्रतीक्षित उच्चाधिकार प्राप्त मंत्रिसमूह ने न केवल पेट्रोल, डीजल, किरोसिन और रसोई गैस के मूल्य बढ़ाने की घोषणा की बल्कि पेट्रोल और डीजल के मूल्यों को ‘डीकंट्रोल’ करने का दृढ़ इरादा भी प्रकट किया जिससे पूरा राष्ट्र स्तब्ध रह गया।
सरकार ने बड़े निर्लज्ज ढंग से लोगों से कई झूठ बोले। 2008 में तेल का अंतर्राष्ट्रीय मूल्य प्रति बैरल 148 डालर था जो अब 77 डालर से कम है। पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा झूठ बोलने वालों में सबसे आगे हैं। उन्होंने गलत बयानी की कि पड़ोसी देशों में पेट्रोल का मूल्य काफी ज्यादा है। लेकिन जानबूझकर यह तथ्य छिपाया गया कि नेपाल और अन्य पड़ोसी देशों में रुपये का मूल्य 100 रु. से 160 रु. का अनुपात में है। नेपाल में भारतीय रुपये का अनुपात ज्यादा है अर्थात भारत के 100 रु. वहां के 160 रु. के बराबर हैं।

पड़ोस के इन देशों में तुलना में भारत में खाद्य मुद्रास्फीति सबसे ज्यादा है। विश्व भर में जितने गरीब लोग रहते हैं उनका आधा भारत में रहता है। भूमंडलीय सर्वेक्षणों के अनुसार मानव विकास इंडेक्स में भारत की गिनती सबसे नीचे के देशों में की जाती है।

पेट्रोलियत मंत्रालय का कार्यभार संभालने के पहले दिन से ही मुरली देवड़ा पेट्रोलियत उत्पादों के मूल्य बढ़ाने में लगे हुए हैं और पिछले 6 वर्षों में उनकी देखरेख में यूपीए सरकार ने 14 बार मूल्य बढ़ाये हैं। उनके खिलाफ यह आरोप है कि वे तब तक चैन से नहीं बैठेंगे जब तक सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रमों के तेल एवं गैस के मूल्य पूरी तरह तथाकथित अंतर्राष्ट्रीय बाजार के मूल्य के अनुसार तय नहीं हो जाते। यानी भारत में ये मूल्य रिलांयस के मूल्यों के बराबर हो जायें ताकि रिलायंस के 3600 पेट्रोल पंप फिर से खुल जायें। रिलांयस को इन पेट्रोल पंपों को पहले इसलिए बंद करना पड़ा था क्योंकि ये अपना तेल सार्वजनिक क्षेत्र के खुदरा मूल्य से अधिक पर बेचते थे।
यह दुर्भाग्य की बात है कि यूपीए-2 के लिए राष्ट्र के हितों के अपेक्षा कार्पोरेट घरानों के हित ज्यादा महत्वपूर्ण हैं।

वामदलों को बदनाम करने के लिए एक राजनीकि अभियान चलाया गया कि उन्होंने यूपीए के खिलाफ लड़ाई में दक्षिणपंथी शक्तियों से हाथ मिला लिया। हकीकत यह थी कि इस तरह के ज्वलंत मूद्दे पर भाजपा और एनडीए में शामिल पार्टियों के लिए अखिल भारतीय हड़ताल का समर्थन करने के अलावा अन्य कोई रास्ता ही नहीं था। कहा जाता है कि देश भर में छोटे-बड़े 42 राजनीतिक दलों ने एक ही समय राष्ट्रव्यापी हड़ताल का आह्वान किया था।

कांग्रेस शासित राज्य में लोगों को आतंकित करने के लिए बड़े पैमाने पर पुलिसकर्मियों की तैनाती की गयी। सरकारी कर्मचारियों को दफ्तर में उपस्थित रहने के लिए पहले ही चेतावनी दे दी गयी थी। महाराष्ट्र में 50,000 पुलिसकमियों की तैनाती की गयी तथा विपक्षी पार्टियों के हजारों नेताओं एवं कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया। झारखंड, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, दिल्ली एवं अन्य राज्यों में हजारों लोगों को गिरफ्तार किया गया। लोग डरे नहीं और यूपीए की ओछी हरकतों की झांसे में नहीं आये और स्वतः बड़ी संख्या में बंद में शामिल हुए। ट्रेनें और बसें नहीं चलीं। दुकाने, बाजार बंद थे, शिक्षण संस्थाएं और दफ्तर बंद थे और यहां तक कि एयरपोर्ट भी बंद थे। पूरा राष्ट्र मानो ठप्प हो गया।

हड़ताल अत्यंत सफल रही। अब हमारे सामने प्रश्न है इसका नतीजा क्या है और अगला कदम क्या होगा?

बंद से एक दिन पहले, वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने घोषणा की कि ‘बंद के बाद भी मूल्यवृद्धि वापस नहीं ली जायेगी।’ उन्होंने कहा, ‘यह संभव नहीं’। मानो यह कोई
संवैधानिक संशोधन है जो अब बदला नहीं जा सकता।

उनका बयान भारत के लोगों की सामूहिक भावना के प्रति यूपीए-2 सरकार के कठोर रवैये को ही व्यक्त करता है। उनका बयान कांग्रेस सरकार के अहंकार को व्यक्त करता है जो पिछले एक साल में किये गये उन अनेक एकतरफा फैसलों में बारम्बार झलकता रहा है।

5 जुलाई के बंद से वर्तमान आंदेालन का अंत नहीं हो गया है। मूल्यवृद्धि वापस लेने के लिए सरकार को मजबूर करने के लिए एक लंबा संघर्ष चलाना होगा।
इस हउ़ताल या बंद से न केवल यह पता चलता है कि देश में यूपीए-2 कितनी अलग-थलग पड़ गयी है और कांग्रेस जनता से कितनी दूर हो गयी है, बल्कि इससे देश के करोड़ों लोगों में एक नया विश्वास पैदा हो गया है कि हम सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ प्रतिरोध और संघर्ष कर सकते हैं।

कुछ लोग पूछते हैं कि विपक्षी दलों की यह एकता कितने दिन चलेगी और इस संबंध में उदाहरण देते हैं कि किस तरह कुछ पार्टियों ने संसद के पिछले सत्र में वित्त
विधेयक में पेश किये गये कटौती प्रस्ताव पर वामपंथ के साथ मतदान नहीं किया।

यह सच है कि यूपीए-2 ने सीबीआई और अन्य सरकारी मशीनरी का दुरूपयोग करके कुछ पार्टियों को फोड़ लिया था। लेकिन तब भी उन तमाम पार्टियों ने 27 अप्रैल, 2010 को हुई हड़ताल का समर्थन किया था। इस 5 जुलाई की हड़ताल में भी समाजवादी पार्टी ने सभी तरह की पहल की और इसमें शामिल हुई। राष्ट्रीय जनता दल और लोक जनशक्ति पार्टी क्षुद्र स्थानीय राजनीति के कारण राष्ट्रीय हित के महत्व को तरजीह दे नहीं पायी। लेकिन इन दोनों पार्टियां ने 10 जुलाई को आंदोलन का आह्वान किया है।

लेकिन बसपा ने न केवल बंद का समर्थन नहीं किया बल्कि इसमें बाधा डालने की कोशिश भी की। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि बसपा केन्द्र की कांग्रेस सरकार के खिलाफ लंबी-चौड़ी बात तो करती है लेकिन व्यवहार में वह इसके विपरीत है। लेकिन अन्य अनेक धर्मनिरपेक्ष पार्टियों जैसे, जनता दल (एस), एआईडीएमके, एमडीएमके, उड़ीसा में बीजू जनता दल, हरियाणा में इंडियन नेशनल लोकदल, असम गण परिषद, आंध्र प्रदेश में तेलुगु देशम ने दृढ़तापूर्वक हड़ताल का समर्थन किया और इसे सफल बनाने में योगदान किया।

5 जुलाई की हड़ताल का उद्देश्य था यूपीए-2 सरकार की तेल नीति के खिलाफ देश भर में व्यापक जन प्रतिरोध का निर्माण करना और सरकार को दो टूक जवाब देना। इस उद्देश्य की पूर्ति हुई है। राजनीतिक विकल्प तैयार करने का प्रश्न सही समय पर राष्ट्र के एजेंडे में होगा।

हरेक आंदोलन और संघर्ष को राजनीतिक विकल्प से जोड़ने का भ्रम नहीं होना चाहिए। इसके लिए और अनेक संघर्षों की जरूरत होगी।

अनेक राजनीतिक दलों को केवल एक मंच पर खड़ा कर देने से राजनीतिक विकल्प तैयार नहीं हो जायेगा। जन- संघर्षों से ऐसी परिस्थिति पैदा होगी जिसमें राजनीतिक विकल्प के बारे में सोचना जरूरी हो जायेगा।

खाद्यान्नों और आवश्यक वस्तुओं के मूल्यों में तेज वृद्धि से देश के गरीब और लोगों का जीना मुश्किल हो गया है जबकि शासक पार्टी इस बात से संतुष्ट है कि सेंसेक्स में कार्पोरेट घरानों के शेयर बढ़ गये हैं।

भविष्य में लोगों को और भी ज्यादा कठिनाइयों और परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है। प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह परमाणु दायित्व बिल संसद में पारित कराने पर तुले हैं जो अमरीकी कार्पोेरेटों के सामने शर्मनाक आत्मसमर्पण होगा। तथाकथित खाद्य सुरक्षा बिल से गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले करोड़ों लोग इसकी परिधि से बाहर हो जायेंगे और वे बाजार तंत्र के रहमोकरम पर निर्भर हो जायेंगे।

वामदलों को यह लड़ाई जारी रखनी चाहिए, यूपीए-2 सरकार की खोखली नीतियों का पर्दाफाश करना चाहिए और साथ ही सांप्रदायिक एवं कट्टरपंथी नीतियों के खिलाफ संघर्ष चलाते रहना चाहिए।

5 जुलाई की राष्ट्रव्यापी हड़ताल को सफल बनाने में हमारी पार्टी तथा अन्य वामदलों के कार्यकर्ताओं ने काफी अच्छा काम किया है। हमें संघर्ष को जारी रखना चाहिए तथा जनता की राजनीतिक चेतना को आगे बढ़ाना चाहिए।

- एस. सुधाकर रेड्डी
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जब शहीद सोने जाते हैं

जब शहीद सोने जाते हैं

तो मैं रुदालियों1 से उन्हें बचाने के लिए जाग जाता हूँ।

मैं उनसे कहता हूँ रू मुझे उम्मीद है तुम बादलों और वृक्षों

मरीचिका और पानी के वतन में उठ बैठोगे।

मैं उन्हें सनसनीखेज वारदात और कत्लोगारत की बेशी-कीमत2,

से बच निकलने पर बधाई देता हूँ।

मैं समय चुरा लेता हूँ

ताकि वे मुझे समय से बचा सकें।

क्या हम सभी शहीद हैं ?

मैं ज़बान दबाकर कहता हूँ:

धोबीघाट के लिए दीवार छोड़ दो गाने के लिए एक रात छोड़ दो।

मैं तुम्हारें नामों को जहाँ तुम चाहो टांग दूंगा

इसलिए थोडा सुस्ता लो, खट्टे अंगूर की बेल पर सो लो

ताकि तुम्हारे सपनों को मैं,

तुम्हारे पहरेदार की कटार और मसीहाओं के खिलाफ ग्रन्थ के

कथानक से बचा सकूं।

आज रात जब सोने जाओ तुम

उनका गीत बन जाओ जिनका कोई गीत नहीं है।

मेरा तुम्हें कहना है:

तुम उस वतन में जाग जाओगे और सरपट दौड़ती घोड़ी पर सवार हो जाओगे।

मैं ज़बान दबाकर कहता हूँ: दोस्त,

तुम कभी नहीं बनोगे हमारी तरह

किसी अनजान फाँसी की डोर !

1 रुदाली: पेशेवर विलापी

2 बेशी कीमत: मजदूर के जीवन-निर्वाह के लिए जरूरी मानदेय के अतिरिक्त मूल्य, जो पूंजीपति वर्ग के मुनाफे और उसकी व्यवस्था पर खर्च का स्रोत होता है.

- महमूद दरवेश
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ऐसे समय में भी

एक ऐसे समय में

जब मुसलमान शब्द

आतंक का पर्याय हो गया है

मैं ख़ुश हूँ

कि मेरे शहर में रहते हैं

बादशाह हुसेन रिज़वी

जो इंसान हैं उसी तरह

जिस तरह होता है

कोई भी बेहतर इंसान

पक्षी उनकी छत से उड़कर

बैठते हैं हिन्दुओं की छत पर

और उनके पंजों में बारूद नहीं होता

उनके घर को छूकर

नहीं होती जहरीली हवा

उसी तरह खिलते हैं उनके गमलों में फूल

जैसे किसी के भी

उनका हृदय हातिमताई है

जिसमें है हर दुःखी के लिए

सांत्वना के शब्द

सच्चे आँसू/और बहुत सारा वक़्त

हालांकि इतने बड़े लेखक के पास

नहीं होना चाहिए/उन चीजों के लिए वक़्त

आतंक के शोर के बाद भी

कम नहीं हुए हैं/उनके हिन्दू मित्र

आते हैं सेवइयाँ खाने/ढेर सारा बतियाने

आज भी वे लिख रहे हैं

मानवीय पक्ष की/जनवादी कहानियाँ

मैं ख़ुश हूँ/कि वे मेरे शहर में रहते हैं।


- रंजना जायसवाल
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शनिवार, 24 जुलाई 2010

महंगाई पर विषमताओं का द्वंद्व

23 जुलाई को बेहतर मानसून की संभावनाओं (बात दीगर है कि मानसून अभी तक विलम्बित ही नहीं बल्कि सामान्य से काफी कम है) का उल्लेख करते हुए प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद ने मार्च 2011 तक मुद्रा स्फीति में भारी गिरावट की उम्मीद जताते हुए कहा कि मार्च 2011 में यह 6.5 प्रतिशत रह जाएगी जबकि जून 2010 में यह 10.55 प्रतिशत रही है।
इसी दिन, गौर करें इसी दिन के सुबह के अखबारों में सरकार के हवाले से एक समाचार छपा कि सब्जियों के दाम घटने से 10 जुलाई को समाप्त सप्ताह में मुद्रास्फीति .घट कर, गौर करें कि घट कर 12.47 प्रतिशत हो गयी। इसके पिछले सप्ताह यानी 3 जुलाई को समाप्त सप्ताह में मुद्रास्फीति की दर 12.81 प्रतिशत थी। सरकारी हवाले से इन समाचारों में कहा गया है कि 10 जुलाई को समाप्त सप्ताह में दाल की कीमतों में 0.84 प्रतिशत, सब्जियों में 0.13 प्रतिशत और गेहूं में 0.11 प्रतिशत की कमी हुई है।
अगर इन दोनों समाचारों को देखा जाए तो समझ में नहीं आता कि आखिर इस देश में मुद्रास्फीति की कितनी दरें सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त हैं और महंगाई वास्तव में किस दर से बढ़ रही है।
यह तो बात रही आंकड़ों की सरकारी बाजीगरी की। इसे दूसरी दृष्टि से देखते हैं। अरहर की दाल दो साल पहले 25-26 रूपये किलो थी। आज इसका दाम 70 रूपये से 80 रूपये की बीच चल रहा है। सरकार महंगाई या मुद्रास्फीति दर कम होने का जो ढ़िढोरा पीट रही है, उसका यह मतलब हरगिज नहीं है कि इसके दामों में कोई कमी आ जायेगी। इसका सीधा-साधा मतलब है कि इसके दामों के बढ़ने की गति कम हो जायेगी, मार्च 2011 में यही अरहर की दाल लगभग 87-88 रूपये किलो मिलेगी और अगर सरकार के दावे सही साबित हुए तो उसके एक साल बाद यानी मार्च 2012 में यह 93-94 रूपये प्रति किलो मिलेगी।
जहां तक 10 जुलाई को समाप्त सप्ताह में सब्जियों की कीमतें घटने के सरकारी दावे का सवाल है, वह अत्यन्त हास्यास्पद है। यह सार्वभौमिक सत्य है कि बरसात की शुरूआत में सब्जियों की कीमतें बढ़ जाती हैं। इसके कारण हिन्दुस्तान में रहने वाले सभी लोगों को मालूम हैं। लखनऊ की सब्जी मंडियों में उस सप्ताह में सब्जियों की कीमतों में एक उभार आया था। दस रूपये किलो बिकने वाली तरोई और भिण्ड़ी बीस से चौबीस रूपये किलो हो गयी और 20 रूपये किलो बिकने वाला टमाटर 80 रूपये किलो हो गया। यही हाल अन्य सब्जियों का था सिवाय आलू और प्याज के जिनकी कीमतें स्थिर थीं। उसके बाद उनके भाव भी दो रूपये किलो बढ़ गये। सरकार दाम कहां से लेती है, यह वही जाने। जनता तो वही भाव जानती है जिस भाव उसे बाजार में चीजें मिलती हैं।
जिन्हें 20 रूपये या 12 रूपये प्रतिदिन पर गुजारा करना पड़ता था, उन्हें आज भी इतने में गुजारा करना पड़ रहा है और आने वाले वक्त में भी इतने में ही गुजारा करना पड़ेगा। कितना कम मिल रहा होगा खाने को और कितना कम मिलेगा आने वाले वक्त में इसका अंदाजा मोटी पगार वाले भ्रष्टाचार में लिप्त सरकार के मंत्रियों या बाबूओं, योजना आयोग और सलाहकार परिषद के सदस्यों को नहीं हो सकता। जरा 12 से 20 रूपये में दिन गुजारने वाले लोगों के हाले दिल की कल्पना कीजिए और तथाकथित विकास दर पर उछल रही मनमोहन सरकार और उसकी आका सोनिया गांधी की खुशियां देखिए। दोनों में व्याप्त विषमता का द्वन्द्व ही आशा की एक किरण है। शायद यही नए भारत का रास्ता बनाएगा।
(लेखक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, उत्तर प्रदेश का कोषाध्यक्ष एवं ”पार्टी जीवन“ पाक्षिक का कार्यकारी सम्पादक है।)
- प्रदीप तिवारी
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शनिवार, 17 जुलाई 2010

सुनो हिटलर

हम गाएंगे / अंधेरों में भी /

जंगलों में भी / बस्तियों में भी /

पहाड़ों पे भी / मैदानों में भी /


आँखों से / होठों से /

हाथों से / पाँवों से /

समूचे जिस्म से /


ओ हिटलर!


हमारे घाव / हमारी झुर्रियाँ /

हमारी बिवाइयाँ / हमारे बेवक़्त पके बाल /

हमारी मार खाई पीठ / घुटता गला/


सभी तो

आकाश गुनगुना रहे हैं।


तुम कब तक दाँत पीसते रहोगे?

सुनो हिटलर--!


हम गा रहे हैं।

- वेणूगोपाल
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शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

अलविदा कामरेड हुकम सिंह भण्डारी

टिहरी षहर के ठीक सामने पड़ने वाली पट्टी रैका । दोनों के बीच भीलींगना नदी, भागीरथी की सहायक। पट्टी दोगी की तरह रियासत का एक बेहद गरीब और उपेक्षित इलाका । लोक मान्यताओं के मुताबिक घोषित तौर पर रागस भूमि। राक्षस का विकट क्षेत्र, जिसमें जाने से ऐषतलब देवता भय खाते हैं । देवी-देवता वहां से दूर-दूर, बाहर-बाहर रहते हैं ।उस रैका कीे ऊँचाई पर, पहाड़ की चोटी पर बसे एक गांव पोड़या में बयासी साल पहले हुकमसिंह भण्डारी ने जन्म लिया था ।

अपने गांव से निकलने के बाद भण्डारी ने श्री सरस्वती मिडिल स्कूल लंबगांव में दाखिला ले लिया था, जिसे आज़ाद टिहरी सरकारने हाई स्कूल बना दिया था। इस विद्यालय को टिहरी रियासत के सामंतीष्षासन की ‘‘रियासत के अंदर सिर्फ सरकारी विद्यालयों के चलाए जाने की अनुमति ’’की हिटलरी षिक्षा नीति के विरोध में क्षेत्र की उत्साही जनता आपस में चंदा करके जर्बदस्ती संचालित करने लगी थी । इसके संस्थापकों-संचालकों में ज़्यादातर को सामंती ष्षासन ने गिरफ्तार कर टिहरी जेल में लंबी-लंबी सजाएं और यातनाएं दी थीं । उनमें पुरूषोŸादŸा रतूड़ी (मास्टरजी), खुषहालसिंह रांगड़, नत्थासिंह कष्यप, लक्ष्मी प्रसाद पैन्यूली भी थे ।

लंबगांव से हाईस्कूल करने के बाद भण्डारी मसूरी चले गए थे। उस जमाने में रैका के ज़्यादातर लोग होटलों में काम करने मसूरी चले जाते थे। वहां से स्नातक हो जाने के बाद एम ए की पढ़ाई करने लिए भण्डारी ने देहरादून आकर डीएवी कॉलेज में दाखिला ले लिया। देहरादून में वे कॉ ब्रजेन्द्र गुप्ता के और निकट संपर्क में आए और उनके द्वारा संचालित किए जाने वाले मार्क्सवादी विचारधारा के स्टडी सर्कलों में भाग लेने लगे। डीएवी कॉलेज के अनेक दूसरे विद्यार्थी भी उन स्टडी सर्कलों में भाग लेते हुए कम्युनिस्ट राजनीति से जुड़ने लगे। रूप नेगी, षांति गुप्ता जैसी लड़कियां भी उनमें षामिल थीं । स्टडी सर्कलों में षिरकत करने वाले छात्र एस एफ (स्टूडंेट्ंस फेडरेषन ) के सदस्य के रूप में अपने अध्ययन की बदौलत अपनी-अपनी कक्षाओं में छात्रों के बीच अपनी एक नई छवि का निर्माण करने लगे। मार्क्सवादी विचारधारा के घेार-विरोधी अध्यापक भी उनके अध्ययन के कायल होने लगते थे। दिन में छात्रों के बीच रह कर उनकी रोजमर्रा की समस्याओं का समाधान करने के लिए उन्हें संगठित करने के कार्याें में व्यस्त रहने के बाद वे रात-रात भर गंभीर विषयों पर लिखी पुस्तकों का अध्ययन करने में डूबे रहते। उपन्यास, साहित्य,इतिहास और अर्थषास्त्र के बारे में उनके नई किस्म के विचारों से आम छात्र प्रभावित होने लगे। यह बात पूरे भारत के तत्कालीन एस एफ छात्रों पर लागू होती थी।

सन् 1951 में एस एफ के आंदोलन में भाग लेने के कारण देहरादून प्रषासन ने उसके अनेक सदस्यों को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया। उनमें टिहरी के हुकमसिंह भण्डारी,विद्यादŸा रतूड़ी, गोविंदसिंह रांगड़, बलदेवसिंह रांगड़, राजेष्वरप्रसाद उनियाल (डाक्टर साहब), गोकुलचन्द रमोला और ललित भण्डारी, पौड़ी गढ़वाल के कॉ भारती और 11 अन्य जिलों के एस एफ सदस्य भी थे । उससे कुछ समय पहले तेज बुखार की हालत में गिरफ्तार करने के बाद संयुक्त प्रान्त(यू0पी0) की सरकार कॉ रूद्रदŸा भारद्वाज को ष्षहीद बना देने का कलंक अपने माथे पर ले चुकी थी। एस एफ के छात्रों को नौ दिनों तक बेवजह जेल में रखने के बाद ही सरकार ने उन्हें रिहा किया। गिरफ्तार होने वाले एस एफ के इन बहादुर लड़ाकू छात्रों के नाम रातों-रात समूचे गढ़वाल और मैदान के निकटवर्ती जिलों में मषहूर हो गए।

देहरादून से एम ए अर्थषास्त्र की डिग्री लेने के बाद कॉ भण्डारी लंबगांव लौट आए । सरस्वती हाई स्कूल में उन्हें अध्यापक बना दिया गया, जहां वे सेेवानिवृŸिा तक कार्यरत रहे । विद्यादŸा रतूड़ी प्रिंसिपल। इन लोगों के अथक परिश्रम की बदौलत उस विद्यालय को बहुत जल्द इंटर कॉलेज की मान्यता प्राप्त हो गई । अपने ज्ञान और सरल स्वभाव के कारण भण्डारी की अपने विद्यार्थियों के बीच बहुत अच्छी छवि बनने लगी । कॉलेज में उनके सहयोगी भी उनकी सम्मतियों को महत्वपूर्ण मानते हुए उनसे प्रभावित होने लगे ।

उनके संपर्क में आने वाले ग्रामीण जन पर भी उनके सरल व्यक्तित्व और मृदु व्यवहार की अमिट छाप पड़ने लगी । कॉ भण्डारी के आमजन को सरल भाव से समझाने का नतीजा था कि टिहरी क्षेत्र के ग्रामीण मतदाताओं ने आम निर्वाचन में कम्युनिस्ट प्रत्याषी कॉ गोविंदंिसंह नेगी को तीन बार विधान सभा में विजयी बना कर अपने प्रतिनिधि के रूप में लखनऊ भेजा ।

बाद के दिनों में क्षेत्रीय जनता के आग्रह पर कॉ भण्डारी को प्रतापनगर क्षेत्र समिति का प्रमुख बनने को सहमत होना पड़ा । कुछ समय पूर्व कॉ भण्डारी के पुराने साथी,देहरादून में सहबन्दी रहे गोकलचन्द रमोला इस क्षेत्र समिति के प्रमुख चुने गए थे । भण्डारी ने अपने कार्यकाल में साधनों की कमी के बावजूद उपेक्षित व अलग-थलग पड़े अनेक इलाकों में सार्वजनिक महत्व के अनेक ऐसे कार्यभी संपन्न करवा दिए, जिनकी ओर तब तक किसी ने तवज्जो नहीं दी थी ।

सेवानिवृŸा होते ही भण्डारी कम्युनिस्ट पार्टी की दैनिक कार्यवाहियों में व्यस्त होने लगे अपने दिन-प्रतिदिन बिगड़ते स्वास्थ्य की परवाह न करते हुए । मिलने वालों साथियों या आमजन को वे अपने स्वास्थ्य के बारे में कभी कुछ बताते ही नहीं थे । उनकी किडनी तक ने जवाब दे दिया था । सिवा आंखों के और जुबान के बाकी ष्षरीर के एक-एक अंग को असाध्य रोगों ने अपनी चपेट में ले लिया था । पार्टी कार्य करने के लिहाज से वे अपने गांव पोड़या से नई टिहरी की कोटी कॉलोनी में आकर निवास करने लगे थे । वहीं से 10 जून 2010 को फोन पर दिल्ली के एक अस्पताल में मेरे एंजियोप्लास्टी किए जाने की जानकारी होने पर उन्हांेने मुझसे बात की । इससे पहले कि मैं उनके स्वास्थ्य के बारे में पूछूं, उन्होंने फोन रख दिया। अब ,10 जुलाई 2010 को उनके हमें छोड़ कर चले जाने के बाद उनकी वही आवाज लगातार मेरे कानों में गूंजती रहती है ।
लाल सलाम कॉ भण्डारी!

- विद्यासागर नौटियाल
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खाद्य सुरक्षा एवं महंगाई पर राष्ट्रीय सम्मेलन द्वारा अंगीकृत घोषणापत्र

1 जुलाई 2010 को चार वामपंथी पार्टियों - भाकपा, भाकपा (मा), फारवर्ड ब्लाक और आरएसपी ने दिल्ली के मावलंकर भवन में खाद्य सुरक्षा एवं महंगाई पर राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया। सम्मेलन ने निम्न घोषणापत्र जारी किया:
"राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा एवं महंगाई पर राष्ट्रीय सम्मेलन इस पर अपनी गंभीर चिन्ता व्यक्त करता है कि
गेहूं, चावल, खाद्य तेलों, चीनी, दालों और सब्जियों समेत आवश्यक खाद्य वस्तुओं की कीमतों में लगातार वृद्धि हो रही है जिससे देश की आबादी के बड़े तबकों में वंचना तेज हो गयी है और यह ऐसे समय हो रहा है जबकि भूमंडलीय रिपोर्टें दिखा रही हैं कि विश्व में सबसे अधिक कुपोषित एवं अल्पपोषित बच्चे, सबसे अधिक कम वजन के बच्चे और सबसे अधिक रक्ताल्पता की शिकार महिलाएं भारत में हैं और ये सभी लोग भूख के शिकार हैं। भूमंडलीय भूख सूचकांक में 88 देशों में भारत अत्यंत निम्न 66वें स्थान पर है।
राष्ट्रीय सम्मेलन का मानना है कि:
महंगाई के लिए केन्द्र सरकार की नीतियां मुख्यतः जिम्मेदार हैं और केन्द्र सरकार द्वारा इसके लिए राज्य सरकारों को जिम्मेदार ठहराने की कोशिश अपनी गलत नीतियों को बदलने और महंगाई को रोकने में इसकी अपनी विफलताओं पर पर्दा डालने के लिए है।
केन्द्र सरकार की ये गलत नीतियां हैं:
1 - सार्वजनिक वितरण प्रणाली को कमजोर करना और इसके परिणामस्वरूप बाजार की ऊंची कीमतों को बराबरी पर लाने का दबाव डालने के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली जो महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है, उसकी उस भूमिका का क्षरण होना। यह नीति उपभोक्ताओं को बाजार पर निर्भर करने के इरादे से बनायी गयी और इस तरह करोड़ों लोगों को मुनाफाखोरों और चोर-बाजार करने वालों के रहमोकरम पर छोड़ दिया गया।
2 - राज्यों के खाद्यान्न आबंटनों को बहाल करने से सरकार का इंकार। इन आबंटनों को पिछले पांच वर्षों में औसतन 73 प्रतिशत कम कर दिया गया है और केरल में तो यह कटौती 80 प्रतिशत से भी अधिक है। केन्द्र के पास खाद्यान्न का 6 करोड़ टन का विशाल बफर स्टाक है, पर उसने अगले छह महीनों में केवल 30 लाख अतिरिक्त खाद्यान्न ही राज्यों को जारी करने का एक बेहद गलत फैसला लिया है और वह खाद्यान्न अब से ऊंची दरों पर, एपीएल (गरीबी रेखा से ऊपर) के मूल्यों से अधिक की दर पर - चावल को 42.7 प्रतिशत अधिक और गेहूं को 38.5 प्रतिशत अधिक की दर पर दिया जायेगा। सरकार ऐसी वाजिब कीमत पर - जिसको लोग सहन कर सकें, खाद्यान्न लोगों को देने के स्थान पर उन्हें खुले में सड़ने या चूहों द्वारा खाये जाने को तरजीह देती है।
3 - सरकार ने आवश्यक वस्तुओं - जिनमें गेहूं, दालों की कई किस्में, खाद्य तेल, यहां तक कि आलू जैसी सब्जियों तक के भी वायदा कारोबार की इजाजत दे रखी है। कमोडिटी एक्सचेंजों में वायदा बाजार के जबरदस्त बढ़ते कारोबार से नगद कीमतों पर असर पड़ता है जो इनकी कीमतों में बृद्धि कर देती है, यह चीज खुले आम मुनाफाखोरी को दर्शाती है जो भी सरकार ने आवश्यक खाद्य वस्तुओं में वायदा कारोबार पर रोक लगाने से मना कर दिया है।
4 - सरकार ने पेट्रोलियम उत्पादों के प्रशासित मूल्य तंत्र को हटाकर इसके मूल्य तय करने का अधिकार बाजार पर छोड़ दिया है जिससे पेट्रोल, डीजल, रसोई गैस के मूल्यों में वृद्धि हो गयी है और अन्य सभी वस्तुओं की कीमतों पर उसका असर पड़ा है। पेट्रोलियम उत्पादों के वर्तमान मूल्य ढांचों में केन्द्र सरकार के टैक्सों का बड़ा हिस्सा होता है जिससे सरकारी राजस्व मिलता है, जबकि इससे आम लोगों को इनकी बढ़ी कीमतें झेलनी पड़ती हैं। पेट्रोल एवं डीजल के मूल्यों में और अधिक वृद्धि का वर्तमान कदम विनाशकारी होगा। यह सम्मेलन सरकार को इस तरह के फैसले के विरूद्ध चेतावनी देता है।
यह सम्मेलन खाद्य वस्तुओं के ऊपर मूल्य नियंत्रण की मांग करता है। खाद्य सुरक्षा सुरक्षित करने के लिए बनायी जाने वाली नीति में निम्न बातें शामिल की जानी चाहिए:
(1) सार्वजनिक वितरण प्रणाली को मजबूत किया जाये और राज्यों को एपीएल की मूल्य दरों पर खाद्यान्न आबंटनों को फिर से चालू किया जाये।
(2) आवश्यक वस्तुओं के वायदा कारोबार पर प्रतिबंध लगाया जाये।
(3) पेट्रोल और डीजल की कीमतें कम की जायें।
(4) आवश्यक वस्तुओं में मुनाफाखोरी और कालाबाजारी को रोकने के लिए सख्त कदम उठाये जायें।
खाद्य सुरक्षा एवं महंगाई पर राष्ट्रीय सम्मेलन इसकी कठोर आलोचना करता है कि:
केन्द्र सरकार हमारे देख के नागरिकों के लिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए एक असरदार कानून को पेश करने में देरी कर रही है। मंत्रि-समूह जिस मसविदे पर विचार-विमर्श कर रहा है, वह खाद्य सुरक्षा देने के बजाय खाद्य असुरक्षा पैदा करेगा क्योंकि उसमें वर्तमान आबंटन को कम किया गया है, जो लोग पात्र हैं, उनकी संख्या में कटौती की है और वर्तमान अन्त्योदय प्रणाली को वस्तुतः समाप्त कर दिया गया है।
बदतर बात यह है कि वर्तमान मसविदे में लक्षित करने की प्रणाली बनाकर और आबादी को एपीएल (गरीबी रेखा से ऊपर) और बीपीएल (गरीबी रेखा के नीचे) में बांटने को कानून का एक हिस्सा बनाकर असल में, गरीबी की अत्यंत अस्पष्ट एवं अनिश्चित परिभाषाओं के आधार पर गरीबों के अत्यंत बड़े तबकों को खाद्य सुरक्षा के दायरे से बाहर करने को कानूनी स्वरूप दे दिया गया है। इस लिहाज से, वर्तमान मसविदा और खाद्य सुरक्षा की जिस अवधारणा को यह पेश करता है, वह एक पीछे ले जाने वाला कदम होगा और यदि इसे मंजूर कर लिया गया तो उससे, जब कोई कानून ही नहीं था उससे भी अधिक नुकसान पहुंचेगा।
यह सम्मेलन,
गरीबी का अनुमान लगाने और गरीबी की परिभाषा करने के नाम पर चल रही ओछी राजनीति और कितने परिवारों को इसमें शामिल किया जाये या बाहर रखा जाये, उस बारे में चल रही सौदेबाजी की भर्त्सना करता है। यह राजनीति और सौदेबाजी इस तरह चल रही है कि मानों करोड़ों लोगों की जिन्दगी और भविष्य नहीं, बल्कि बाजार में किसी वस्तु की कीमत दाव पर लगी है। मुद्दा यह कदापि नहीं है कि इस या उस नेता को खुश करने के लिए ”कुछ और अधिक लोगों को बीपीएल में शामिल कर लिया जाये“ या नहीं, बल्कि मुद्दा यह है कि वर्तमान कवायद का आधार ही अवैज्ञानिक है। आधिकारिक तौर पर गठित तीन समितियों ने गरीबी के अलग-अलग अनुमान बताये हैं जिनमें भारी अंतर है। इन अनुमानों में आबादी के 77 प्रतिशत से लेकर 50 प्रतिशत और 37.5 प्रतिशत (ग्रामीण भारत के लिए) तक लोग गरीब बताये गये हैं। इसी से पता चलता है कि मुद्दा गरीबी के आकलन के आधारों के अवैज्ञानिक होने का है।
देश का विशाल बहुमत असंगठित क्षेत्र में काम करता है; उनकी कोई निश्चित आमदनी नहीं, महंगाई बढ़ने पर उससे बचाव का कोई तरीका नहीं। सरकार के स्वयं के ही द्वारा गठित ”असंगठित क्षेत्र के लिए आयोग“ ने अनुमान लगाया है कि देश की 77 प्रतिशत आबादी 20 रूपये प्रतिदिन से कम पर गुजारा करती है। इससे स्वयं जाहिर है कि देश में एक ऐसी वाजिब कीमत पर जिसका लोग बोझ उठा सकें, खाद्यान्नों एवं अन्य आवश्यक वस्तुओं की गारन्टी के लिए सार्वजनिक वितरण की एक सार्वभौम प्रणाली (जिसके दायरे में सभी लोग आ जायें) की जरूरत है।
यह सम्मेलन दोहराना चाहता है कि:
केवल एक सार्वभौम सार्वजनिक वितरण प्रणाली ही कम से कम न्यूनतम खाद्य सुरक्षा की गारंटी कर सकती है। इसका अर्थ है कि वर्तमान लक्षित प्रणाली को और खाद्य, स्वास्थ्य एवं शिक्षा जैसे मुद्दों के लिए एपीएल और बीपीएल के विभाजन को खत्म किया जाये।
यह सम्मेलन मांग करता है कि:
सरकार संसद के आगामी अधिवेशन में एक संशोधित खाद्य सुरक्षा बिल लाये जिसमें निम्न न्यूनतम बातें शामिल हों:
(1) यह एक सार्वभौम अधिकार होना चाहिए।
(2) उसमें प्रत्येक नाभिक परिवार (ऐसी सामाजिक इकाई जिसमें माता, पिता और बच्चे शामिल हैं) को कम से कम 35 किलोग्राम खाद्यान्न मासिक की गारंटी होनी चाहिए।
(3) खाद्यान्न की कीमत दो रूपये प्रति किलो तय की जानी चाहिए। खाद्यान्नों में मोटे अनाज भी शामिल होने चाहिये, जो भारत के अनेक हिस्सों में मुख्य खाद्य हैं और अत्यंत पोषक हैं।
(4) उसमें दोपहर के भोजन (मिड डे मील) और समेकित विकास योजना (आईसीडीसी) के लिए आबंटन की कानूनी गारन्टी के जरिये स्कूल-पूर्व बच्चों को खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के प्रावधान होने चाहिए।
(5) उसमें अन्य कुछ आवश्यक वस्तुओं को शामिल किये जाने को सुनिश्चित किया जाना चाहिए जैसा कि कई राज्य सरकारें कर रही हैं।
यह सम्मेलन,
खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने में किसानों की महत्वपूर्ण भूमिका को स्वीकार करता है। सम्मेलन भूमि सुधारों और भूमिहीनों को फालतू भूमि के वितरण पर जोर देता है। साथ ही साथ भूमि के आवश्यक विकास के लिए आबंटन भी किया जाना चाहिए जिससे करोड़ों भूमिहीन लोगों को अपनी आजीविका के साधनों को बढ़ाने में मदद के अलावा खाद्य सुरक्षा को जबर्दस्त बढ़ावा मिलेगा। इस संदर्भ में सम्मेलन इसकी भर्त्सना करता है कि केन्द्र सरकार के एजेंडे पर भूमि सुधार का काम है ही नहीं।
कृषि में कम वृद्धि से सरकार द्वारा कृषि विकास और किसान समुदाय के अधिकारों एवं कल्याण को प्राथमिकता न दिये जाने का पता चलता है। सम्मेलन मांग करता है कि ग्रामीण बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए और बिजली, सिंचाई सुविधाओं एवं किसानों के लिए कृषि प्रसार सेवाओं के प्रावधान के लिए सरकारी खर्च में पर्याप्त वृद्धि की जाये।
निर्यात के लिए नकदी फसलों को प्रोत्साहन देने की सरकार की नीतियों से खाद्यान्न-उत्पादन में आत्मनिर्भरता के प्रति सरकार के उदासीन दृष्टिकोण का पता चलता है। बड़ी संख्या में किसान आत्महत्याओं से पता चलता है कि भारत के किसान जबरदस्त संकट में हैं। एम.एस.स्वामीनाथन की अध्यक्षता वाले किसान आयोग ने खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए सिफारिशें देने के साथ ही साथ किसानों के इस संकट से पार पाने के लिए अत्यंत मूल्यवान एवं किसान हितैषी सिफारिशें की थीं। पर सरकार ने उन सिफारिशों पर अमल नहीं किया।
कृषि के मामले में सरकार कितनी निर्दय है, इसका पता इससे चलता है कि उसने उर्वरक अनुदान में 3000 करोड़ से भी अधिक की कटौती कर दी। बीज उपलब्धता के वर्तमान संकट, बीजों के मूल्य में भारी वृद्धि और खाद्य उत्पादन में निवेश होने वाली वस्तुओं की बढ़ती लागत से भारी तादाद में देश के किसानों के लिए खेती लाभप्रद नहीं रह गयी है। इनमें से 70 प्रतिशत किसान सीमांत किसान हैं। ये ऐसे खतरनाक लक्षण हैं जो इशारा कर रहे हैं कि यदि भारत महंगे खाद्यान्न आयात पर निर्भर हो गया और ताकतवर खाद्य निगमों की लूट का निशाना बन गया तो देश का भविष्य क्या होगा।
यह सम्मेलन ऐसी किसानपरस्त नीतियों की मांग करता है जो कृषि निवेश की वस्तुओं के नियंत्रण मूल्य पर मिलने, उत्पादों के लिए वाजिब मूल्य, खरीद केन्द्रों के एक मजबूत नेटवर्क, खाद्यान्नों एवं दालों के उत्पादन को प्रोत्साहन को सुनिश्चित करे। अधिकांश आदिवासी किसान अत्यधिक गैर उपजाऊ जमीन पर खेती करते हैं। सम्मेलन मांग करता है कि उन्हें एक विशेष पैकेज दिया जाये। उनके उत्पादों के लिए वाजिब मूल्य और खरीद की व्यवस्था की जाये, सूखी एवं गैर सिंचित जमीन के लिए अनुकूल मोटे अनाज ज्वार, बाजरा, कोदो, सावां आदि के उत्पादन के लिए उन्हें प्रोत्साहन दिया जाये।
सम्मेलन सरकार की उन नीतियों को, जिनके फलस्वरूप लोगों की बदहाली, कंगाली और मुसीबतें बढ़ी है, महंगाई बढ़ी है, खाद्य असुरक्षा बढ़ी है, बदलने के लिए और खाद्य सुरक्षा एवं उपर्वर्णित सार्वभौम सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर आधारित प्रभावी खाद्य सुरक्षा कानून के लिए संघर्ष को तेज करने का संकल्प करता है और शहरों एवं मोहल्लों तक इस संदेश को पहुंचाने के लिए देश भर में अगस्त में एक महीना लम्बे अभियान और संघर्ष का आह्वान करता है। इस अभियान में धरना, पदयात्राओं, जीप जत्थों, जुलूसों, प्रदर्शनों, घेराव जैसे कार्यक्रम शामिल होंगे जिनके बारे में स्थानीय एवं राज्य स्तर पर फैसले किये जा सकते हैं।
इस सम्मेलन का आह्वान है कि खाद्य सुरक्षा के अपने अधिकारों और महंगाई पर नियंत्रण करने के लिए जोर डालने के लिए जनता के विशाल एवं व्यापकतम तबकों तक पहुंचा जाये।

सरकार की नीतियों को बदलो!
महंगाई के जरिये जनता की लूट बंद करो!!
एपीएल के नाम पर गरीबों को खाद्य सुरक्षा से बाहर रखने की साजिश बंद करो!
लक्षित प्रणाली खत्म करो!
सार्वभौम सार्वजनिक वितरण प्रणाली लागू करो!
खाद्यान्नों को गोदामों से निकाल जनता को दो!
चूहों को नहीं जनता को खाद्यान्न खिलाओ!!!

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बुधवार, 14 जुलाई 2010

गड़े मुर्दे मत उखाड़ें, वक्त के तकाजे को अमल करें - एटक की अपील

प्रिय कामरेड पंधे,
“आपकी पत्रिका “वर्किंग क्लास” (जून 2010) में प्रकाशित का. जीवन राय के आलेख की तरफ हमारा ध्यान दिलाया गया है। उस आलेख को हमने गंभीरता से पढ़ा है।
आप कृपया स्मरण करें कि आपके कार्यालय में ही कोयला हड़ताल के प्रश्न पर चर्चा हुई थी और हमने सुझाव दिया था कि हड़ताल की तारीख आगे बढ़ायी जाय और अन्य टेªड यूनियनों के परामर्श से हड़ताल की वैकल्पिक तारीख तय की जाय। असलियत में एटक के राष्ट्रीय सचिव रमेन्द्र कुमार ने इस बारे में एक पत्र का. जीवन राय को 27 अप्रैल 2010 को ही लिखा और हड़ताल करने के लिए अन्य संबंधित टेªड यूनियनों से परामर्श करने का सुझाव दिया था, किंतु का. जीवन राय ने अपने आलेख में हड़ताल में शामिल नहीं होने वाले यूनियनों को ‘अवसरवादी’ होने का आरोप लगाया है। जाहिर है, एटक ने उस हड़ताल में भाग नहीं लिया, जिस हड़ताल की तारीख का एकतरफा फैसला आपके संगठन ने किया। इसलिए इस दोषारोपण को हम पूरी तरह इंकार करते हैं, बल्कि हमारा आरोप है कि आपके संगठन ने एटक एवं अन्य संगठनों से परामर्श किये बगैर एकतरफा फैसला लेकर हड़ताल में एटक एवं अन्य संगठनों को शामिल होने से अलग कर दिया। इस तरह टेªड यूनियनों में आम सहमति बनाने के हमारे प्रयास का अनदेखा किया गया। हमें भय है, आपका यह आचरण एकता के लिए गंभीर वचनबद्धता का बयान नहीं है।
आप महसूस करेंगे कि टेªड यूनियनों की प्रतिद्वंद्विता को एक-दूसरे की टंगरी काटने की अधोगति में नहीं परिणत करना चाहिए। यह आचरण सरकार की प्रतिक्रियावादी नीतियों के विरुद्ध लड़ाकू व्यापक कारगर एकता के निर्माण को कमजोर करता है। ऐसा आचरण मजदूरों को विभाजित रखता है और इसलिए यह मजदूर वर्ग की व्यापक एकता में बड़ी बाधा है।
एटक और इंडिया माईंस वर्कर्स फेडरेशन का निजीकरण, विनिवेश, आउटसोर्सिंग आदि के खिलाफ संघर्ष का शानदार रिकार्ड है। हमने बराबर व्यापक मंच का निर्माण किया है और मजदूर वर्ग को संघर्ष के मैदान में उतारा है। अगर मजदूरों का कुछ तबका अपने यूनियन के बैनर तले अलग झुंड बनाकर व्यापक एकता से बाहर हो जाता है तो इसमें संदेह नहीं कि यह राष्ट्रीय स्तर की व्यापक एकता को भी नुकसान पहुंचाता है और यह अपने आप में उन उद्देश्यों के प्रति भी कुसेवा है, जिसके लिए वह हड़ताल आयोजित की गयी थी।
आप संकटपूर्ण वर्तमान समय के तकाजे से अवगत हैं, जिसके चलते हाल के दिनों में वामदलों ने पलटियां खायी हैं। देश संकट से गुजर रहा है। भविष्य की नयी चुनौतियों का सामना व्यापक एकता के माध्यम से ही किया जा सकता है। हम सबने नौ केंद्रीय मजदूर संगठनों के बीच आपसी सहयोग और परस्पर परामर्श से एकता को मजबूत बनाने में सफलता हासिल की है। वर्तमान समय में मजदूर वर्ग के नये रूझान का यह इजहार है। यह प्रयास हमें जारी रखना है।
आप अपने संगठन का महिमा मंडन करें तो इसमें कुछ भी नुकसान नहीं है, जैसा आपके अध्यक्ष द्वारा किया प्रतीत होता हैं, किंतु ऐसा करते समय अन्य संगठनों की भूमिका नकारी नहीं जा सकती जो, ज्यादा नहीं तो, आपकी तरह ही समान रूप से गौरवशाली है।
इस आलेख में एटक और सीटू के पुराने मतभेदों को प्राथमिकता दी गयी है, जबकि तथ्य यह है कि हम सरकार की दुर्नीतियों के खिलाफ मिलकर संघर्ष किये हैं। यह तथ्य नजरअंदाज किया गया है। वर्तमान संदर्भ में क्या यह उचित है कि इतिहास के गड़े मुर्दों को फिर से उखाड़ा जाय? उन्होंने अपने लेख में तथाकथित कतिपय निराधार घटनाओं का उल्लेख किया है और एटक को ‘मजदूर विरोधी’ कहकर निंदित किया है। इससे हम अत्यंत क्षुब्ध है। ऐसी लांछना को हम पूरी तरह खारिज करते हैं। एटक मजबूती से विश्वास करता है कि वर्तमान समय में हमारा उद्देश्य न केवल राष्ट्रीय स्तर पर एकता को मजबूत करने का होना चाहिए, बल्कि औद्योगिक और क्षेत्रीय स्तर पर भी संपूर्ण मजदूर वर्ग के बीच महत्तर सौहार्दपूर्ण संबंध बनाने का भी होना चाहिए।
हम आपसे अपील करते हैं कि आप सुनिश्चित करें कि पत्र-पत्रिकाओं में कुछ भी ऐसा प्रकाशित नहीं किया जाना चाहिए, जिससे यह ऐतिहासिक एकता भंग हो, जिसे हमने हाल के दिनों में निर्मित की है।
चूंकि वह आलेख, जिसकी चर्चा हमने ऊपर की पंक्तियों में की है, आपकी पत्रिका में प्रकाशित हुई है, इसलिए यह पत्र भी हम एटक पत्रिका ‘ट्रेड यूनियन रिकाडर्’ में प्रकाशित कर रहे हैं।
भाईचारा के साथ,
जी एल धर
सचिव, एटक”
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कंपनी अफसरों का वेतन करोड़ों में - करते क्या हैं वे मोटे पगार वाले?

दो भारत बन रहा है। एक ‘शाइनिंग इंडिया’ तो दूसरा ‘दरिद्र भारत’। इसी तरह श्रम के भी दो मानक हो गये हैं ‘आफिसर्स पर्क’ और ‘मजदूरों की दिहाड़ी’। कंपनी के सीइओ के वेतन करोडों में, लेकिन मजदूरों की दिहाड़ी मुश्किल से दो अंकों में। प्रकाशित आंकड़ों के मुताबिक देश में कारपोरेट जगत में सौ से अधिक अधिकारियों का मासिक वेतन एक करोड़ रुपए से अधिक है और यह संख्या शुरूआत भर है। भारत में कुल मिलाकर 4500 से अधिक सूचीबद्ध कंपनियां हैं, जिनमें 175 ने अब तक अपने सीइओ तथा अन्य शीर्ष पदाधिकारियों के वेतन पैकेज का खुलासा किया है। इनमें 60 कंपनियों के शीर्ष कार्यकारियों को मासिक एक करोड़ रुपयों या अधिक वेतन मिलता है।
अब तक उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार 31 मार्च 2010 या दिसंबर 2009 को समाप्त वित्त वर्ष में एक करोड़ रुपए या इससे अधिक सालाना वेतन पाने वाले अधिकारियों की संख्या 105 है। इस सूची में पहले स्थान पर मीडिया मुगल कलानिधि मारन तथा उनकी पत्नी कावेरी कलानिधि हैं, जिनका वेतन मार्च 2010 में 37 करोड़ रुपए से अधिक रहा अर्थात् 3.10 करोड़ मासिक। यों वे साल के लिए 94.8 करोड़ रुपए तक का वेतन पाने के हकदार थे, जो 780 करोड़ मासिक होता है।
सन टीवी नेटवर्क के प्रबंध निदेशक कावेरी ने 2009-2010 में अधिकतम 74.16 करोड़ रुपए का वेतन लेना तय किया था। इस सूची में रिलायंस इंडस्ट्रीज के प्रमुख मुकेश अंबानी भी हैं। जिन्होंने स्वैच्छिक कटौती के बावजूद 15 करोड़ रुपए का सालाना वेतन लिया। उल्लेखनीय है कि कारपोरेट जगत के अधिकारियों को बेतहाशा वेतन पर काफी हंगामा मच चुका है। मुकेश अंबानी ने पिछले साल अक्टूबर में 2008-09 के लिए अधिकतम 15 करोड़ रुपये वेतन लेने का फैसला किया था। अपने अधिकारियों को करोड़ो रुपए वेतन देने वाली कंपनियों में जेएसडब्ल्यू स्टील, पाटनी कम्प्यूटर्स, रैनबैक्सी, हिंदुस्तान कंस्ट्रक्शन, एचडीएफसी बैंक, शोभा डेवलपर्स, इंफोसिस, इंडसाइड बैंक, ग्लेक्सोस्मिथक्लाइन, एसीसी, किसिल, रेमंड, स्टरलाइट इंडस्ट्रीज, डेवलपमेंट क्रेडिट बैंक, आईसीआईसीआई बैंक, एक्सिस बैंक, नेस्ले इंडिया, यस बैंक तथा रैलीज इंडिया शामिल हैं, उल्लेखनीय है यह सूची सिर्फ शुरूआत भर कही जा सकती है। क्योंकि बहुत सारी प्रमुख कंपनियों की सालाना रपटें अभी आनी हैं। सरकार मोटे पगारवालों का वेतन भुगतान नहीं रोक सकती है तो क्या वह दिहाड़ी मजदूरों का न्यूनतम वेतन भुगतान गारंटी भी नहीं कर सकती हैं?
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मंगलवार, 13 जुलाई 2010

पिछड़ा

महंगाई की घनघोर आंधी
भ्रष्टों बेईमानों जन-शत्रुओं
संग काले-धनियों की चांदी
आमजन बेचारा थका हारा
हर पल गिरते उठते जूझते
हर तरह वहीं है जाता मारा
कमाने की पहली ही जुगत
राह खर्च ही जाते-आते
लगाये रोज़ ही करारी चपत
रिक्शा टेम्पो जरूरत, भाड़ा
मजबूर जेब खीेंचे बीस-पच्चीस
पर वह बढ़ चालिस पे अड़ा
कार स्कूटर स्कूटी बाईक
पास अपने न हो तब भी
तन-तेल चारों ओर निकाले हाईक
हो जो दुपहिया चार-पहिया
उछलते कूदते तेल की मार
मुंह गाये हाय दैया रे दैया
नित-दिन आटा,दाल तरकारी
ऊपर ही ऊपर उड़ती जाएं
माना हमने फल अहितकारी
गुणवान संताने लिये अंक-अम्बार
उच्च शिक्षा का इठलाता लुभाता
चहुं ओर फैला महंगा बाजार
ऊंचे कर्ज छोटा घर भी सपना
नींव और दो दीवारें छत ही न
पूरा हो ही न पाए ये अपना
जीवन के हर पग पर बारंबार
कोशिशें करता ही गिरता उठता
फिर भी पिछड़ा ही रहे हर बार
- कल्पना पांडे ‘दीपा’
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नागार्जुन की याद


नागार्जुन को ध्यान में रखते हुए उनसे संबंधित ढेर सारी बातें सामने आने के लिए होड़ मचाने लगती हैं। वे ऐसी बातें हैं, जो उनके बाद की पीढ़ी से लेकर आज तक के लेखकों में दुर्लभ हैं। नागार्जुन जिस दौर में साहित्य जगत में कलम लेकर आये, उस दौर में जीवन में किसी ऐतिहासिक उपलब्धि के लिए पहले त्याग करना अनिवार्य समझा जाता था। निराला ने एक गीत में लिखा है ‘जला है जीवन यह आतप में दीर्घ काल’। नागार्जुन के जीवन पर यह कथा पूरी तरह घटित होता है।
सन 1951 या 52 में जब बिहार राष्ट्र भाषा परिषद का गठन किया गया था तभी नागार्जुन के सामने एक प्रस्ताव रखा गया था कि यदि वे स्वीकार करें, तो परिषद में विद्यापीठ कायम करके उस पर उनको बिठाया जा सकता है। इस पर नागार्जुन ने अपने मित्रों से बात करते हुए कहा कि यह तो सरकारी नौकरी होगी, यदि मैं इसे स्वीकार कर लूंगा, तो सरकार के प्रति व्यंग्य कौन लिखेगा। स्पष्ट है कि नागार्जुन अपने रचानात्मक संस्कार को छोड़ने को तैयार नहीं थे। अतः उन्होंने विद्यापति पीठ का प्रस्ताव नामंजूर कर दिया।
1957 या 58 में उन्हें हिमालय प्रेस से प्रकाशित पत्रिका ‘बालक’ का सम्पादक बनाया गया। उन्हांेने स्वीकार भी कर लिया। ‘बालक’ में चारित्रिक परिवर्तन कर दिया उन्होंने। अंधविष्वास वासी लोक कथाओं के बदले वह बालोपयोगी एवं वैज्ञानिक कथाएं छापने लगे। लेकिन इस पद पर वे मात्र तीन महीने रह सके, बोले- इस तरह मुष्किल है। एक दिन उठकर निकले, वे फिर उधर नहीं गए।
एक और प्रसंग याद आता है। सन 1967 में बिहार में भयानक अकाल पड़ा था। अकाल के दौर में ही चौथा आम चुनाव हुआ, तो बिहार में कांग्रेस हार गयी और संविद सरकार बनी जिसमें कम्युनिस्ट पार्टी भी शामिल थी। कम्युनिस्ट नेता इन्द्रदीप सिंह राजस्व के साथ ही अकाल राहत मंत्री भी थे। उन दिनों नागार्जुन हिन्दी साहित्य सम्मेलन भवन में ठहरे थे। मैं कुछ दिनों के लिए पटना आया था और सम्मेलन भवन में ठहरा था। तभी एक दिन बाबा ने बताया- अरे भाई आज हरिनंदन ठाकुर आए थे, अभी वे राहत कार्यों के सचिव हैं। कह रहे थे कि आप एक काम कर दीजिए, अकाल के इलाकों में घूमिये और आकल पर राहत की स्थिति के बारे में मेरे पास एक रिपोर्ट भेज दीजिए। आप जैसे रहते हैं, जहां रहते हैं, वैसे ही वहां रहिए, किसी कार्यालय में जमकर बैठने की जरूरत नहीं है। स्थिति को देखकर आपका लेखक जो अनुभव करता है वही आप लिख दीजिएगा, सरकार आपको मानदेय देगी और घूमने का प्रबंध भी कर देगी। इतना बोलते हुए उन्हांेने कहा- मैंने सोचने का समय लिया है, अब तुम बताओ क्या करना चाहिए! मैंने कहा- एक तो यह बदली हुई सरकार है, दूसरे यह राहत कार्य विभाग एक कम्युनिस्ट के हाथ में है, तीसरे, आप सरकार को आलोचनात्मक रिपोर्ट भी दे सकते हैं, चौथे, यह नौकरी तो है नहीं; अतः इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लेने से कोई हर्ज तो नहीं है। वे बोले- ठीक कहते हो तुम। उन्होंने काम स्वीकार कर लिया, लेकिन यह काम भी दो-तीन महीनों से ज्यादा नहीं कर सके। बोले- अरे सब कुछ के बावजूद यह तो हो ही गया है कि मैं बिहार में बंध गया हूं, कलकत्ता? इलाहाबाद, दिल्ली कहीं भी नहीं जा पा रहा हूं। अतः उन्होंने इस आशय का पत्र सरकार को भेज दिया और निकल पड़े यात्रा पर।
असल में नागार्जुन वैकल्पिक सांस्कृतिक चेतना के वाहक थे, वैकल्पिक मूल्यों के प्रतीक थे, वे इस चेतना और प्रतीकत्व को छोड़ने को किसी भी कीमत पर तैयार नहीं थे। यही तो नागार्जुन के लेखकीय यक्तित्व का आकर्षण था। नये लेखक उनसे अक्सर मिलते रहते थे, वे चाहे जहां रहे। वे उनसे साहित्य के बारे में बातंे करते थे, साहित्य रचना के मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते थे। मैं उनसे पहली बार 1953 में मिला जब मैं भागलपुर में इंटर प्रथम वर्ष का छात्र था। वे एआईएसएफ (आल इंडिया स्टुडेंट्स फेडरेशन) के भागलपुर जिला सम्मेलन के अवसर पर आयोजित कवि सम्मेलन में भाग लेने आए थे। सन् 52 में उनका उन्यास ‘बलचनमा’ छपा था, जिसकी बड़ी चर्चा हो रही थी। मैंने यह उपन्यास खरीदकर कुछ दिन पहले ही पढ़ा था। बेचन जी उस समय एमए प्रथम वर्ष में पढ़ रहे थे, लेकिन साहित्य के बारे में उनकी जानकारी और समझ बहुत अच्छी थी। वे कहते थे कि ‘बलचनमा’ में प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढ़ाया है। मैं एआईएमएफ का सदस्य नहीं था, लेकिन कवि सम्मेलन में उपस्थित हुआ। बेचन जी संचालन कर रहे थे। मुझसे पूछा- कविता सुनाईगा। मुझे हिम्मत नहीं हुई। लेकिन उसी मंच पर नागार्जुन से उन्होंने मुझे मिलाया। नागार्जुन भगवान पुस्तकालय में ठहरे थे, वही बेचन जी भी रहते थे, क्योंकि उस समय उनके पिता श्री उग्र मोहन झा पुस्तकाध्यक्ष थे। मैं दूसरे दिन प्रातः बाबा से मिलने भगवान पुस्तकालय पहंुचा। उन्होंने पूछा- क्या लिखते हो? मैं कहा- अभी तो शुरूआत है, कोशिश कर रहा हूं कि लिख पाऊं। वे खुश हुए सुनकर। बोले- देखो, जो भी लिखो लेकिन भाषा को रगड़ मारो, ओढ़ना-बिछोना बना लो, उसे लेकर सड़क पर चलो, जीवन की भाषा ही जीवंत भाषा होती है। उनकी इस बात का मुझ पर गहरा असर पड़ा। उस दिन तक मैं संस्कृतनिष्ठ भाषा लिखता था और समझता भी यही था कि संस्कृतनिष्ठ भाषा अच्छी होती है। स्कूल में मैंने संस्कृत पढ़ी थी, इसलिए संस्कृत शब्दों के लिए मुझे भटकना नहीं पड़ता था। लेकिन दूसरे ही दिन से जो कुछ भी लिखता, उसे संस्कृत के तत्सम शब्दों से मुक्त रखने की कोशिश करने लगा। इस काम में कुछ समय लगा। उस समय हमारे गृह नगर गोड्डा (झारखंड) से कुछ तरुण लेखक एक पत्रिका ‘नव जागरण’ नाम से निकालते थे। उनमें मैं भी शामिल था। उसका दूसरा अंक मैंने उन्हें दिया। पटना लौटकर उन्होंने एक पोस्ट कार्ड पर मुझे पत्र लिखा- ‘आठ-दस तरूणों का सचेत गिरोह क्या नहीं कर सकता है? उन्होंने हमें उत्साहित किया। वह पत्र पत्रिका के अगले अंक के मुखपृष्ठ पर हमने छाप दिया। वहीं अंतिम अंक हो गया; क्योंकि गोड्डा में कांग्रेसी लोग हल्ला करने लगे कि ये लड़के कम्युनिस्ट हो रहे हैं। उनमें कोई कम्युनिस्ट नहीं था, लेकिन वहां के कांग्रेसियों को किसी आसन्न संकट का अहसास हुआ। इसके प्रभाव से ही पत्रिका बंद हो गई। लेकिन मेरा संपर्क नागार्जन से न केवल बना रहा, बल्कि लगातार गहरा होता गया। वे बराबर हमें चिट्ठियां लिखते रहे, अफसोस है कि वे चिट्ठियां आज उपलब्ध नहीं है।
मैं पटना आया 1957 में, एमए (हिन्दी) पढ़ने। वे उन दिनों पटना में मछुआ टोली में रहते थे। वहीं रहकर उन्होंने ‘वरुण के बेटे’ उपन्यास लिखा था। मैं खोजते-खोजते उनके आवास पर पहुंच गया। उनके आवास पर ‘मधुकर गंगाधर’ से परिचय हुआ। वे उस साल एमए करके निकल गए थे और अजन्ता प्रेस से प्रकाशित पत्रिका में काम कर रहे थे। अक्सर शाम हो हम लोग अजन्ता प्रेस में मिलते थे। बाबा तो केन्द्र में रहते ही थे। एक दिन उनके साथ अशोक राजपथ पर चले जा रह थे, शाम का समय था, बी.एन. कालेज के सामने उन दिनों भारत कॉफी हाउस था। उन्होंने कहा- चलो तुमको कॉफी पिलाए। मैंने कहा- मैं तो चाय-कॉफी कुछ नहीं पीता। यह सुन कर वे बोले-अरे, लेखन के रास्ते पर चले हो, तो कॉफी नहीं पीओगे, तो कॉफी हाउस नहीं जाओगे, तो आधुनिकाओं का सौरभ कैसे पाओगे। मैं गौर से उनको देखने लगा-बलचनमा और वरूण के बेटे को लेखक ऐसा कह रहा था! खैर उनका अनुगमन करते हुए कॉफी हाउस में दाखिल हुआ और उनके साथ कॉफी के साथ ही उनके यक्तित्व का नया स्वाद लिया।
बात 1958 की है। होली के अवसर पर बाल शिक्षा समिति, हिन्दुस्तारनी प्रेस यानी रामदहिन मिश्र के प्रतिष्ठान में कवि-सम्मेलन था। बाबा भी आमंत्रित थे। पटना के तमाम कवि-लेखक वहां मौजूद थे। नागार्जुन की बारी आयी, तो माईक पर खड़े होकर उन्होंने कहा- मैंने सुना था कि इस कवि-सम्मेलन में शिक्षा मंत्री भी रहेंगे, तो मैंने उनके लिए यह खास टुकड़ा लिखा, वे नहीं है, तब भी मैं सुना रहा हूं। यह टुकड़ा उनके कोई मुसाहिब पहुंचा ही देंगे। उन दिनों कुमार गंगानंद सिंह बिहार के शिक्षा मंत्री थे। तो बाबा ने कविता सुनाई-
अभी-अभी उस दिन मिनिस्टर जी आए थे,
बत्तीसी दिखलाइ थी, वायदे दुहराये थे,
भाखा लटपटायी थी, नैन शरमाये थे,
छपा हुआ भाषण भी नैन से सटाये थे।
इसके बाद श्री मथुरा प्रसाद दीक्षित खड़े हो गए और कहने लगे- यह तो एकदम व्यक्तिगत आक्षेप है, इसे वापस लीजिए। बाबा ने इस पर कहा- ठीक है, अंतिम पंक्ति को संशोधन करके ऐसा कर देता हूं- ‘छपा हुआ भाषण भी पढ़ नहीं पाये थे’। इसके बाद स्थिति शांत हुई।
इसी प्रसंग में एक बात और याद आ रही है। नागार्जुन ने राजनैतिक व्यक्तित्वों पर जितना लिखा है, उतना किसी दूसरे किसी कवि ने नहीं लिखा। पंडित नेहरू, जयप्रकाश, इन्दिरा गांधी आदि पर अनेक कविताएं अनेक मनोदशाओं में लिखी हैं। पंडित नेहरू के निधन के बाद उन्होंने एक लंबी कविता लिखी, जिसकी पहली पंक्ति हैं- ‘तुम रह जाते दस साल और। इस कविता को लेकर काफी विवाद हुआ था। यहां मुझे वह प्रसंग याद आ रहा है, जो बाबा ने खुद बताया था। दिल्ली में एक दिन बाबा पहुंच गए राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त के यहां। उन्होंने उन्हें कई कविताएं सुनायी, जिनमें पंडित नेहरु पर लिखी उपर्युक्त कविता भी थी। इसके अलावा जयप्रकाश नारायण, इंदिरा गांधी, मोरारजी देसाई आदि पर लिखी कविताएं थी। कहने की जरूरत नहीं कि सभी उपर्युक्त व्यक्तित्वों के खिलाफ व्यंग्यात्मक ढंग से लिखी गयी थी। चुपचाप कविताएं सुन लेने के बाद गुप्त जी ने अपना गुप्त गुस्सा जाहिर करते हुए कहा- ‘मैं तुम्हें जब चलता हुआ देखता हूं तो लगता है कि विष का मटका डोलता हुआ चला जा रहा है।’ बाबा ने मुझे बताया कि मुझे भी गुस्सा आ गया और मैंने कहा- ‘मैं तो यह समझता हूं कि इस जनतंत्र के युग में जो मेरी इन कविताओं को बर्दाष्त नहीं कर सकता उसे मैं राष्ट्रकवि नहीं मानता’। यह कहकर बाबा उठे और चल दिये।
एक बार मैं और बाबा इलाहाबाद में साथ-साथ परिमल प्रकाशन के स्वामी शिवकुमार सहाय के यहां ठहरे थे। एक दिन बाबा ने पूछा- पंत जी से कभी मिले हो। मैंने कहा- नहीं। फिर वे बोले- अरे चलो तुम्हें मिलाता हूं उनसे। एक दिन संध्या समय हम लोग पंत जी के मम्फोर्ड गंज के आवास पर पहुंचे! छोटा-सा मकान, लेकिन लताओं और वृक्षों से घिरा हुआ। पंत जी हम लोगों को अंदर ले गए, बैठक में बिठाया। बाबा ने मेरा परिचय देते हुए कहा-छायावादी काव्य की भाषा पर काम करके पीएचडी हासिल की है इन्होंने, कविताओं के साथ आलोचना भी लिखते हैं, आंदोलन भी करते हैं, कई बार जेल हो आये हैं। पंत जी बाबा की बात सुन रहे थे और मैं देख रहा था कि उनके चेहरे पर भाव आ-जा रहे थे। उन्होंने अत्यंत मर्मस्पर्शी स्वर में पूछा- ‘जेल में तो बड़ा कष्ट हुआ होगा।’ मैंने कहा- ‘आंदोलनकारी साथियों के झुंड में शामिल होकर जेल जाना तो किसी त्यौहार की तरह आनंददायी होता है।’ पंत जी भीतर गये और नमकीन लेकर आये। एक बाबा को दी और एक मुझे। मुझे लगा जैसे मेरे जेल-कष्ट को पंत जी कुछ कम करने की कोशिश कर रहे हैं। फिर कुछ देर गपशप करते हुए चाय पीकर हम लोग पंत जी को प्रणाम कर विदा हुए। पंत जी अपने अहाते के गेट तक आये। लौटते हुए रास्ते में बाबा ने बताया- अमृत राय से इनकी बड़ी दोस्ती है, जब बाजार या कहीं जाना होता है, तो अमृत को फोन करते हैं और वे गाड़ी लेकर आ जाते हैं।
दूसरे दिन शाम को बाबा के साथ इलाहाबाद कॉफी हाउस पहुंचे। वहां बहुत से लेखक मिले, जिन्हें मैं जानता था, लेकिन पहचानता नहीं था। वहां नरेश मेहता थे, विजय नारायण साही थे, डा. रघुवंश, रामस्वरूप चतुर्वेदी, लक्ष्मीकांत वर्मा, मार्केण्डेय आदि थे। अनेक नये लोग भी थे, गिरिधर राठी आदि। कविता की चर्चा चली तो नरेश मेहता ने कहा- आध्ुानिक हिन्दी कविता में अकेले नागार्जुन हैं, जिनकी कविताओं को पढ़कर उनके देश-काल का पता चलता है। इस पर साही जी ने बाबा की राजनैतिक कविताओं का जिक्र करते हुए उनकी राजनैतिक अस्थिरता की बात कही। इस पर बाबा ने कहा- देखो, साही, तुम सोशलिस्ट हो और मैं कम्युनिस्ट; फिर भी डा. लोहिया मेरी कविताओं की फोटो कापी कर बंटवाते हैं, तुम्हारे पास ऐसी कोई कविता है जिसे डा. लोहिया आम लोगों में बंटवाने की बात सोचें?
बाबा पटना में रह रहे थे। मैं अक्सर गर्मी-छुट्टी और पूजा छुट्टी में पटना आता था अपने शोध कार्य के लिए। बात सन् 64 की है। मैंने बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के तत्कालीन प्रधानमंत्री को पत्र लिखा कि मैं पटना आ रहा हूं, सम्मेलन भवन में मेरे ठहरने का प्रबंध कर दीजिए। सम्मेलन से तो कोई जवाब नहीं मिला लेकिन बाबा का एक कार्ड मिला- तुम्हारा पत्र सम्मेलन की मेज पर देखा, मेरा कहना है कि इस बार तुम मेरे साथ ठहरो, मैं अकेला हूं। मैं खुश हुआ और छुट्टी होते ही पटना आ गया। बाबा का आवास उन दिनों पटना टेªनिंग स्कूल की बगल में एक खपरैल के मकान में था। मुझे सुविधा भी हुई, राष्ट्रभाषा परिषद का भवन वहां से नजदीक पड़ता था। मैं सुबह नाश्ता करके निकलता था और शाम पांच बजे के बाद लौटता था। एक दिन बातचीत करते हुए बाबा ने कहा- बगल के मकान में राज्य सरकार के एक खुफिया अधिकारी रहते हैं। कह रहे थे, आपकी बहुत-सी कविताएं खुफिया विभाग की फाईल में हैं। बाबा ने कहा- रखे रहिए, संग्रह निकालना होगा, तो आपकी फाईल से ही ले लेंगे।
एक दिन रात के भोजन के बाद बाबा ने कहा- चलो गंगा किनारे कुछ देर टहलेंगे। गंगा-तट वहां से बहुत करीब था। तो हम लोग निकले। चांदनी रात थी। गंगा की धारा चांदनी में चमक रही थी। गंगा किनारे बहुत से मंदिर और मठ हैं। एक मठ के आगे लंबा-चौड़ा सहन बना हुआ था, सीमंेट से। टहलने का विचार छोड़कर हम लोग उस सहन के किनारे बैठ गये। गंगा की धारा उसे धक्का मारते हुए बह रही थी। हम लोग देर तक बैटे गपशप करते रहे। इतने में एक आदमी वहां पहुंचा और जोर-जोर से बोलने लगा- यह क्या कर दिया, आप लोगों ने, चप्पल पहने यहां चले आए, छिःछिः, अपवित्र कर दिया मंदिर को। इस पर बाबा ने भी उसी स्वर में कहा- मंदिर में क्या होता है सो हमें भी मालूम है, उन कुकृत्यों से मंदिर अपवित्र नहीं होता है और हम मंदिर के आंगन में चप्पल पहने चले आए तो अपवित्र हो गया? इतना सुनते ही वह आदमी- अरे बाप रे, यह कैसा-कैसा आदमी यहां चला आया- यह कहते हुए भीतर की ओर दौड़कर गया। मुझे लगा कि वह अपने लोगों को बुलाने गया है। मैंने कहा- बाबा, अब जल्दी से खिसकिये यहां से। और हम लोग तेजी से निकल गए और बगल में ही एक मोड़ था, उससे मुड़कर ओझल हो गये। मठवाले निकले होंगे, तो हमें वहां न पाकर झुझलाकर रह गए होंगे।
एक बार बाबा इलाहाबाद से पटना आने वाले थे, उन्होंने पहले पत्र लिख दिया था। उन दिनों मैं विधायक क्लब में रह रहा था। मैं स्टेशन गया उनको ले आने। गाड़ी आयी, मैं उनके इंतजार में खड़ा रहा, लेकिन वे कहीं दिखाई नहीं पड़े। नहीं आये, यह समझ कर मैं लौट आया। थोड़ी देर बाद देखा कि वे आ रहे हैं पैदल ही अपना झोला कंधे से लटकाये और कंधे पर भी कोई सामान था। मैंने देखा और दौड़ कर उनके पास गया। कंधे पर का सामान ले लिया, देखा वह तो फटा हुआ था, रस चू रहा था। मैंने कहा- बाबा मैं तो स्टेशन गया था। बोले- चलो, पहले पहुंच लें तब बतायेंगे। जाहिर है वे बहुत थक गए थे। उस दिन ‘पटना बंद’ का आह्वान कुछ दलों ने किया था। सवारियां बंद थी, अतः बाबा को स्टेशन से पैदल आना पड़ा था। क्लब पहुंचकर पहले पानी पिया, कुछ देर में मिजाज ठंडा हुआ, फिर चाय पी तो बोले- अरे भाई, टेªन में भीड़ इतनी थी कि मैं प्लेटफार्म पर उतर नहीं पाया और गाड़ी खुल गयी। वह तो समझो कि किसी ने जंजीर खींचकर गाड़ी रोक दी, तो मैं वहां प्लेटफार्म से थोड़ा आगे जाकर उतर पाया, नहीं तो पटना सिटी से पहले क्या उतर पाता। वहां पर उतरने में तरबूज गिर गया और फट गया। मैंने सोचा कि बच्चों को इलाहाबादी तरबूज खिलायें, इसलिये लेता आया। फटे हुए तरबूज को गमछे में बांधा और कंधे पर उठाया। इतने में वहां पर टीटी आ गया और कहने लगा- बिना टिकट हैं, बाबा, इसलिए प्लेटफार्म पर नहीं उतरकर यहां उतर गये। खीझ से मैंने कहा- आपको मुझे देखकर ऐसा लगता है कि मैं बिना टिकट हूं? यह कहते हुए टिकट दिखाया, तो वह ‘माफ कीजिए, कहकर चला गया। ‘बंद’ के कारण रिक्शा नहीं मिला। लेकिन कहने लगे- कोई बात नहीं, आखिर मैं तरबूज ले ही आया। यह कहते हुए वे हंसने लगे। पटना में रहने पर कॉफी हाउस जरूर जाते थे। यह 1978 कर बात है। शाम को कॉफी हाउस जाने लगे तो मुझसे पूछा- चलोगे? उस दिन शाम को एक जरूरी काम था, इसलिए मैंने कहा- बाबा आज तो नहीं जा सकूंगा। ठीक है, ठीक है, कोई बात नहीं। कॉफी हाउस तो अक्सर वे लोग जाते हैं जिनको समय और पैसा जरूरत से ज्यादा है, मैं तो जाता हूं इसलिए कि बहुत से लोगों से भेंट हो जाती है। बाबा कई दिनों तक ठहरे। एक दिन मैंने कहा- बाबा ‘उत्तर शती’ के लिए कोई कविता दीजिए न! बोले- कोर्ठ ताजा कविता दूंगा यहीं लिखकर। एक दिन सुबह-सुबह बाबा ने कहा देखो जी कविता तैयार है, पहले तुम सुन लो। मैंने कहा- हां, हां, जरुर सुनाइए। और वे सुनाने लगे-
‘किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है,
कौन है बुझा-बुझा, कौन यहां पस्त है,
कौन है खिला-खिला कौन यहां मस्त है’।
कुछ ऐसी ही पंक्तियों से कविता शुरू हुई थी। कविता की गति-यति नृत्य की धुन पर बन गयी थी, इसलिए सुनाते हुए वे खड़ा होकर नृत्य करने लगे। अद्भुत दृश्य था वह। वे सुना रहे थे और नृत्य कर रहे थे, उसी समय भीतर से मेरा पुत्र भास्कर वहां आ गया। बाबा ने उसे थोड़ा झिड़कते हुए कहा- उधर जाओ! वह चला गया और दिन भर वहां नहीं आया। जब शाम को बाबा कॉफी हाउस चले गए तो वह बाहर वाले कमरे में आया और बोला - बाबूजी कविता सुनिए-
किसकी है जनवरी किसका अगस्त है
कौन है बुझा-बुझा कौन यहां मस्त है
मैं हूं बुझा-बुझा मैं यहां पस्त हूं
बाबा हैं खिले-खिले बाबा यहां मस्त हैं।
मैं सुनकर चकित हो गया। सात-आठ का लड़का, उसने सुबह की डांट पर इतनी अच्छी प्रतिक्रिया व्यक्त की। बाबा लौटे तो मैंने धीरे से उन्हें यह प्रतिक्रिया बतायी। सुनकर बोले- वाह, यह तो कमाल है। भास्कर को पुकारते रहे, वह नहीं आया। अगली सुबह उन्होंने भास्कर को बुलाया, तो वह आया। बाबा उसे लेकर विधायक कैंटीन चले गए और वहां उसे रसगुल्ला खिलाकर लाए। अब दोनों खुश थे।
मैं डायरी नहीं लिखता, लिखता रहता तो बाबा के संस्मरणों की मोटी किताब हो जाती। यों मैंने अन्यत्र भी उनके बारे में संस्मरण लिखे हैं। अंत करते-करते दो प्रसंगों की चर्चा और करना चाहता हूं।
बाबा मेरे यहां ठहरे हुए थे। यह 1989 की बात रही होगी। एक दिन सुबह ही आ गए भागवत झा आजाद। यह कहना प्रासंगिक होगा कि आजाद जी मेरे नजदीकी रिश्तेदार हैं, इसलिए अक्सर आते थे। उस दिन आए तो बड़े आदर से बाबा से मिले और बोले- आज चलिए मेरे साथ, दिन भर वहीं रहियेगा, आपको मैं पहुंचा दूंगा। बाबा उनके साथ चले गये। वे फिर शाम को पहुंचा गये। मैंने उनके जाने के बाद पूछा- बाबा, क्या-क्या हुआ वहां दिन भर। इस पर बोले- अरे, खाना-पीना हुआ और उन्होंने लंबी कविता लिखी है, बल्कि पूरी पुस्तक ही है, सुनाया उन्होंने और पूछा- कैसी है बाबा? तो मैंने (बाबा) कहा- ‘अरे अब बुढापे का दिन है, नाती पोता खेलाइये।’ यह भी उनकी कविताओं पर बाबा की बेबाक टिप्पणी।
बाबा को राजभाषा विभाग की ओर से राजेन्द्र शिखर-सम्मान देने की घोषणा की गयी।
उस समय मुख्यमंत्री लालू प्रसाद थे। बाबा समारोह में उपस्थित हुए और राशि सहित सम्मान ग्रहण किया। लाल प्रसाद ने समारोह के समय ही किसी को भेजकर बाजार से च्यवनप्राश मंगाया और बाबा को दिया यह कहते हुए कि च्यवपप्राश खाइए और ढेर दिनों तक स्वस्थ रहिये। दूसरे दिन एक अखबार का प्रतिनिधि पहुंचा भेंटवार्ता लेने। ढेर सारी बातों के साथ बाबा ने कह दिया, अरे, लालू तो शत्रुघ्न सिन्हा से भी ज्यादा नाटकिया है। इसी शीर्षक से वह भेंट वार्ता छपी थी। यह काम बाबा से ही संभव था। उत्तर प्रदेश सरकार का सम्मान स्वयं इंदिरा गांधी के हाथों से लेते समय बाबा ने कह दिया था- मैंने आपके खिलाफ बहुत-सी कविताएं लिखी है।
बैजनाथ मिश्र, यात्री नागार्जुन का ऐतिहासिक-सांस्कृतिक-राजनैतिक यात्रा का अंत 5 नवंबर 1998 को लहरिया सरय के पंडा सराय स्थित किराये के आवास में हो गया। मैं अंत्येष्टी में शामिल हुआ। मैं, अरूण कमल और मनोज मेहता साथ पहुंचे पंडा सराय। हृषिकेश सुलभ, मदन कश्यप और अनिल विभाकर भी पटना से पहुंच चुके थे; रांची से रवि भूषण भी आये थे। राज्य सरकार ने राजकीय सम्मान के साथ अत्यंष्टि कराने का फैसला किया था। अंतः दरभंगा के जिलाधीश ज्योतिभ्रमर तुबिद और पुलिस अधीक्षक शोभा अहोतकर तथा अन्य अनेक अधिकारी मौजूद थे। हम लोगों के पहुंचते ही पंडासराय से बाबा के जन्मग्राम तरौनी के लिए शव-यात्रा निकल पड़ी। गांव के घर के बिना घेरे वाले आंगन में बाबा को रखा गया थोड़ी ही देर में गांव के लोग जमा हो गए और गांव से अंत्येष्टी स्थल के लिए यात्रा शुरू हुई; और डेढ़ वर्ष पहले फरवरी में जहां उनकी पत्नी अपराजिता देवी की अंतिम क्रिया हुई थी, उसी जगह के लिए लोग बाबा को कंधे पर ले चले। मुझे कंधा लगाने का सुअवसर मिला। स्थल पर एक शामियाना सरकार ने लगवाया था। कुर्सियां भी लगी थी। पुलिस के बंदूकधारी जवान भी खड़े थे। राज्य सरकार के चार मंत्री उपस्थित थे। शिवानंद तिवारी भी थे। मैथिली के अनेक लेखक उपस्थित थे। अखबारों के प्रतिनिधि और दूरदर्शन वाले भी थे। एक उल्लेखनीय बात यह थी कि खेत मजदूर महिलाएं बड़ी संख्या में मौजूद थी। वहां आम तौर से महिलाएं शव यात्रा में नहीं जाती हैं। लेकिन बाबा के प्रति प्रेम के कारण ये रिवाज तोड़ा दिया गया। ऐसा लग रहा था बलाचनमा के परिवार के लोग अंतिम प्रणाम करने आए थे।
दूरदर्शन वाले मेरे पास आये और पूछा आप क्या सोच रहे हैं? मैंने कहा- मैं यह सोच रहा हूं कि यह यात्री युवावस्था में विवाह के बाद घर छोड़कर निकल गया था और बारह वर्ष तक बाहर ही घूमता रहा, इस यात्री ने घर छोड़ते समय मैंथिली में लिखा था-
मां मिथिले, ई अंतिम प्रणाम
अहिबातक पातिल फोडि-फोडि
जा रहल छी हम आन ठाम
मां मिथिले ई अंतिम प्रणाम।
उस ‘युग-युग धावित यात्री’ की अंतिम क्रिया गांव में हो रही है। लेकिन उसके पहले जीवन में भी साबित हुआ कि कविता का अंतिम प्रणाम सार्थक नहीं हो सका। हिन्दी में एक कविता में उन्होनंे लिखा-
याद आता है तुम्हारा सिंदूर तिलकित भाल,
याद आता है अपना वह तैरानी ग्राम।
कविता लंबी है। सबसे अधिक मुझे यह कविता याद आ रही है, जो उन्होंने बहुत दिनों के बाद गांव लौटने की आंतरिक अनुभूति को व्यक्त करते हुए लिखी-
बहुत दिनों के बाद अबको देखी मैंने
पकी-सुनहली फसलों की मुस्कान
बहुत दिनों के बाद,
बहुत दिनों के बाद अबकी मैंने छू पाया
गंवई पगडंडी की चंदनवर्णी धूल
बहुत दिनों के बाद,
बहुत दिनों के बाद अबकी मैनं जी भर सूंघे
मौलसिरी के ताजे टटके फूल
बहुत दिनों के बाद
बहुत दिनों के बाद अबकी मैंने जी भर गन्ने चूसे,
ताल-मखाने खाये
बहुत दिनों के बाद
बहुत दिनों के बाद अबकी मैं जी भर सुन पाया
धान कूटती किशोरियों की कोकिल कंठी तान
बहुत दिनों के बाद
बहुत दिनों के बाद अबकी मैंने जी भर भोगे
रूप, रस, गंध, शब्द, स्पर्ष सब साथ-साथ
इस भू पर बहुत दिनों के बाद
दूर दर्शन वालो ने इसके बाद पूछा- बाबा सबदिन सत्ता के खिलाफ लड़ते रहे, अभी सत्ता उनको बंदूकों की सलामी देने आया है इसे आप किस तरह देख रहे हैं? मैंने कहा- बाबा तो सचमुच जीवन भर सत्ता के खिलाफ लड़ते रहे और लड़ते-लड़ते उन्होंने जो हैसियत हासिल की है वह बहुत बड़ी और ऐतिहासिक है। इसलिए उन्हें सलामी देकर सत्ता अपनी लोकप्रियता बढ़ाना चाहती है।
तमाम उपस्थित लोग बड़े खुश हुए मेरा उत्तर सुनकर। लेकिन इसके कुछ देर बाद राज्य सरकार के चार मंत्री उठकर चले गए। अभी अंत्येष्टि बाकी थी और इस तरह बीच में ही मंत्रियों का चला जाना राजकीय सम्मान में कमी करना था। अखबारों में इसकी चर्चा हुई।
- खगेन्द्र ठाकुर
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