भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रकाशन पार्टी जीवन पाक्षिक वार्षिक मूल्य : 70 रुपये; त्रैवार्षिक : 200 रुपये; आजीवन 1200 रुपये पार्टी के सभी सदस्यों, शुभचिंतको से अनुरोध है कि पार्टी जीवन का सदस्य अवश्य बने संपादक: डॉक्टर गिरीश; कार्यकारी संपादक: प्रदीप तिवारी

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Communist Party of India, U.P. State Council

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शुक्रवार, 25 जून 2010

पेट्रोल, डीजेल, मिट्टी के तेल और रसोई गैस की कीमतों में बढ़ोतरी के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करो - भाकपा

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की उत्तर प्रदेश राज्य कौंसिल ने अपने सभी साथिओं को पेट्रोल, डीजेल, मिट्टी के तेल और रसोई गैस की कीमतों में बढ़ोतरी के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करने का आह्वान किया है। लखनऊ में कल २५ जून को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कैसर बाग ऑफिस में दोपहर ११ बजे संप्रग दो सरकार का पुतला फूका जायेगा। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की लखनऊ जिला कौंसिल ने आम जनता से अनुरोध किया है कि वह अधिक से अधिक संख्या में इस प्रदर्शन में शामिल हो.
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CPI UP APPEALS YOU TO DONATE FOR ORGANISING UNORGANISED WORKING CLASS



COMMUNIST PARTY OF INDIA IS THE PARTY OF THE WORKING CLASS.

SINCE 1925, WE ARE FIGHTING FOR THE CAUSE OF TOILING MILLIONS OF THE COUNTRY.

DURING LAST TWO YEARS, WE ARE TRYING REBUILD THE WORKING CLASS MOVEMENT AS WELL AS THE PARTY OF THE WORKING CLASS IN UTTAR PRADESH. WE UNDERTAKEN SO MANY TASKS IN THE PAST.

TO CONTINUE OUR EFFORTS WITH SAME PACE, WE NEED MONEY AND FOR THAT WE URGE & APPEAL ALL.

DONATIONS MAY BE DEPOSITED AT ANY OF THE BRANCHES OF UNION BANK OF INDIA IN A/C NO. 353302010017252 IN THE NAME & STYLE OF “COMMUNIST PARTY OF INDIA, U.P. STATE COUNCIL”

(IFSC CODE FOR NEFT OR RTGS REMITTANCES UBIN0535338

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ANY OF THE BRANCHES OF PUNJAB NATIONAL BANK IN A/C NO. 2411000100117691 IN THE NAME & STYLE OF “COMMUNIST PARTY OF INDIA, U.P. STATE COUNCIL”

AFTER DEPOSITING THE AMOUNT, PLEASE INFORM US THE NAME OF THE BANK & BRANCH WHERE THE AMOUNT HAS BEEN DEPOSITED AND ALSO THE DATE & AMOUNT AND ALSO YOUR ADDRESS THROUGH E-MAIL (revolt@sancharnet.in; cpi943@dateone.in) OR THROUGH SMS ON 9450446654 TO FACILITATE RECONCILIATION WITH THE CONCERNED BANK AND DISPATCH OF RECEIPT FROM OUR OFFICE.

WE TRUST TO HEAR YOU SHORTLY & POSITIVELY. WE ALSO REQUEST YOU TO KINDLY FORWARD THIS MESSAGE TO AS MANY COMRADES AS POSSIBLE AND HELP US IN FURTHERANCE OF THIS CAUSE.

WITH GREETINGS.

COMMUNIST PARTY OF INDIAU.P. STATE COUNCIL
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नये मनुष्य, नये समाज के निर्माण की कार्यशाला: क्यूबा-5

साम्राज्यवाद का दुःस्वप्नः क्यूबा और फिदेल
आइजनहावर, कैनेडी, निक्सन, जिमी कार्टर, जानसन, फोर्ड, रीगन, बड़े बुश औरछोटे बुश, बिल क्लिंटन और अब ओबामा-भूलचूक लेनी-देनी भी मान ली जाए तोअमेरिका के 10 राष्ट्रपतियों की अनिद्रा की एक वजह लगातार एक ही मुल्कबना रहा - क्यूबा।1991 में जब सोवियत संघ बिखरा और यूरोप की समाजवादी व्यवस्थाएँ भी एक केबाद एक ढहती चली गईं तो यह सिर्फ पूँजीवादियों को ही नहीं वामपंथियों कोभी लगने लगा था कि अब क्यूबा नहीं बचेगा। फिर जब फिदेल कास्त्रो कीबीमारी और फिर मौत की अफवाह फैलाई गई तब भी यही लगा था कि फिदेल के मरनेके बाद कौन होगा जो इतनी समझदारी और कूटनीति से काम लेते हुए क्यूबा कोअमेरिकी आॅक्टोपस से बचाये रख सके।लेकिन क्यूबा बना रहा। न केवल बना रहा बल्कि अपने चुने हुए रास्ते परमजबूत कदमों के साथ आगे बढ़ता रहा।फिदेल कास्त्रो को मारने और क्यूबा की आजादी खत्म करने की कितनी कोशिशेंअमेरिका की तरफ से हुई हैं, इसकी गिनती लगाते-लगाते ही गिनती बढ़ जाती है।सन 2006 में यू0के0 में चैनल 4 ने एक डाॅक्युमेंट्री प्रसारित की थीजिसका शीर्षक था-कास्त्रो को मारने के 638 रास्ते (638 वेज टु किलकास्त्रो)। फिल्म में फिदेल कास्त्रो को मारने के अमेरिकी प्रयासों का एकलेखा-जोखा प्रस्तुत किया गया था जिसमें सी.आई.ए. की मदद से फिदेल कोसिगार में बम लगाकर उड़ाने से लेकर जहर का इंजेक्शन देने तक के सारेकायराना हथकंडे अपनाए गए थे। तकरीबन 40 बरस तक फिदेल कास्त्रो के सुरक्षाप्रभारी और क्यूबा की गुप्तचर संस्था के प्रमुख रहे फेबियन एस्कालांतेबताते हैं कि ’लाल शैतान’ को खत्म करने के लिए अमेरिका, सी0आई0ए0 औरक्यूबा के भगोड़े व गद्दारों ने हर मुमकिन कोशिश की। फिल्म के निर्देशकडाॅलन कैन्नेल और निर्माता पीटर मूर ने अमेरिका में ऐशो-आराम की जिंदगीबिता रहे ऐसे बहुत से लोगों से मुलाकात की, जिन पर फिदेल की हत्या कीकोशिशों का इल्जाम है। उनमें से एक सी0आई0ए0 का रिटायर्ड अधिकारी फेलिक्सरोड्रिगुएज भी था जो 1961 में क्यूबा पर अमेरिकी हमले के वक्त क्यूबा केविरोधियों का प्रशिक्षक था और जो 1967 में चे ग्वेवारा के कत्ल के वक्तबोलीविया में भी मौजूद था। यहाँ तक कि अमेरिकी जासूसी एजेंसियों कीनाकामियों से परेशान होकर अमेरिकी हुक्मरानों ने फिदेल को मारने के लिएमाफिया की भी मदद ली थी।कुछ बरसों पहले 80 पार कर चुके फिदेल कास्त्रो भाषण देते हुए हवाना मेंचक्कर खाकर गिर गए थे। उनकी पैर की हड्डी भी इससे टूट गई थी। बस, फिरक्या था। अमेरिकी अफवाह तंत्र पूरी तरह सक्रिय होकर फिदेल की मृत्यु कीअफवाहें फैलाने लगा। लेकिन फिदेल ने फिर दुनिया के सामने आकर सब अफवाहोंको ध्वस्त कर दिया। जब फिदेल के डाॅक्टर से किसी पत्रकार ने पूछा कि क्याउनकी जिंदगी का यह आखिरी वक्त है तो डाॅक्टर ने कहा कि फिदेल 140 बरस कीउम्र तक स्वस्थ रह सकते हैं।लेकिन फिदेल ने क्यूबा की जिम्मेदारियों को सँभालने में सक्षम लोगों कीपहचान कर रखी थी। सन् 2004 से ही धीरे-धीरे फिदेल ने अपनी सार्वजनिकउपस्थिति को कम करना शुरू कर दिया था। फिर 2006 में फिदेल ने अपनीजिम्मेदारियाँ अस्थायी तौर पर राउल कास्त्रो को सौंपीं। चूँकि राउलकास्त्रो फिदेल के छोटे भाई भी हैं इसलिए सारी दुनिया में पूँजीवादीमीडिया को फिर दुष्प्रचार का एक बहाना मिला कि कम्युनिस्ट भी परिवारवादसे बाहर नहीं निकल पाए हैं। लेकिन ये बात कम लोग जानते हैं कि राउलकास्त्रो फिदेल के भाई होने की वजह से नहीं बल्कि अपनी अन्य योग्यताओं कीवजह से क्यूबा के इंकलाब के मजबूत पहरेदार चुने गए हैं। सिएरा मास्त्राके पहाड़ों पर 1956 में जिस सशस्त्र अभियान में चे और फिदेल अपने 80 अन्यसाथियों के साथ ग्रान्मा जहाज में मैक्सिको से क्यूबा आए थे, राउल उसअभियान का बेहद महत्त्वपूर्ण हिस्सा थे। बटिस्टा की फौजों से चंद महीनोंके भीतर हुई सैकड़ों मुठभेड़ों में फिदेल, चे, राउल और उनके 10 अन्यसाथियों को छोड़ बाकी सभी मारे गए थे। यह भी कम लोग जानते हैं कि फिदेल केकम्युनिस्ट बनने से भी पहले से राउल कम्युनिस्ट बन चुके थे। न सिर्फ जंगके मैदान में एक फौज के प्रमुख की तरह बल्कि सामाजिक-आर्थिक और राजनैतिकचुनौतियों का भी राउल कास्त्रो ने मुकाबला किया है। मंदी के संकटपूर्ण ौरमें खेती की उत्पादकता बढ़ाने के लिए आज क्यूबा के जिस शहरी खेती केप्रयोग की दुनिया भर में प्रशंसा होती है, वह दरअसल राउल कास्त्रो की हीकल्पनाशीलता का नतीजा है।बेशक पूरी दुनिया में फिदेल एक जीवित किंवदंती हैं इसलिए क्यूबा से बाहरकी दुनिया में हर क्यूबाई उपलब्धि चे और फिदेल के खाते में ही जाती है।लेकिन इसका मतलब यह भी है कि फिदेल ने अपना इतना विस्तार कर लिया है किवहाँ अनेक अनुभवी व नये लोग तैयार हैं। राउल कास्त्रो सिर्फ फिदेल के भाईहोने का नाम ही नहीं, बल्कि इंकलाब की जिम्मेदारी सँभालने के लिए तैयारलोगों में से एक नाम है।
इंकलाब का बढ़ता दायरा
आज सोवियत संघ को विघटित हुए करीब दो दशक पूरे हो रहे हैं। ऐसी कोई बड़ीताकत दुनिया में नहीं है जो अमेरिका को क्यूबा पर हमला करने से रोक सके।क्यूबा से कई गुना बड़े देश इराक और अफगानिस्तान को अमेरिका ने सारीदुनिया के विरोध के बावजूद ध्वस्त कर दिया। चीन में कहने के लिएकम्युनिस्ट शासन है लेकिन बाकी दुनिया के कम्युनिस्ट ही उसे कम्युनिज्मके रास्ते से भटका हुआ कहते हैं। उत्तरी कोरिया ने अपनी सुरक्षा के लिएपरमाणु शक्ति संपन्न बनने का रास्ता अपनाया है। फिर अब अमेरिका को कौन सीताकत क्यूबा को नेस्तनाबूद करने से रोकती है? वह ताकत क्यूबा कीक्रान्तिकारी जनता की ताकत है जिसे पूरी दुनिया की मेहनतकश और इंसाफ पसंदजनता अपना हिस्सा समझती है और अपनी ताकत का एक अंश सौंपती है।पिछले बीस बरसों से वे लगातार चुनौतियों से जूझ रहे हैं अनेक मोर्चों परबिजली की कमी की समस्याएँ, रोजगार में कमी, उत्पादन और व्यापार में कमीऔर बाहरी दुनिया के दबाव अपनी जगह बदस्तूर कायम हैं ही, फिर भी, इतने कमसंसाधनों और इतनी ज्यादा मुसीबतों के बावजूद क्यूबा ने शिक्षा,स्वास्थ्य, सुरक्षा और जन पक्षधर जरूरी चीजों को अपने नागरिकों के लिएअनुपलब्ध नहीं होने दिया। अप्रैल 2010 में क्यूबा के लाखों युवाओं कोसंबोधित करते हुए राउल कास्त्रो ने कहा कि ’इतनी मुश्किलों में से उबरनेकी ताकत सिर्फ सामूहिक प्रयासों और मनुष्यता को बचाने की प्रतिबद्धता सेही आती है, और वह ताकत समाजवाद की ताकत है।’ ये सच है कि कई मायनों मेंक्यूबा की जनता आज सबसे मुश्किल दौर से गुजर रही है। लेकिन वे जानते हैंकि इसका सामना करने और हालातों को अपने पक्ष में मोड़ लेने के अलावा दूसराकोई विकल्प नहीं है। सर्वग्रासी पूँजीवाद अपने जबड़े फैलाए क्यूबा केइंकलाब को निगलने के लिए 50 वर्षों से ताक में है। चे ने 1961 में लिखाथा कि गलतियाँ तो होती हैं लेकिन ऐसी गलतियाँ न हों जो त्रासदी बन जाएँ।क्यूबाई जनता जानती है कि समाजवाद के बाहर जाने की गलती त्रासदियाँलाएगी।आज सिर्फ क्यूबा में ही नहीं, सारी दुनिया में हर उस शख्स के भीतर कीआवाज फिदेल और क्यूबा के लोगों और क्यूबा की आजादी के साथ है जिसके भीतरअन्याय के खिलाफ जरा भी बेचैनी है। आज चे, फिदेल और क्यूबा सिर्फ एक देशतक महदूद नाम नहीं हैं बल्कि वे पूरी दुनिया के और खासतौर पर पूरे दक्षिणअमेरिका के साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन के प्रतीक हैं। अमेरिका जानता हैकि फिदेल और क्यूबा पर किसी भी तरह का हमला अमेरिका के खिलाफ एक ऐसेविश्वव्यापी जबर्दस्त आंदोलन की वजह बन सकता है जिसकी लहरों से टकराकरसाम्राज्यवाद-पूँजीवाद की नाव तिनके की तरह डूब जाएगी।क्यूबा की प्रेरणा, जोश और फिदेल की अनुभवी सलाहों के मार्गदर्शन में आजलैटिन अमेरिका के अनेक देशों में अमेरिकी साम्राज्यवाद और सरमायादारी केखिलाफ आंदोलन मजबूत हुए हैं और वेनेजुएला और बोलीविया में तो परेशानहालजनता ने इन शक्तियों को सत्ता भी सौंपी है। अपनी ताकत को बूँद-बूँदसहेजते हुए पूरी सतर्कता के साथ ये आगे बढ़ रहे हैं। क्यूबा ने उनकी ताकतको बढ़ाया है और वेनेजुएला के राष्ट्रपति चावेज और बोलीवियाई राष्ट्रपतिइवो मोरालेस के उभरने से क्यूबा को भी बल मिला है। अमेरिकी चक्रव्यूह सेअन्य देशों को भी निजात दिलाने के लिए वेनेजुएला की पहल पर लैटिन अमेरिकीदेशों को एकजुट करके ’बोलीवेरियन आल्टरनेटिव फाॅर दि अमेरिकाज’ (एएलबीए)और बैंक आॅफ द साउथ के दो क्षेत्रीय प्रयास किए हैं जिनसे निश्चित हीपूँजीवाद के बनाए भीषण मंदी के दलदल में फँसे देशों को कुछ सहारा भीमिलेगा और साथ ही समाजवादी विकल्प में उनका विश्वास बढ़ेगा। अब तक इनप्रयासों में हाॅण्डुरास, निकारागुआ, डाॅमिनिका, इक्वेडोर, एवं कुछ अन्यदेश जुड़ चुके हैं। यह देश मिलकर अमेरिका की दादागीरी को कड़ी व निर्णायकचुनौती दे सकते हैं। नये दौर में ऐसी ही रणनीतियाँ तलाशनी होंगी।
-विनीत तिवारीमोबाइल : 09893192740
(क्रमश:)
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नये मनुष्य, नये समाज के निर्माण की कार्यशाला: क्यूबा -1

1959 में जब क्यूबा में सशस्त्र संघर्ष द्वारा बटिस्टा की सरकार कोअपदस्थ करके फिदेल कास्त्रो, चे ग्वेवारा और उनके क्रान्तिकारी साथियोंने क्यूबा की जनता को पूँजीवादी गुलामी और शोषण से आजाद कराया तो उसकेबाद मार्च 1960 में माक्र्सवाद के दो महान विचारक और न्यूयार्क से निकलनेवाली माक्र्सवादी विचार की प्रमुखतम् पत्रिकाओं में से एक के संपादकद्वयपॉल स्वीजी और लिओ ह्यूबरमेन तीन हफ्ते की यात्रा पर क्यूबा गए थे। अपनेअध्ययन, विश्लेषण और अनुभवों पर उनकी लिखी किताब ’क्यूबाः एनाटाॅमी आॅफ एरिवाॅल्यूशन’ को वक्त के महत्त्व के नजरिये से पत्रकारिता, और गहरीतीक्ष्ण दृष्टि के लिए अकादमिकता के संयोग का बेहतरीन नमूना माना जाताहै। आज भी क्यूबा को, वहाँ के लोगों, वहाँ की क्रान्ति और हालातों कोसमझने का यह एक ऐतिहासिक दस्तावेज है। बहरहाल, अपनी क्यूबा यात्रा की वजहसे उन्हें अमेरिकी सरकार और गुप्तचर एजेंसियों के हाथों प्रताड़ित होनापड़ा था। ऐसे ही मौके पर दिए गए एक भाषण के कारण 7 मई 1963 को उन्हेंअमेरिका विरोधीगतिविधियों में लिप्त होने और क्यूबा की अवैध यात्रा करने और कास्त्रोसरकार के प्रोपेगंडा अभियान का हिस्सा होने के इल्जाम में एक सरकारीसमिति ने जवाब-तलब किया था। वह पूछताछ स्मृति के आधार पर प्रकाशित की गईथी। उसी के एक हिस्से का हिन्दी तर्जुमाःसवालः यह मंथली रिव्यू में 1960 से 1963 के दौरान क्यूबा पर प्रकाशितलेखों की एक सूची है। क्या यह सही है?जवाबः यह सही तो है, लेकिन अधूरी है। हमने क्यूबा पर इससे ज्यादा लेखछापे हैं।सवालः क्या इन लेखों को छापने के लिए आपको क्यूबाई सरकार ने कहा था?जवाबः हर्गिज नहीं। हमने ये लेख अपने विवेक से प्रकाशित किए क्योंकिहमारी दिलचस्पी लम्बे समय से इस बात में है कि गरीबी, बेरोजगारी, बीमारी,अशिक्षा, रिहाइश के खराब हालात और अविकसित देशों में महामारी की तरहमौजूद असंतुलित अर्थव्यवस्था से उपजने वाली जो बुराइयाँ हैं, उनसे किसतरह निजात पाई जा सकती है। क्यूबा में क्रान्ति की गई और इन समस्याओं कोहल किया गया। लैटिन अमेरिका के दूसरे देशों में ये बुराइयाँ अभी भी मौजूदहैं। सारे अविकसित लैटिन अमेरिकी देशों में सिर्फ एक ही देश है जहाँ येबुराइयाँ खत्म की जा सकीं, और वह है क्यूबा।सवालः क्या आप लैटिन अमेरिका के देशों में कम्युनिस्ट कब्जे/ तख्तापलट कीहिमायत कर रहे हैं?जवाबः मैंने ऐसा नहीं कहा बल्कि आपने कहा। मैंने कहा कि ये सारी बुराइयाँसभी अविकसित देशों के लिए बड़ी समस्याएँ हैं, जिनमें लैटिन अमेरिका के देशभी शामिल हैं, और मेरे खयाल से इन समस्याओं का हल उस तरह के इंकलाब सेनिकलेगा, जो फिदेल कास्त्रो ने क्यूबा में किया है।प्रसंगवश मैं ये भी बता दूँ कि लैटिन अमेरिका के लिए इस तरह के इंकलाब कीतरफदारी मैं तब से कर रहा हूँ जब फिदेल कास्त्रो की उम्र सिर्फ करीब 10बरस रही होगी।सवालः क्या आप क्यूबा की कम्युनिस्ट सरकार के प्रोपेगैंडिस्ट (प्रचारक)हैं?जवाबः मैं क्यूबा की ही नहीं, किसी भी सरकार का, या किसी पार्टी का याकिसी और संगठन का प्रोपेगैंडिस्ट नहीं हूँ, लेकिन हाँ, मैंप्रोपेगैंडिस्ट हूँ-सच्चाई का।इसके भी पहले लिओ ह्यूबरमैन ने जून 1961 में दिए एक भाषण में जो कहा था,वह आज भी प्रासंगिक है।’’मैं एक क्षण के लिए भी स्वतंत्र चुनावों, अभिव्यक्ति की आज़ादी या प्रेसकी आज़ादी के महत्त्व को कम नहीं समझता हूँ। ये उन लोगों के लिए बेहदजरूरी और सबसे महत्त्वपूर्ण आज़ादियाँ हैं जिनके पास खाने के लिए भरपूरहै, रहने, पढ़ने-लिखने और स्वास्थ्य की देखभाल करने के लिए अच्छी सुविधाएँहैं, लेकिन इन आजादियों की जरूरत उनके लिए सबसे पहली नहीं है जो भूखेहैं, निरक्षर हैं, बीमार और शोषित हैं। जब हममें से कुछ भरे पेट वालेखाली पेट वालों को जाकर यह कहते हैं कि उनके लिए मुक्त चुनाव सबसे बड़ीजरूरत हैं तो वे नहीं सुनेंगे; वे बेहतर जानते हैं कि उनके लिए दुनियामें सबसे ज्यादा जरूरी क्या है। वे जानते हैं कि उनके लिए सबसे ज्यादा औरकिसी भी और चीज से पहले जरूरी है रोटी, जूते, उनके बच्चों के लिए स्कूल,इलाज की सुविधा, कपड़े और एक ठीक-ठाक रहने की जगह। जिंदगी की ये सारीजरूरतें और साथ में आत्म सम्मान-ये क्यूबाई लोगों को उनके समूचे इतिहासमें पहली बार हासिल हो रहा है। इसीलिए, जो जिंदगी में कभी भूखे नहीं रहे,उन्हेें ताज्जुब होता है कि वे (क्यूबा के लोग) कम्युनिज्म का ठप्पाचस्पा होने से घबराने के बजाय उत्साह में ’पैट्रिया ओ म्यूर्ते’ (देश यामौत) का नारा क्यों लगाते हैं।’’जुल्म जब हद से गुजर जाए तो1959 में क्यूबा में क्रान्ति होने के पहले तक बटिस्टा की फौजी तानाशाहीवाली अमेरिका समर्थित सरकार थी। बटिस्टा ने अपने शासनकाल के दौरान क्यूबाको वहशियों की तरह लूटा था। अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने पर ही नहीं,शासकों के मनोरंजन के लिए भी वहाँ आम लोगों को मार दिया जाता था। अमेरिकाके ठीक नाक के नीचे होने वाले इस अन्याय को अमेरिकी प्रशासन देखकर भीअनदेखा किया करता था क्योंकि एक तो क्यूबा के गन्ने के हजारों हेक्टेयरखेतों पर अमेरिकी कंपनियों का कब्जा था, चारागाहों की लगभग सारी ही जमीनअमेरिकी कंपनियों के कब्जे में थी, क्यूबा का पूरा तेल उद्योग और खनिजसंपदा पर अमेरिकी व्यावसायिक घराने ही हावी थे। वे हावी इसलिए हो सके थेक्योंकि फौजी तानाशाह बटिस्टा ने अपने मुनाफे के लिए अपने देश का सबकुछबेचना कबूल कर लिया था।
-विनीत तिवारीमोबाइल : 09893192740
(क्रमश:)
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नये मनुष्य, नये समाज के निर्माण की कार्यशाला: क्यूबा -2

दूसरे विश्वयुद्ध के बाद हालात और खराब हुए। बटिस्टा ने क्यूबा कोअमेरिका से निकाले गए अपराधियों की पनाहगाह बना दिया। बदले में अमेरिकीमाफिया ने बटिस्टा को अपने मुनाफों में हिस्सेदारी और भरपूर ऐय्याशियाँमुहैया कराईं। उस दौर में क्यूबा का नाम वेश्यावृत्ति, कत्ले आम, औरनशीली दवाओं के कारोबार के लिए इतना कुख्यात हो चुका था कि 22 दिसंबर1946 को हवाना के होटल में कुख्यात हवाना कांफ्रेंस हुई जिसमें अमेरिकाके अंडर वल्र्ड के सभी सरगनाओं ने भागीदारी की। यह सिलसिला बेरोक-टोकचलता रहा।1955 में बटिस्टा ने ऐलान किया कि क्यूबा किसी को भी जुआघर खोलने कीइजाजत दे सकता है बशर्ते कि वह व्यक्ति या कंपनी क्यूबा में होटल उद्योगमें 10 लाख अमेरिकी डालर का या नाइट क्लब में 20 लाख डाॅलर का निवेश करे।इससे अमेरिका में कैसिनो के धंधे में नियम कानूनों से परेशान कैसिनोमालिकों ने क्यूबा का रुख किया। जुए के साथ तमाम नये किस्म के अपराध औरअपराधी क्यूबा में दाखिल हुए। अमेरिका के प्रति चापलूस रहने में बटिस्टाका फायदा यह था कि अपनी निरंकुश सत्ता कायम रखने के लिए उसे अमेरिका सेहथियारों की अबाध आपूर्ति होती थी। यहाँ तक कि अमेरिकी राष्ट्रपतिआइजनहाॅवर के जमाने में क्यूबा को दी जाने वाली पूरी अमेरिकी सहायताहथियारों के ही रूप में होती थी। एक तरह से ये दो अपराधियों का साझा सौदाथा।आइजनहाॅवर की नीतियों का विरोध खुद अमेरिका के भीतर भी काफी हो रहा था।आइजनहाॅवर के राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी और उनके बाद अमेरिका के राष्ट्रपतिबने जाॅन एफ0 कैनेडी ने आइजनहाॅवर की नीतियों की आलोचना करते हुए कहा थाः’सारी दुनिया में जिन देशों पर भी उपनिवेशवाद हावी है, उनमें क्यूबाजितनी भीषण आर्थिक लूट, शोषण और अपमान किसी अन्य देश का नहीं हुआ है, औरइसकी कुछ जिम्मेदारी बटिस्टा सरकार के दौरान अपनाई गई हमारे देश कीनीतियों पर भी है।’ इसके भी आगे जाकर आइजनहाॅवर की नीतियों की आलोचनाकरते हुए कैनेडी ने क्यूबा की क्रान्ति का व फिदेल और उनके क्रान्तिकारीसाथियों का समर्थन भी किया।लेकिन यह समर्थन वहीं खत्म भी हो
गया जब उन्हें समझ आया कि क्यूबा की क्रांति सिर्फ एक देश के शासकों काउलटफेर नहीं, बल्कि वह एक नये समाज की तैयारी है और पूँजीवाद के बुनियादीतर्क शोषण के ही खिलाफ है, और इसीलिए उस क्रान्ति को समाजवाद के भीतर हीअपनी जगह मिलनी थी।बटिस्टा सरकार के दौरान जो हालात क्यूबा में थे, उनके प्रति एक ज़बर्दस्तगुस्सा क्यूबा की जनता के भीतर उबल रहा था। फिदेल कास्त्रो के पहले भीबटिस्टा के तख्तापलट की कुछ नाकाम कोशिशें हो चुकी थीं। विद्रोही शहीदहुए थे और बटिस्टा और भी ज्यादा निरंकुश। खुद अमेरिका द्वारा माने गयेआँकड़े के मुताबिक बटिस्टा ने महज सात वर्षों के दौरान 20 हजार से ज्यादाक्यूबाई लोगों का कत्लेआम करवाया था। इन सबके खिलाफ फिदेल के भीतर भीगहरी तड़प थी। जब फिदेल ने 26 जुलाई 1953 को मोंकाडा बैरक पर हमला बोल करबटिस्टा के खिलाफ विद्रोह की पहली कोशिश की थी तो उसके पीछे यही तड़प थी।अगस्त 1953 में फिदेल की गिरफ्तारी हुई और उसी वर्ष उन्होंने वह तकरीर कीजो दुनिया भर में ’इतिहास मुझे सही साबित करेगा’ के शीर्षक से जानी जातीहै। उन्हें 15 वर्ष की सजा सुनायी गई थी लेकिन दुनिया भर में उनके प्रतिउमड़े समर्थन की वजह से उन्हें 1955 में ही छोड़ना पड़ा। 1955 में ही फिदेलको क्यूबा में कानूनी लड़ाई के सारे रास्ते बन्द दिखने पर क्यूबा छोड़मैक्सिको जाना पड़ा जहाँ फिदेल पहली दफा चे ग्वेवारा से मिले। जुलाई 1955से 1 जनवरी 1959 तक क्यूबा की कामयाब क्रान्ति के दौरान फिदेल ने राउलकास्त्रो, चे और बाकी साथियों के साथ अनेक छापामार लड़ाइयाँ लड़ीं, अनेकसाथियों को गँवाया लेकिन क्यूबा की जनता और जमीन को शोषण से आजाद करानेका ख्वाब एक पल भी नजरों से ओझल नहीं होने दिया।
-विनीत तिवारीमोबाइल : 09893192740
(क्रमश:)
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नये मनुष्य, नये समाज के निर्माण की कार्यशाला: क्यूबा-3

हम कम्युनिस्ट नहीं हैं: फिदेल (1959)
1 जनवरी 1959 को क्यूबा में बटिस्टा के शोषण को हमेशा के लिए समाप्त करनेके बाद अप्रैल, 1959 में फिदेल एसोसिएशन आॅफ न्यूजपेपर एडिटर्स केआमंत्रण पर अमेरिका गये जहाँ उन्होंने एक रेडियो इंटरव्यू में कहा कि’मैं जानता हूँ कि दुनिया सोचती है कि हम कम्युनिस्ट हैं पर मैंनेबिल्कुल साफ तौर पर यह कहा है कि हम कम्युनिस्ट नहीं हैं।’ उसी प्रवास केदौरान फिदेल की साढ़े तीन घंटे की मुलाकात अमेरिकी उप राष्ट्रपति निक्सनके साथ भी हुई जिसके अंत में निक्सन का निष्कर्ष यह था कि ’या तोकम्युनिज्म के बारे में फिदेल की समझ अविश्वसनीय रूप से बचकानी है या फिरवे ऐसा कम्युनिस्ट अनुशासन की वजह से प्रकट कर रहे हैं।’ लेकिन फिदेल नेमई में क्यूबा में अपने भाषण में फिर दोहरायाः ’न तो हमारी क्रान्तिपूँजीवादी है, न ये कम्युनिस्ट है, हमारा मकसद इंसानियत को रूढ़ियों से,बेड़ियों से मुक्त कराना और बगैर किसी को आतंकित किए या जबर्दस्ती किए,अर्थव्यवस्था को मुक्त कराना है।’बहरहाल न कैनेडी के ये उच्च विचार क्यूबा के बारे में कायम रह सके और नफिदेल को ही इतिहास ने अपने इस बयान पर कायम रहने दिया। जनवरी 1959 सेअक्टूबर आते-आते जिस दिशा में क्यूबा की क्रान्तिकारी सरकार बढ़ रही थी,उससे उनका रास्ता समाजवाद की मंजिल की ओर जाता दिखने लगा था। मई में भूमिकी मालिकी पर अंकुश लगाने वाला कानून लागू कर दिया गया था, समुंदर केकिनारों पर निजी स्वामित्व पहले ही छीन लिया गया था। अक्टूबर में चे कोक्यूबा के उद्योग एवं कृषि सुधार संबंधी विभाग का प्रमुख बना दिया गया थाऔर नवंबर में चे को क्यूबा के राष्ट्रीय बैंक के डाइरेक्टर की जिम्मेदारीभी दे दी गई थी। बटिस्टा सरकार के दौरान क्यूबा के रिश्ते बाकी दुनिया केतरक्की पसंद मुल्को के साथ कटे हुए थे, वे भी 1960 में बहाल कर लिए गए।सोवियत संघ और चीन के साथ करार किए गए तेल, बिजली और शक्कर का साराअमेरिकी व्यवसाय जो बटिस्टा के जमाने से क्यूबा में फल-फूल रहा था, सरकारने अपने कब्जे में लेकर राष्ट्रीयकृत कर दिया। जुएखाने बंद कर दिए गए।पूरा क्यूबाई समाज मानो कायाकल्प के एक नये दौर में था।यह कायाकल्प अमेरिकी हुक्मरानों और अमेरिकी कंपनियों के सीनों पर साँप कीतरह दौड़ा रहा था। आखिर 1960 की ही अगस्त में आइजनहाॅवर ने क्यूबा पर सख्तआर्थिक प्रतिबंध लगा दिए। क्यूबा को भी इसका अंदाजा तो था ही इसलिए उसनेमुश्किल वक्त के लिए दोस्तों की पहचान करके रखी थी। रूस और चीन ने क्यूबाके साथ व्यापारिक समझौते किए और एक-दूसरे को पँूजीवाद की जद से बाहर रखनेमें मदद की।उधर अमेरिका में आइजनहाॅवर के बाद कैनेडी नये राष्ट्रपति बने थेजिन्होंने पहले आइजनहाॅवर की नीतियों की आलोचना और क्यूबाई क्रान्ति कीप्रशंसा की थी। उनके पदभार ग्रहण करने के तीन महीनों के भीतर ही क्रान्तिको खत्म करने का सीआईए प्रायोजित हमला किया गया जिसे बे आॅफ पिग्स केआक्रमण के नाम से जाना जाता है। चे, फिदेल और क्यूबाई क्रान्ति की प्रहरीजनता की वजह से ये हमला नाकाम रहा। सारी दुनिया में अमेरिका की इस नाकामषड्यंत्र की पोल खुलने से, बदनामी हुई। तब कैनेडी ने बयान जारी किया कियह हमला सरकार की जानकारी के बगैर और क्यूबा के ही अमेरिका में रह रहेअसंतुष्ट नागरिकों का किया हुआ है, जिसकी हम पर कोई जिम्मेदारी नहीं है।
कम्युनिस्ट कहलाना हमारे लिए गौरव की बात हैः फिदेल (1965)
उधर, दूसरी तरफ फिदेल को भी 1961 में बे आॅफ पिग्स के हमले के बाद यह समझमें आने लगा था कि अमेरिका क्यूबा को शांति से नहीं रहने देगा। पहले जोफिदेल अपने आपको कम्युनिज्म से दूर और तटस्थ बता रहे थे, दो साल बाद एकमई 1961 को फिदेल ने अपनी जनता को संबोधित करते हुए कहा कि ’हमारी शासनव्यवस्था समाजवादी शासन व्यवस्था है और मिस्टर कैनेडी को कोई हक नहीं किवे हमें बताएँ कि हमें कौन सी व्यवस्था अपनानी चाहिए, हम सोचते हैं किखुद अमेरिका के लोग भी किसी दिन अपनी इस पूँजीवादी व्यवस्था से थकजाएँगे।’1961 की दिसंबर को उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा कि ’मैं हमेशामाक्र्सवादी-लेनिनवादी रहा हूँ और हमेशा रहूँगा।’तब तक भी फिदेल और चे वक्त की नब्ज को पहचान रहे थे। चे ने इस दौरानसोवियत संघ, चीन, उत्तरी कोरिया, चेकोस्लावाकिया और अन्य देशों कीयात्राएँ कीं। चे को अमेरिका की ओर से इतनी जल्द शांति की उम्मीद नहीं थीइसलिए क्यूबा की क्रान्ति को बचाये रखने के लिए उसे बाहर से समर्थनदिलाना बहुत जरूरी था। क्यूबा तक आने वाली जरूरी सामग्रियों के जहाजरास्ते में ही उड़ा दिए जाते थे और क्यूबा पर अमेरिका के हवाई हमले कभीतेल संयंत्र उड़ा देते थे तो कभी क्यूबा के सैनिक ठिकानों पर बमबारी करतेथे। बेहद हंगामाखेज रहे कुछ ही महीनों में इन्हीं परिस्थितियों के भीतरअक्टूबर 1962 में सोवियत संघ द्वारा आत्मरक्षा के लिए दी गई एक परमाणुमिसाइल का खुलासा होने से अमेरिका ने क्यूबा पर अपनी फौजें तैनात कर दीं।उस वक्त बनीं परिस्थितियों ने विश्व को नाभिकीय युद्ध के मुहाने पर लाखड़ा किया था। आखिरकार सोवियत संघ व अमेरिका के बीच यह समझौता हुआ कि अगरअमेरिका कभी क्यूबा पर हमला न करने का वादा करे तो सोवियत संघ क्यूबा सेअपनी मिसाइलें हटा लेगा।अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रम और परिस्थितियों के भीतर अपना कार्यभार तय करतेहुए अंततः 3 अक्टूबर 1965 को फिदेल ने साफ तौर पर पार्टी का नया नामकरणकरते हुए उसे क्यूबन कम्युनिस्ट पार्टी का नया नाम दिया और कहा किकम्युनिस्ट कहलाना हमारे लिए फ़ख्ऱ और गौरव की बात है।
-विनीत तिवारीमोबाइल : 09893192740
(क्रमश:)
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नये मनुष्य, नये समाज के निर्माण की कार्यशाला: क्यूबा-4

क्यूबा का इंकलाबः एक अलग मामला
क्यूबा की क्रान्ति न रूस जैसी थी न चीन जैसी। वहाँ क्रान्तिकारीकम्युनिस्ट पार्टियाँ पहले से क्रान्ति के लिए प्रयासरत थीं और उन्होंनेनिर्णायक क्षणों में विवेक सम्मत निर्णय लेकर इतिहास गढ़ा। उनसे अलग,क्यूबा में जो क्रान्ति हुई, उसे क्यूबा की कम्युनिस्ट पार्टी का भीसमर्थन या अनुमोदन हासिल नहीं था। उस वक्त क्यूबा की कम्युनिस्ट पार्टीफिदेल के गुरिल्ला युद्ध का समर्थन नहीं करती थी बल्कि बटिस्टा सरकार केऊपर दबाव डालकर ही कुछ हक अधिकार हासिल करने में यकीन करती थी। लेकिनवक्त के साथ न केवल फिदेल ने क्यूबाई इंकलाब को सिर्फ एक देश के इंकलाबसे बाहर निकालकर उसे एक अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन की अहम तारीखबनाया बल्कि अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट बिरादरी ने भी क्यूबा के इंकलाबको साम्राज्यवाद से बचाये रखने में हर मुमकिन भूमिका निभाई।चे ग्वेवारा का प्रसिद्ध लेख ’क्यूबाः एक्सेप्शनल केस?’ क्यूबा कीक्रान्ति की अन्य खासियतों पर और समाजवाद की प्रक्रियाओं पर विलक्षणरोशनी डालता है।करिष्मा दर करिश्मा जनता की ताकत से1961 की 1 जनवरी को 1 लाख हाई स्कूल पास लोगों के साथ पूरे मुल्क कोसाक्षर बनाने का अभियान शुरू किया गया और ठीक एक साल पूरा होने के 8 दिनपहले ही क्यूबा को पूर्ण साक्षर करने का करिश्मा कर दिखाया। दिसंबर 22,1961 को क्यूबा निरक्षरता रहित क्षेत्र घोषित कर दिया गया। ऐसे करिश्मेक्यूबा ने अनेक क्षेत्रों में दिखाए और अभी भी जारी हैं। इंकलाब केतत्काल बाद जमीन पर से विदेशी कब्जे खत्म किए गए और बड़े किसानों वकंपनियों से जमीनें लेकर छोटे किसानों व खेतिहर मजदूरों को बाँटी गईं।इंकलाब के बाद के करीब बीस-पच्चीस वर्षों तक क्यूबा ने तरक्की की अनेकछलाँगें भरीं। बेशक सोवियत संघ व अन्य समाजवादी देशों के साथ सामरिक-व्यापारिक संबंधों की इसमें अहम भूमिका रही। गन्ने की एक फसल वाली खेतीसे शक्कर बनाकर क्यूबा ने सोवियत संघ से शक्कर के बदले पेट्रोल और अन्यआवश्यक वस्तुएँ हासिल कीं। उद्योगों का ही नहीं खेती का भी राष्ट्रीयकरणकरके खेतों में काम करने वाले मजदूरों को सामाजिक सुरक्षा, छुट्टियाँ,मुफ्त शिक्षा, इलाज की सुविधाएँ और बच्चों के लिए झूलाघर खोले गए।क्रान्ति के महज 7 वर्षों के भीतर क्यूबा की 80 फीसदी कृषि भूमि पर सरकारका स्वामित्व था। निजी स्वामित्व वाले जो छोटे किसान थे, उनके भी सरकारने जगह-जगह कोआॅपरेटिव बनाए और उन्हें प्रोत्साहित किया। सबके लिए भोजन,रोजगार, शिक्षा और सबके लिए मुफ्त इलाज की सुविधा ने क्यूबा को मानवविकास के किसी भी पैमाने से अनेक विकसित देशों से आगे लाकर खड़ा कर दियाथा।
मुश्किल दौर का मुकाबला क्रान्ति के औजारों से
सोवियत संघ के विघटन से निश्चित ही क्यूबा की अर्थव्यवस्था पर बहुतप्रतिकूल असर पड़ा। भीषण मंदी ने क्यूबा को अपनी चपेट में ले लिया। सोवियतसंघ केवल क्यूबा की कृषि उपज का खरीददार ही नहीं था बल्कि क्यूबा की ईंधनऔर रासायनिक खाद की जरूरतों का भी बड़ा हिस्सा वहीं से ही पूरा होता था।सोवियत संघ के ढहने से क्यूबा में रासायनिक खाद और कीटनाशकों की उपलब्धता80 फीसदी तक गिर गई और उत्पादन में 50 फीसदी से ज्यादा गिरावट आई। क्यूबाके प्रति व्यक्ति प्रोटीन और कैलोरी खपत में 30 फीसदी कमी दर्ज की गई।लेकिन क्यूबा इन सभी समस्याओं से बगैर किसी बाहरी मदद के जिस तेजी से फिरसँभला, वह क्यूबाई करिश्मों की गिनती को ही बढ़ाता है। अपने दक्ष वप्रतिबद्ध वैज्ञानिकों और लोगों के प्रति ईमानदार, दृढ़ राजनैतिकइच्छाशक्ति ने 1995 के मध्य तक अपनी कृषि को पूरी तरह बदल कर नये हालातोंके अनुकूल ढाल लिया। रासायनिक खाद के बदले जैविक खाद से खेती की जानेलगी। एक फसल के बदले विविधतापूर्ण फसल चक्र अपनाए गए। आज क्यूबा सारीदुनिया में जैविक खेती और जमीन का सही तरह से इस्तेमाल करने वाले देशोंमें सबसे आगे है।यही स्थिति ऊर्जा के क्षेत्र में भी हुई। सोवियत संघ से पेट्रोलियम कीआपूर्ति बंद हो जाने के बाद क्यूबा के वैज्ञानिकों व इंजीनीयरों ने बड़ेपैमाने पर सौर ऊर्जा और पनबिजली के संयंत्रों पर काम किया। कम बिजली खपतवाले रेफ्रीजरेटर, हीटर, बल्ब इत्यादि बनाए गए और आज क्यूबा वैकल्पिक वप्रकृति हितैषी ऊर्जा उत्पादन में भी दुनिया की अग्रिम पंक्ति में है।पश्चिमी यूरोप में प्रत्येक 330 लोगों की देखभाल के लिए एक डाॅक्टर है;अमेरिका में प्रत्येक 417 लोगों की देखभाल के लिए एक डाक्टर है, जबकिक्यूबा में प्रत्येक 155 लोगों की देखभाल के लिए एक डाॅक्टर है। क्यूबाजैसा छोटा सा देश 70 हजार से ज्यादा डाक्टर्स को प्रशिक्षित कर रहा है औरउन्हें दुनिया के हर हिस्से में मानवता की मदद के लिए भेज रहा है जबकिउससे कई गुना बड़ा अमेरिका करीब 64 से 68 हजार डाक्टरों का ही प्रशिक्षणकर पा रहा है।
-विनीत तिवारीमोबाइल : 09893192740
(क्रमश:)
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भाकपा के प्रदेशव्यापी आन्दोलन के कारण अस्पतालों के निजीकरण से पीछे हटी सरकार

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव मंडल ने प्रदेश सरकार द्वारा चार जनपदों के सरकारी अस्पतालों के निजीकरण को रद्द करने के फैसले को भाकपा के आन्दोलन का नतीजा बताते हुए भाकपा की प्रदेश में सभी जिला इकाइयों को बधाई दी है। ज्ञात हो कि भाकपा ने अस्पतालों के निजीकरण पर आन्दोलन छेड़ रखा था।
यहां जारी एक प्रेस बयान में भाकपा के राज्य सचिव डॉ. गिरीश ने कहा कि राज्य सरकार द्वारा अस्पतालों के निजीकरण, विद्युत वितरण व्यवस्था को विदेशी एवं निजी कम्पनियों को सौंपने शिक्षा के व्यवसायीकरण, उपजाऊ भूमि के अधिग्रहण को बढ़ावा देने एवं महंगाई को काबू करने में राज्य सरकार के स्तर से की जाने वाली कार्यवाही में उदासीनता बरतने जैसे ज्वलंत सवालों पर 1 जून से ही आन्दोलन चलाने का बिगुल फूंक दिया था। 1 जून को ही उन चारों जिलों में जहां अस्पतालों का निजीकरण किया जाना है भाकपा ने विरोध प्रदर्शन करते हुए राज्यपाल महोदय के नाम ज्ञापन जिलाधिकारियों को सौंपे थे। अन्य जिलों में भी उपर्युक्त सभी सवालों पर धरना, प्रदर्शनों, सभाओं, नुक्कड़ सभाओं तथा पद यात्राओं का सिलसिला जारी है जो 30 जून तक जारी रहेगा।
भाकपा राज्य सचिव ने अस्पतालों के निजीकरण के फैसले को रद्द करने पर गहरा संतोष जताया क्योंकि इन अस्पतालों के निजीकरण से गरीब जनता इलाज के अभाव में तड़प कर रह जाती और निजी अस्पतालों को जनता की और निरंकुश लूट का मौका मिलता।
लेकिन भाकपा ने राज्य ऊर्जा निगम के शनैः शनैः निजीकरण पर घोर आपत्ति दर्ज करायी है। डॉ. गिरीशने इस बात पर भी अफसोस जताया कि इसके लिये स्वयंः सरकार एवं उसके मंत्री जिम्मेदार रहे हैं। क्या वजह है कि एक साल के भीतर हरदुआगंज एवं परीक्षा में निर्माणधीन परियोजनाओं की चिमनियां ध्वस्त हो गई? क्या इसके लिये भारी भ्रष्टाचार और निर्माण कार्य की फ्रैंचाइजी निजी हाथों को सौंपने के सरकार के फैसले पर नहीं जाती? उन्होंने आरोप लगाया कि आगरा की विद्युत वितरण व्यवस्था निजी कंपनी ‘टोरंट’ को सौंपने के बाद वहां की विद्युत व्यवस्था तहस-नहस हो गयी है और सरकार वहां रामराज्य आने के थोथे दावे कर रही है।
भाकपा इन सभी सवालों पर आपना आन्दोलन जारी रखेगी और उसको और मजबूत बनाने पर विचार भी किया जायेगा, डॉ. गिरीश ने कहा है।
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गोडसे और कसाव

हाँ! उसे फांसी दे दे
मौत के घाट उतार दो उसको
उसने हत्या की है
नृशंस हत्या-आदमी की,
एक नहीं सैकड़ों
निर्दोष लोगों की
जान ली है उसने
जिन्हें वह जानता भी नहीं था
न थी उनसे उसकी कोई अदावत ही
कुछ लेना-देना भी नहीं था
उसका उनसे।
फिर भी बेरहमी से मार डाला उसने
सैकड़ों निर्दोष लोगों को
उसे फांसी दे दे
मौत के घाट उतार दो उसको।
लेकिन मैं सोच रहा हूं,
शायद
बेवजह ही सोच रहा हूं
और मेरा सोचना
शायद गलत भी हो
बेहद गलत।
शायद सांस्कृतिक राष्ट्रवाद
के खिलाफ भी हो
मेरा सोचना
और मुझे कोई सजा भी सुना दें
वे लोग
लेकिन
सोच को रोक कौन सकता है?
शायद मैं भी नहीं।
इसलिए जो सोच है
उसे आप सब से कह देना चाहता हूं
उसकी सजा जो भी मिलेगी/देखूंगा!
हालांकि मैं चाहता हूँ
कि उस नर पिशाच को
हर हाल फांसी दे दी जाय।
उसने किया ही है
ऐसा अपराध,
देश-धर्म-प्राकृतिक न्याय, इन्सान
और इन्सानियत के खिलाफ
खुल्लम खुल्ला जूर्म किया है
उसने,
उसे फांसी दे दी जाय।
लेकिन क्या वह मरेगा
इस तरह सिर्फ फांसी देने से
(यही सोच रहा हूँ)
ऐसे ही एक फांसी दी गयी थी
गांधी के हत्यारे, गोडसे को
तो क्या वह मरा?
क्या गांधी की हत्या की मंशा वाले
और गांधी की हत्या पर मिठाई बाँट कर खाने वाले
गोडसे-से खतम हो गये।
नहीं!
अभी कुछ दिनों पूर्व गुजरात में
नराधम गोडसे ही तो दिखा था,
हाँ! उसे फांसी दे दी जाय
बल्कि फांसी से गर कोई बड़ी सजा हो
वह दी जाय।
लेकिन/इससे
न गोडसे खतम होगा
न कसाब ही मरेगा
क्येांकि ये कोई हांड-मांस वाले आदमी नहीं है,
ये प्रायोजित अभियान हैं
और हैं संस्थागत जेहाद के विकृत संस्करण
ये देश-धर्म-इन्सान और इन्सानियत के खिलाफ
नफरत की कोख से पैदा हुए हैं,
और एक ही पाठ पढ़े हैं
दूसरे धर्म और कौम के लोग दुश्मन होते हैं
उन्हें मिटा देना चाहिए
स्वधर्म की रक्षा के लिए।
एक से शिक्षण शिविर से सीखा है
उन्होंने लाठियां भाजना
छूरा, भाला, गंड़ासा
यहां तक कि
बम और बन्दूकें चलाना
आदमी और आदमीयत को
मारकर मिटा देने के लिए।
इन्हें खतम करने के लिए
बंद करना होगा
उन शाखा शिविरों को
जो रोज-ब-रोज बना रहे हैं
आदमी की जेहनियत को
आदमी के खिलाफ
- प्रो. जे.के. सिंह
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भाकपा की जिला कौंसिल बैठक सम्पन्न

मुरादाबाद 6.6.2010। भाकपा की मुरादाबाद जिला काउन्सिल की बैठक असालतपुरा में का. नईम कुरैशी के निवास पर का. हरीश भटनागर की अध्यक्षता में हुई। जिला सचिव का. नेम सिंह ने विस्तृति रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए बताया कि आज पूरे विश्व में अमरीका का वर्चस्व होने के कारण पूंजीवाद के पक्ष में हवा बह रही है। विकासशील देशों के लिए निश्चय ही यह अच्छा संकेत नहीं है और काफी सजग रहने की जरूरत है। हमारा देश भी इस अमरीकी आंधी का बुरी तरह शिकार है। दिखावटी तौर पर विकास जरूर हो रहा है किन्तु उंगलियों पर गिनने के लायक ही चन्द लोग ही लखपति से करोड़पति, करोड़पति से अरबपति और अरबपति से खरबपति बनते जा रहे हैं।आम आदमी क्या मध्यम वर्गीय आदमी के लिए भी सामाजिक ताने बाने में गुजर बसर करना कठिन हो गया है। जिस तरह सोवियत संघ के ढह जाने से पूरी दुनिया में समाजवाद की भारी क्षति हुई और ले दे कर उसे विभिन्न रूपों में स्थापित करने के प्रयास किये जा रहे हैं। देश में वामपंथी आन्दोलन आजादी के बाद निश्चय ही कुछ राज्यों तक ही कारगर रूप में स्थापित हो चुका किन्तु माकपा ने समूचे वामपंथ को संजोने, सम्भालने और विकसित करने में भूमिका नहीं निभाई। वामपंथ का कमजोर होना देश की राजनीति और हित के लिए निश्चय ही विनाशकारी साबित हो। इस स्थिति में वामपंथ विशेषकर भाकपा व माकपा को बहुत सम्भल कर और जनता के हित में एकरूपता की लड़ाई को बिना किसी भेदभाव के स्पष्ट रूप से आगे बढ़कर लड़नी चाहिये। उन्होंने प्रदेश के अन्दर जंगल राज की एवं व्याप्त भ्रष्टाचार की ओर भी इशारा करते हुए कहा कि अधिकारी बेलगाम हो चुके हैं। सरकारी तन्त्र पूरी तरह जनहित की उपेक्षा कर रहा है। गरीबों की योजनायें महज सरकारी अफसरों एवं राजनेताओं की लूटमार का साधन बन चुकी हैं। कानून व्यवस्था पूरी तरह चरमरा रही है। सरकारी अस्पतालों को निजी हाथों में बेचने की साजिश कई जिलों में चली जा चुकी है।इन हालात में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को विशेष तौर पर आगे बढ़कर काम करना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि मुरादाबाद में जब भी सामूहिक वामपंथ का आन्दोलन का आव्हान हुआ दूसरी पार्टियों ने भाकपा से हटकर ही काम किया जो दुर्भाग्यपूर्ण रहा।स्थानीय मुद्दों पर जैसे - असालतपुरा का सलाटर हाउस, राशनिंग वितरण प्रणाली, महंगाई, बिजली का आभाव, कानून एवं व्यवस्था को दुरूस्त करने केसम्बन्ध में शीघ्र ही कुछ आन्दोलन छेड़ने का निश्चिय भी किया गया। सभा में का. नईम कुरैशी, फराईम, बाबू भाई, जमील अहमद, नथिया बेगम, भूरी बेगम, मुन्नी बेगम, शहनाज, अजय पाल सिंह यादव, ओम पाल सिंह, अशोक अग्रवाल, सतीश चन्द्र अग्रवाल, सलभ शर्मा, अकरम, अंसार, अरकात, रईस आलम आदि ने भी अपने विचार रखे। शीघ्र ही विभिन्न मुद्दों पर रैली, प्रदर्शन व धरनों का आयोजन किया जायेगा। (प्रस्तुति: नेम सिंह)
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जन समस्याओं को लेकर सड़कों पर उतरे कम्युनिस्ट

मुरादाबाद। प्रादेशिक समस्याओं की ओर जनता को लामबन्द कर आन्दोलन के लिये आकर्षित करने के उद्देश्य से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के तत्वाधान में आज रैली के आयोजन के साथ-साथ जिला मुख्यालय पर प्रदर्शन भी किया गया। मांगों के समर्थन में डीएम के माध्यम से मुख्यमंत्री को एक ज्ञापन भी भेजा गया।प्रान्तीय आह्वान पर असालतपुरा से शुरू हुई रैली स्टेशन रोड, चौक ताड़ीखाना, गंज गुरहट्टी, कोर्ट रोड होती हुई जिला मुख्यालय पहुंचकर सभा के रूप में परिवर्तित हुई। सभा को सम्बोधन के दौरान जिला सचिव कामरेड नेम सिंह ने कहा कि प्रदेश में चरम सीमा पर पहुंच चुकी महंगाई को केन्द्र एवं प्रदेश दोनों ही सरकारों ने पूरी तरह से नजरअंदाज कर रखा है। प्रदेश में भ्रष्टाचार का बोलबाला है, स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण कर जनता के आगे परेशानियां खड़ी की जा रही हैं। उन्होंने कहा कि पार्टी का यह आन्दोलन जनता को जागरूक करने के लिये है, जिससे कि जनता केन्द्र एवं प्रदेश सरकार को सबक सिखा सके। ज्ञापन के माध्यम से महंगाई पर काबू पाने के लिये व्यापक कदम उठाये जाने, स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण के प्रयास बंद कर स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत बनाने के लिये व्यापक कदम उठाये जाने, प्रदेश में बिजली उत्पादन बढ़ाये जाने, शिक्षा का निजीकरण एवं बाजारीकरण बन्द कराये जाने इत्यादि मांगे की गई हैं।इस मौके पर नईम फराईम, अकरम, जहीर, राजू, जमीन अहमद, नथिया बेगम, भूरी बेगम, हरीश भटनागर, अहसान ठेकेदार, महमूद अली, रईस आलम आदि मौजूद रहे।
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दशहरी गांव में कूड़ाघर न बनाने की भाकपा की मांग

लखनऊ 22 जून, 2010। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और फलपट्टी किसान वेलफेयर एसोसियेशन के नेताओं ने आज भाकपा राज्य सचिव डा. गिरीश के नेतृत्व में जनपद की काकोरी तहसील के दशहरी गांव का दौरा किया जहां कि ऐतिहासिक दशहरी वृक्ष के पास कूड़ाघाट बनवाने की सरकार की योजना है।प्रतिनिधिमंडल ने 150 वर्ष पुराने मदर ट्री दशहरी को देखा और कूड़ाघर के निर्माण से उस वृक्ष और उस क्षेत्र को होने वाली भारी हानि का जायजा लिया। प्रतिनिधिमंडल ने वहां किसानों और बाग मालिकानों से भी चर्चा की। प्रतिनिधिमंडल ने पाया कि यह दशहरी वृक्ष एक राष्ट्रीय धरोहर है जिसे राज्य सरकार नष्ट करने पर आमादा है। यह समूचा क्षेत्र फलपट्टी का भाग है और फलपट्टी अधिनियम के मुताबिक इस क्षेत्र में ऐसा कोई कार्य नहीं किया जा सकता जिससे इस पट्टी को हानि पहुंचे। इतना ही नहीं फलपट्टी के चारों ओर तीन कि.मी. चौड़ा भाग बफर जोन में आता है जिसमें भी उस अधिनियम के अनुसार फलपट्टी को हानि पहुंचाने वाला कोई कार्य नहीं किया जा सकता।वहां उपस्थित जन समुदाय को संबोधित करते हुये डा. गिरीश ने कहा कि सरकार को इस महत्वपूर्ण स्थल पर कूड़ा स्थल बनाने से बाज आना चाहिये और इसे कहीं दूसरी जगह ले जाना चाहिए। यह बाग मालिकानों, बागों, विदेशी व्यापार और पर्यावरण सभी दृष्टियों से उचित होगा। यह दशहरी प्रेमियों की भावनाओं का भी सवाल है। यह देश का एक पेटेण्ट आम है जो सारे विश्व में प्रसिद्ध है। हमारे प्रदेश और देश का नाम भी इससे जुड़ा है। यदि कूड़ा घर निर्माण की प्रक्रिया को रोका नहीं गया तो इस का तीखा विरोध किया जायेगा।प्रतिनिधिमंडल में डा. गिरीश के अतिरिक्त भाकपा के वरिष्ठ नेता का. अशोक मिश्रा, जिला सचिव मो. खालिक, सह सचिव का. ओ.पी. अवस्थी, फलपट्टी किसान वेलफेयर ऐसोसिएयेशन के संरक्षक मिर्जा एहतेशाम बेग, आमिर अब्बासी, नवाब जफर साहब आदि शामिल थे। दशहरी ग्राम के प्रधान श्री जसवन्त सिंह यादव एवं अन्य ग्रामवासियों ने प्रतिनिधिमंडल को महत्वपूर्ण जानकारी दी।
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नगर निकाय निर्वाचन पद्धति में अलोकतांत्रिक परिवर्तन का भाकपा द्वारा विरोध

लखनऊ। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव मण्डल ने पार्टी चिन्ह पर निकाय चुनाव न कराये जाने, नगर निकायों में नामित सदस्यों की संख्या-4 से बढ़ाकर 13 किये जाने की तथा उनको वोट का अधिकार दिये जाने जैसे कदमों की कठोर शब्दों में निन्दा करते हुए उन्हें तत्काल रद्द करने की मांग की है।उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री और महामहिम राज्यपाल को फैक्स भेजकर भा.क.पा. राज्य सचिव डॉ. गिरीश ने प्रदेश के नगर निकायों के सभासदों के चुनाव की उस नई नियमावली पर गहरी आपत्ति जतायी है जिसमें सरकार ने उपर्यक्त प्रावधान किये हैं। भाकपा ने इस बात पर गहरा आश्चर्य व्यक्त किया है कि संविधान से खिलवाड़ करने वाली इस कार्यवाही की सूचना राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त दलों तक को नहीं दी गई। यह तीनों ही प्राविधान घनघोर अलोकतांत्रिक है। जिस तरह राज्य सरकार ने गुपचुप तरीके से राजनैतिक दलों को बिना सूचना के नई नियमावली अधिसूचित की है वह भाकपा को कदापित स्वीकार नहीं है। अतएव भाकपा इन संशोधनों का तीखा विरोध करती है तथा इस अधिसूचना को तत्काल रद्द करने की मांग करती है।यहां जारी प्रेस बयान में डॉ. गिरीश ने आरोप लगाया है कि साम-दाम-दण्ड-भेद की नीति अपना कर बसपा ने डुमरियागंज का उपचुनाव भले ही जीत लिया हो, लेकिन वह अपने खिसकते जनाधार से बौखलाहट में आ गई है। इसीलिए बसपा सुप्रीमो ने पहले 2012 तक किसी भी उपचुनाव में भाग न लेने की घोषणा की और अब चोर रास्ते से नगर निकायों पर कब्जा करने की साजिश रच रही है। भाकपा इसका पुरजोर विरोध करेगी और समूचे प्रदेश में इसके विरोध में सड़कों पर उतरेगी।
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निजीकरण के खिलाफ बिहार के विद्युतकर्मी सड़क पर उतरे

पटना। बिहार सरकार एवं बिहार राज्य विद्युत बोर्ड के प्रबन्धक द्वारा राज्य की राजधानी, पटना, मुजफ्फरपुर में विद्युत आपूर्ति का जिम्मा (फ्रेन्चाइजी) सी.ई.एस.सी. कोलकाता को सौंपने सम्बन्धी प्रस्ताव के विरोध में बिहार राज्य विद्युत बोर्ड के कामगारों, अभियंताओं, पदाधिकारियों का एक बड़ा प्रदर्शन 25 मई को राज्य विद्युत बोर्ड मुख्यालय विद्युत भवन (पटना) पर हुआ और हजारों की संख्या में राज्य भर से आये विद्युत कर्मियों, अभियंताओं तथा अधिकारियों ने नारे बुलन्द किये। उनके प्रमुख नारों में विद्युत बेार्ड से फ्रेन्चाइचीज व्यवस्था को समाप्त करो। पटना तथा मुजफ्फरपुर को विद्युत आपूर्ति के लिये सी.ई.एस.सी. को मत बेचो। चुनाव फंड के लिये विद्युत उद्योग से खिलवाड़ बन्द करो। निजी कम्पनियों को बोर्ड के राजस्व की लूट की छूट देना बन्द करो, आदि आदि। प्रदर्शन के बाद प्रदर्शनकारियों की एक महती रैली हुई।बिहार स्टेट इलेक्ट्रिसीटी बोर्ड कमेटी ऑफ इलेक्ट्रिसीटी इम्पलाइज एण्ड इंजिनीयर्स के तत्वावधान में यह आयोजन हुआ जिसमें बिहार राज्य विद्युत बोर्ड के पदाधिकारियों, अधिकारियों एवं कामगारों की टेªड यूनियनें शामिल हैं। ज्ञातव्य है कि इसी कमेटी के अन्दर एकजुट होकर विद्युत कर्मियों ने विद्युत बोर्ड के विखंडन विरोधी लड़ाई लड़ी है। 27.02.2007 की हड़ताल में, मुकम्मिल हड़ताल में, बिहार बंद में, विद्युत आपूर्ति पूरी तरह बन्द हो गई थी और बिहार में भीषण संकट पैदा हुआ था।सरकार और प्रबंधन ने विद्युत कर्मियों की हड़ताल के अधिकार पर बंदिश लगाने की मांग माननीय पटना उच्च न्यायालय से की थी। परन्तु न्यायालय में जब विद्युत कर्मियों की बातें आईं तो फैसला विद्युतकर्मियों के पक्ष में आया। उनकी हड़ताल पर न तो बंदिश, न उनकी सेवा शर्तों, वेतन एवं पेंशन आदि सेवा निवृति लाभों में किसी तरह की तब्दील किसी भी हालत में बाते मानी गयी।लेकिन उसके बाद भी उस दिशा में कोई कार्रवाई सरकार ने अब तक नहीं की और राज्य की राजधानी पटना तथा राज्य का दूसरा बड़ा शहर मुजफ्फरपुर को सी.ई.एस.सी. कोलकाता को फ्रेन्चाइचीज पर देने का प्रस्ताव बनाकर 25 मई 2010 को मंत्रीमंडल की बैठक में स्वीकृति देने का फैसला लिया।इस संबंध में विद्युत बोर्ड के अध्यक्ष को विद्युत कर्मियों का ज्ञापन समर्पित किया गया। फिर एक शिष्टमंडल भी बोर्ड के अध्यक्ष से मिलकर सारी तथ्यात्मक बातों से उन्हें अवगत कराया लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला।महाराष्ट्र के शहर भिवन्डी की राह पर पटना एवं मुजफ्फरपुर को भी सी.ई.एस.सी. कोलकत्ता को सौंपने का प्रस्ताव बनाया गया। जबकि पटना, मुजफ्फरपुर भिवन्डी के बीच कोई समानता है ही नहीं। एक ज्ञापन में सारी बातें अध्यक्ष के सामने रखी गई जो इस प्रकार हैंः-1. भिवन्डी शहर में डिस्ट्रीब्युसन कंपनी द्वारा 1.45 रुपये प्रति यूनिट की औसत दर से राजस्व वसूली जाती थी जबकि वितरण फ्रेन्चाइजी को प्रथम वर्ष में 1.08 रुपये प्रति यूनिट की औसत दर पर सौंपा गया जिससे डिस्ट्रब्युसन कंपनी को भिवन्डी शहर सौंपने के पहले ही दिन 35 पैसे प्रति यूनिट का लाभ होना शुरू हो गया तथा एक वर्ष में लगभग 84 करोड़ रुपये का लाभ हुआ। जबकि बिहार राज्य विद्युत बोर्ड की वर्तमान में वसूली की दर 2.20 रुपये के स्थान पर 1.78 रुपये की दर पर पटना शहर (पेसू) को फ्रेन्चाइचीज को सौंपने पर लगभग 7.22 करोड़ रुपये का मासिक घाटा तथा 86.64 करोड़ रुपये का प्रथम वर्ष में ही घाटा होगा जो आने वाले वर्षों में बढ़ता ही चला जाएगा।2. भिवन्डी शहर को फ्रेन्चाइचीज पर सौंपने के समय 33 के.भी., 11 के.भी. तथा एल.टी. का आधारभूत संरचना जर्जर स्थिति में था तथा इसको सुधारने के लिए फ्रेन्चाइचीज को प्रथम दस महीनों में ही 122 करोड़ रुपये का निवेश करना पड़ा। जबकि पेसू की 33 के.भी. एवं 11 के.भी. का आधारभूत संरचना पर पूर्व में ही ए.पी.डी.आर.पी. तथा अन्य योजनाओं के तहत काफी कार्य हो चुका है जिसके कारण यह काफी हद तक सुदृढ़ स्थिति में है। अतः मूलतः एल.टी. लाइन, डिस्ट्रीब्युसन ट्रांसफार्मर, एल.टी. सिंगल फेज मीटरिंग तथा रख-रखाव हेतु लगभग 25 करोड़ रुपये के लागत से ही पूर्ण वितरण प्रणाली को सुदृढ़ किया जा सकता है।3. भिवन्डी शहर को फ्रेन्चाइचीज पर सौंपने के समय मीटरिंग की स्थिति जर्जर अवस्था में थी तथा केवल 23ः उपभेाक्ताओं के यहां सही मीटरिंग की व्यवस्था थी, जबकि पेसू के लगभग सभी उच्च विभव तथा निम्न विभव के उपभोक्ताओं के यहां हाइटेक स्टैटिक मीटर स्थापित है। सिंगल फेज के लगभग 50ः उपभोक्ताओं के यहां भी इलेक्ट्रोमेकेनिकल मीटर स्थापित है।4. भिवन्डी शहर को फ्रेन्चाइचीज पर सौंपने के समय डिस्ट्रब्युसन ट्रांसफार्मर के जलने की दर लगभग 40ः था, जबकि पेसू में वर्तमान में यह दर लगभग 15ः प्रति वर्ष है।5. भिवन्डी शहर को फ्रेन्चाइचीज पर सौंपने के समय कलेक्सन इफिसियेंसी लगभग 67ः प्रति माह था जबकि पेसू में यह दर लगभग 92.54ः प्रति माह है।6. भिवन्डी शहर को फ्रेन्चाइचीज पर सौंपने के समय तकनीकी एवं वाणिज्यिक हानि 58ः प्रति माह था जबकि पेसू में यह दर 37ः प्रति माह है।7. मुजफ्फरपुर शहरी क्षेत्र की भी स्थिति पेसू से ही मिलती जुलती है।इसके बाद भी पता नहीं क्यों सरकार अड़ी है कि वह बिहार में पटना, मुजफ्फरपुर से प्रारम्भ कर पूरे राज्य में विद्युत आपूर्ति का जिम्मा निजी कम्पनियों को सौंपेगी। नये विद्युत अधिनियम में यह व्यवस्था नहीं है कि किसानों, घरेलू उपभोक्ताओं, कुटीर ज्योति स्कीम के उपभोक्ताओं को रियायती दर पर या उनकी आर्थिक स्थिति के आधार पर विद्युत दर तय की जाय।एक तरफ विकास का नारा दूसरी ओर विद्युत आपूर्ति जैसे लोकोपयोगी सेवाओं को ठेकेदारों को सौंपना दोनों में कोई मेल नहीं है। अब तक 19 राज्य विद्युत बोर्ड़ो के विखंडन के बाद भी विद्युत आपूर्ति का जिम्मा 17 राज्यों में सरकार ही सम्भाले हुए हैं। उड़ीसा और दिल्ली जहां विद्युत आपूर्ति का जिम्मा बड़ी-बड़ी कम्पनियों को दिया गया है एक के बाद एक घोटाला सामने आ रहा है। जनता तथा उपभोक्ता तबाह हैं।रैली की अध्यक्षता श्री सी.एल. प्रकाश, पेसा अध्यक्ष ने की। रैली को संबोधित करने वालों में सभी श्रमिक संघों के पदाधिकारी श्री अरविन्द प्रसाद, सचिव पेसा, श्री भोला नाथ सिंह, महांमंत्री पेसा, चक्रधर प्रसाद सिंह, महासचिव, श्री डी.पी. यादव, उपमहासचिव, कपिलदेव यादव, अवर महासचिव, बिहार स्टेट इलेक्ट्रिक सप्लाई वर्कर्स यूनियन, श्री अमरेन्द्र प्रसाद मिश्र, महासचिव फिल्ड कामगार यूनियन, एस.एस.पी. यादव, कार्यकारी अध्यक्ष बिहार बिजली मजदूर यूनियन, महेश प्रसाद सिन्हा, महासचिव, बिहार पावर वर्कर्स यूनियन, नवल किशोर सिंह, महासचिव, बिहार राज्य विद्युत मजदूर यूनियन, उपेन्द्र चौधरी, तकनीकी कामगार यूनियन, अशोक कुमार महासचिव, प्रशासनिक पदाधिकारी संघ आदि ने अपने विचार व्यक्त करते हुए सरकार तथा बोर्ड प्रबंधन को चेतावनी दी कि यदि सरकार एवं प्रबंधन अपनी जिद पर कायम रहा तो पूरे बिहार में किसी भी समय से मुकम्मिल हड़ताल होगी जो 27.02.2007 की हड़ताल से भी गंभीर होगी।इसके बाद गगनभेदी नारों के साथ रैली की समाप्ति की घोषणा हुई।
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भाकपा ने जुलूस निकाल कर एसडीएम को सौंपा ज्ञापन

मंडी धनौरा: भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी कार्यकर्ताओं ने तहसील मुख्यालय पर धरना प्रदर्शन कर उपजिलाधिकारी को आठ सूत्री मांग पत्र सौंपा।भाकपा कार्यकर्ताओं ने पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार तहसील मुख्यालय पर धरना प्रदर्शन किया। आरोप लगाया कि चार वर्ष पूर्व डेढ़ करोड़ की लागत से बनाई गयी पानी की टंकी आज तक नहीं चली। इससे नगरवासियों को पेयजल की समस्या का सामना करना पड़ा रहा है। नगर में घटिया पाइप लगाने के कारण पाइप आए दिन फट जाते हैं जिससे जलापूर्ति बाधित रहती है।वक्ताओं ने कहा कि बाईपास मार्ग पर बनी पुलियों की हालत जर्जर है जिसे पीडब्लूडी विभाग द्वारा ठीक कराया जाए। बिजली की 16 घंटे आपूर्ति दी जाए। तहसीलदार कार्यालय में आय प्रमाण पत्रों में धांधली बरती जा रही है जिसे दूर किया जाए। आर्थिक लाभ योजना के जीओ की अवहेलना पर कड़ी कार्यवाही की जाए। इसके अलावा बीपीएल राशनकार्ड बनावाएं जाएं। इससे पूर्व भाकपा कार्यकर्ताओं ने बाईपास मार्ग पर जुलूस भी निकाला। ज्ञापन सौंपने वालों में नरेश कुमार, घसीटा सिंह, छोटे खां, चन्द्रपाल सिंह, शिवानंद द्विवेदी, ओमप्रकाश, सुरेश चन्द्र आदि मौजूद थे।
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बंद्योपाध्याय आयोग की सिफारिशें लागू कराने हेतु आर-पार की लड़ाई

9 मई 2010 को पटना में वर्ग संघर्ष का एक नया नजारा देखने को मिला। गांधी मैदान में राज्य के बड़े भूस्वामियों के नेतागण “किसान महापंचायत” बुलाकर ऐलान कर रहे थे कि डी. बंद्योपाध्याय भूमि सुधार आयोग की सिफारिशें लागू हुईं तो बिहार में “गृहयुद्ध” होगा। ठीक उसी समय पटना जंक्शन गोलंबर पर किसानों और खेतमजदूरों के नेता ऐलान कर रहे थे कि बंद्योपाध्याय भूमि सुधार आयोग की सिफारिशें लागू करा के रहेंगे और इसके लिए आर-पार की लड़ाई होगी।शासक पार्टी जदयू और विपक्षी राजद के बड़े भूस्वामी पक्षी नेताओं की इस “किसान महापंचायत” के जवाब में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) से संबद्ध किसान और खेत मजदूर संगठनों ने 9 मई को पूरे राज्य में “भूमि सुधार दिवस” मनाया। इस अवसर पर उन्होंने राज्य के सभी जिला मुख्यालयों पर धरना आयोजित करके राज्य सरकार से मांग की कि डी. बंद्योपाध्याय भूमि सुधार आयोग की सिफारिशें लागू करो।इसी क्रम में पटना में जंक्श्न गोलबंर पर संयुक्त धरना का आयोजन किया गया। आयोजक संगठन थे बिहार राज्य किसान सभा (अजय भवन), बिहार राज्य किसान सभा (जमाल रोड), बिहार राज्य खेत मजदूर यूनियन और बिहार प्रांतीय खेतिहर मजदूर यूनियन। धरनास्थल पर आयोजित सभा की अध्यक्षता बिहार राज्य किसान सभा के अध्यक्ष जलालुद्दीन अंसारी और बिहार राज्य खेतिहर मजदूर यूनियन के अध्यक्ष सारंगधर पासवान ने की।अपने अध्यक्षीय भाषण में सारंगधर पासवान ने कहा कि किसान महापंचायत के नाम पर बटाईदारी कानून का विरोध करना वास्तव में गरीबों पर हमला है। यह पंचायत बटाईदारों काअधिकार छिनने के लिए लगाई गयी है। उन्होंने आगे कहा कि जो यह कहते हैं कि राज्य में कोई बटाईदारी कानून नहीं है, वो झूठ बोल रहे हैं और भ्रम फैलाने का काम कर रहे हैं। सच्चाई यह है कि वर्षों से राज्य में बटाईदारी कानून है और न्यायालय का फैसला भी बटाईदारों के पक्ष में ही है। उन्होंने आगे यह आरोप लगाया कि वास्तव में किसान महापंचायत के आयोजक सरकार पर कब्जा करना चाहते हैं, उन्हें किसानों से कुछ लेना-देना नहीं है। उन्होंने अपने भाषण के अंत में यह विश्वास जताया कि बटाईदारों को हक दिलाने के लिए कार्यकर्त्ता हर कुर्बानी देंगे और जमीनचोरों को जमीन छोड़ने के लिए मजबूर करेंगे।अध्यक्षीय भाषण के बाद बिहार राज्य खेत मजदूर यूनियन के महासचिव जानकी पासवान ने उपस्थित कार्यकर्ताओं और आम जनता को संबोधित करते हुए कहा कि आज आयोजित किसान महापंचायत में आदमी से ज्यादा गाड़ियां आई हुई हैं। इससे सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि इस महापंचायत से कैसे लोग जुड़े हैं। किसान महापंचायत के बहाने भूमि-सुधार रोकने के लिए सभी बुर्जुवा दलों के सामंत एक हो गये हैं, उन्होंने अपने भाषण के अंत में यह चेतावनी दी कि भूमिपति और जमींदार ज्यादा दिनों तक भूमि पर नाजायज कब्जा नहीं रख सकते हैं। राज्य की मेहनतकश जनता जल्द ही सीलिंग से अतिरिक्त जमीन पर कब्जा करके रहेगी।इसके बाद बिहार राज्य किसान सभा के कोषाध्यक्ष का. रामाधार सिंह ने कहा कि बंद्योपाध्याय आयोग की रिपोर्ट आने के ठीक बाद से ही उसे लागू नहीं करने का राजनीतिक छल-प्रपंच और नाटक शुरू हो चुका है और इसी का एक नमूना आज भूपतियों द्वारा आयोजित किसान महापंचायत है। उन्होंने आगे कहा कि बंद्योपाध्याय आयोग की अनुशंसाओं के मुताबिक राज्य के भूमिपतियों के कब्जे में यही सीलिंग से अधिक जमीन को भूमिहीन किसानों में बांट दी जाए तो ऐसे प्रत्येक परिवार को एक एकड़ जमीन पर मालिकाना हक मिल जायेगा। रामाधार सिंह के बाद बिहार प्रांतीय खेतिहर मजदूर यूनियन के सचिव का. दिनेश कुमार ने कहा कि बिहार की वर्तमान सरकार सामंतो की सरकार है। बिहार का सही मायनों में विकास करने के लिए भूमिहीनों को जमीन उपलब्ध करवाना पहली शर्त है। इससे न सिर्फ गरीबों को सम्मान मिलेगा बल्कि इससे उत्पादन होगा, पूंजी पैदा होगी और इस पूंजी से उद्योग लगेंगे।सभा में टेªड यूनियन नेता का. अरुण कुमार मिश्र ने कहा कि वर्तामन सरकार खेती पर राज्य के कुल बजट का मात्र 1.5 प्रशित खर्च कर रही है। इससे पता चलता है कि यह सरकार मजदूर-किसानों की कितनी चिंता करती है। इसके बाद का. शिव शंकर शर्मा ने कहा कि हम समग्र भूमि-सुधार के लिए आंदोलन चला रहे हैं, बटाईदारों से जुड़े मामले उसका एक हिस्सा मात्र है। उन्होंने आगे यह स्पष्ट किया कि प. बंगाल में भूमि सुधार सिर्फ-सिर्फ इस कारण नहीं लागू हो गया था कि वहां पर किसी आयोग की सिफारिशें मौजूद थीं। पं. बंगाल में भूमि-सुधार लागू हुआ क्योंकि वहां खेतिहर मजदूरों और किसानों का सशक्त संगठन था और भूमि सुधार लागू करने की इच्छा रखने वाली एक प्रगतिशील और जनवादी सरकार थी। उन्होंने अपने भाषण के अंत में कहा कि वर्तमान में बिहार की जाति आधारित राजनीति अपने वर्ग चरित्र के आधार पर लामबंद हो रही है। यह वर्ग संघर्ष को तेज कर अंजाम तक पहुंचाने का एक अभूतपूर्व अवसर है।प्रतिरोध सभा में बिहार राज्य किसान सभा के प्रदेश सचिव अवधेश कुमार ने कहा कि किसान महापंचायत की असफलता दर्शाती है कि राज्य के गरीब किसानों, भूमिहीनों ने उनकी धमकियों का करारा जवाब दिया है। उन्होंने याद दिलाते हुए कहा कि कुछ दिनों पहले गरीबी पर हुए अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार में सभी विशेषज्ञों ने एक सुर में कहा कि बिहार के विकास के लिए भूमि सुधार पहली शर्त है। लेकिन यह सरकार न जनता की आवाज सुनने को तैयार है और नहीं विशेषज्ञों की सलाह। यह सरकार सिर्फ सभी को बरगला रही है। उन्होंने अंत में कहा कि हम आने वाले दिनों में इस आर-पार की लड़ाई को तेज कर आगामी वि.स. चुनावों में पूंजीवादी दलों को गर्त में डाल देंगे।सभा की अध्यक्षता कर रहे बिहार राज्य किसान सभा के अध्यक्ष एवं पूंर्व सांसद नेता जलालुद्दीन अंसारी ने कहा कि आज की महापंचायत में किसान नहीं, गरीब ढोकर लाये गये हैं। किसान महापंचायत के कर्त्ताधर्त्ता सत्ता पाने के लिए जनता को भ्रम में डाल रहे हैं। उन्होंने कहा कि हम फिर जमीन पर चढ़ेंगे। लड़े हैं। और आगे भी लड़ेंगे। उन्होंने जनता को चेताया कि वह जात-पात और धर्म की राजनीति करने वाले बटमार नेताओं से सावधान रहे। उन्होंने भूमि सुधार के संघर्ष को अंजाम तक पहुंचाने का संकल्प लेते हुए कहा कि लाल झंडे की लड़ाई हजारों एकड़ जमीन रखने वाले जमींदारों के खिलाफ है, छोटे किसानों के खिलाफ नहीं।प्रतिरोध सभा के अंत में भाकपा (मा) के प्रदेश सचिव विजयकांत ठाकुर ने कहा कि आज ही के दिन लाल झंडे की सेना ने हिटलर को नेस्ताबूद कर दिया था और एक बार फिर आज के ही ऐतिहासिक दिन बिहार के गरीब जनता और खेतिहर मजदूरों ने हिटलर की बिहारी औलादों, यहां के भूमिपतियों के मंसूबों को विफल करने का संकल्प लिया है। उन्होंने आगे कहा कि बिना भूमि सुधार के विश्व में कहीं भी विकास संभव नहीं हो पाया है इसलिए बिहार में भी ऐसा करना ही होगा। बिहार में हर साल दाखिल-खारिज संबंधी 5 लाख केस दाखिल होता है। बिहार की गरीब जनता को इस दुष्चक्र से बचाने के लिए भूमि सुधार जरूरी है। उन्होंने अपने भाषण के अंत में कहा कि जमीन किसानों की थी, है और रहेगी। अगर सरकार ने बंद्योपध्याय आयोग की अनुशंसाओं पर अमल नहंी किया तो हम खून-पसीना बहाकर इस पर अमल करने के लिए सरकार को मजबूर करेंगे। सारंगधर पासवान के धन्यवाद ज्ञापन के साथ प्रतिरोध सभा का समापन हुआ और इसके बाद उपस्थित जनता ने का. गजनफर नवाब की आवाज में आवाज मिलाते हुए क्रांतिकारी नारे लगाये।राजधानी पटना सहित राज्य भर में इस चिलचिलाती धूप में हजारों की संख्या में किसानों-मजदूरों ने प्रतिरोध सभा में इकट्ठा होकर यह ऐलान किया कि वह जमींदारों की हर चुनौती का सामना करने के लिए तैयार हैं। भूमि सुधार लागू करने के लिए हर कुर्बानी देने के लिए तैयार हैं। वाम दलों के कार्यकर्ताओं ने इस सभा के माध्यम से बंद्योपाध्याय आयोग की रिपोर्टाें को लागू कराने के लिए करो-मरो का संघर्ष शुरू कर दिया है।
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पुस्तक समीक्षा - समय ने जिसे मुहाजिर बना दिया

मैं मुहाजिर नहीं हूं (उपन्यास)
बादशाह हुसैन रिजवी
प्रकाशक- सुनील साहित्य सदन, नई दिल्ली।
तेज होते औद्योगिकरण ने बाजार को विस्तार दिया है। फैलता हुआ बाजार उद्योगों के लिए संजीवनी साबित हो रहा है। बाजार के साथ टेक्नालॉजी के विसमयकारी विकास ने जीवन में बहुत कुछ बदल दिया है। हमारे आस-पास की दुनिया में बहुत सारी चीजें गायब हो रही हैं कई नई चीजों का प्रवेश हो रहा है। गतिशील भूमंडलीकरण के कारण यह परिवर्तन इतनी तेजी से घटित हो रहा है कि उसके प्रति सहज स्वीकार का भाव उसी अनुपात में नहीं बन पा रहा है। जबकि यह बहाव आमतौर पर जीवन की ऊपरी सतह पर ही घटित हो रहा है। बादशाह हुसैन रिजवी का पहला उपन्यास “मैं मुहाजिर नहीं हूं“ परिवर्तन की इस प्रक्रिया और इसकी परिणितयों का एक बिल्कुल अलग स्तर पर घटित होने का अनुभव देता है। हालांकि इसके शीर्षक से तो यह अनुमान निकलता है कि पाकिस्तान में कुछ दशकों पूर्व तेज हुआ मुहाजिर-गैर-मुहाजिर विवाद इसकी विषय वस्तु का आधार होगा। इस बहाने उपन्सास में इस विवाद की कुछ जीवन्त उत्तेजक छवियां होगी और उस वेदना के गहरे बिम्ब, जो वहां मुहाजिर कहे जाने वाले लोग बर्दाश्त करते आये हैं। जबकि “मैं मुहाजिर नहीं हूं“ एक ऐसे शख्स की त्रासद कथा है जो रहने वाला तो सिद्धार्थनगर के प्रसिद्ध कस्बा हल्लौर का है, परन्तु परिस्थितियों ने जिसे पाकिस्तानी बना दिया है। दरअसल शम्सुल हसन रिजवी रेलवे में मुलाजमत के कारण सन् 47 में उस इलाके में सेवारत थे जो विभाजन के बाद पाकिस्तान का हिस्सा बन गया। नौकरी छोड़कर हिन्दुस्तान आने की रिस्क वह नहीं ले सके। फलस्वरूप हिजरत करके पाकिस्तान न जाने के बावजूद वह मुहाजिर बन गये। वक्त के मारे ऐसे व्यक्ति के जीवन में स्मृमियों का क्या महत्व होता है, बताने की जरूरत नहीं। अतः कथानक का ताना बाना स्मृति, स्वपन और यर्थाथ के साथ ही अवचेतन में पड़ी बहुत सी चीजों, विश्वास और शंकाओं के बीच दिलचस्प संघर्ष से बुना हुआ है। कारणवश तरल भावुकता, धनी संवेदनात्मक अनुभूतियां तथा वृतांत की जीवन्तता के कई-कई क्षणों से पाठक रूबरू होता है।मुहर्रम उपन्यास के केन्द्र में हैं। शम्सुल हसन लम्बे अन्तराल के बाद अपनी बीमार बहन को देखने हल्लौर आये हुए हैं। ऐसे में यादों का ताजा हो उठना तथा जिये हुए को एक बार फिर से जी लेने की इच्छा का किसी गहरी बेचैनी की तरह कुलबुलाना एक दम स्वाभाविक है। मुहर्रम की स्मृतियां उन्हें सम्मोहक अतीत की ओर ले जाती हैं, कस्बे की पुरानी पहचानों तक जाने की अकुलाहट देती हैं, वर्तमान की कड़वी सच्चाइयों से दो चार करती हैं तथा भविष्य की आशंकाओं से व्याकुल। इस प्रक्रिया में मुहर्रम तथा ग्रामीण जीवन के कई प्रसंग अपनी समूची धड़कनों के साथ सजीव हो उठते हैं। एक सांस्कृतिक प्रक्रिया भाषा और साहित्य भी जिसके प्रभाव से बचे नहीं रह सके, जिसकी सीमाएं धर्मजाति भूगोल के पार जाती हैं, कैसे कई इलाको-व्यक्तियों के जीवन का संचालक तत्व बना हुआ है, कैसे एक समुचे क्षेत्र के अर्थशास्त्र की वह केन्द्रीय धुरी है, शत्रुताओं से लेकर मित्रताओं तक, वैवाहिक सम्बन्धों से लेकर शिथिल पड़ रहे पारिवारिक रिश्तों के पुनर्जीवन तक, पुराने मूल्यों से लेकर अपनी शिनाख्त को बचाये रखने के संघर्ष तक किस बारीकी से उसके तार जुड़े हुए हैं, ग़म मनाने के दस दिनों का प्रभावपूर्ण बयान इन सबको समेटते हुए हमारे समय के जरूरी विमर्शों से भी टकराता है। छोटे-छोटे विवरण बड़े यथार्थ के उद्घाटन में प्रामणिक साक्ष्य की भूमिका निबाहते हैं। बहुत से पाठकों के लिए वे क्षण गहरे कष्ट से गुजरने जैसे हो सकते हैं, जब वो मर्सिया नोहा जैसे शोक गीतों को टेप-डेक, वी.सी.डी. के तेज वाल्यूम की चपेट में आता देखते हैं और पाते हैं कि अरब के पैसे व आपसी प्रतिस्पर्द्धा ने आस्था और विश्वास का भी व्यवसायीकरण कर दिया है।इस क्रम में उपन्यासकार हल्लौर कस्बे एवम् मुहर्रम से जुड़े कई विस्मृत पक्षों को भी उद्घाटित करता चलता है। जैसे प्रेमचंद के “प्रेम पच्चीसी“ का प्रथम प्रकाशन इसी कस्बे के प्रेस से हुआ था, या शोक प्रकट करने की वो गायन शैलियां, जैसे दाहा-झर्रा इत्यादि अथवा कुछ खास रस्मे-रिवायतें जिनका प्रचलन कम होता जा रहा है या तो विलुप्त सी हो गई हैं। वह पुस्तकालय भी जो कभी कस्बे की शान हुआ करता था। हां जीवन का साझापन अब भी बचा हुआ है। बावजूद इसके यह उपन्यास की सीमा नहीं है, वह उन खतरों की ओर संकेत करता है कि कैसे विश्वास और आस्थाएं कर्मकाण्ड और आडम्बर का रूप ग्रहण कर रही हैं, परम्पराएं रूढ़ियां बन गई हैं जो अन्ततः कुण्ठित युवा पीढ़ी के लिए भटकाव का कारण बनती है। इस सजगता के चलते ही उपन्यासकार भारतीय मुसलमानों में व्याप्त खास तरह के आत्मघाती नस्ली जातिवादी काम्पलेक्स पर चोट करने का जोखिम उठाता है। स्मृतियों का समकालीन यथार्थ से टकराव उस ताप से विचलित करता है, कोपेनहेगन के विराट सम्मेलन के बाद भी जिसमें फिलहालन कमी आने की संभावना नहीं है। अमरीका का खलनायकी चेहरा यहां आकार लेता दिखता है। मजबूती से गठा हुआ कथ्य भाषा की सादगी के बावजूद पाठक को आरंभ से अंत तक बांधे रखने में समर्थ है।
- शकील सिद्दीकी
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माओवादियों के वकील, कुछ तो बोलें

हमें उनकी “वाणी” का इंतजार है। माओवादियों के छोटे-बड़े वकील, विभिन्न दलों में या दलों के बाहर जो घोसला बना रखे हैं, मौका मिलते ही जिनकी श्रृंगालध्वनि से दिगंत गूंजने लगता है, जो माओवादियों को दलित-पीड़ित जनता के प्रतिनिधि मानते हैं, उन्हें जनता के गुस्से का मूर्तरूप मानते हैं, वही। उनसे हम सुनना चाहते है, खुद कुछ बोलना नहीं चाहते।हमारे बोलने के लिए बचा भी क्या है? कुछ नहीं। यह एक लोकतांत्रिक राष्ट्र है। इसकी लोकतांत्रिकता सिर्फ इसी हद तक सीमित है कि सरकार का विवेक आसानी से जाग्रत नहीं होता। सरकार संसदीय जोड़तोड़ में मशगूल रहती है। कभी ‘उधो’ तो कभी ‘माधो’ को लेकर सरकार चलाती रहती है। देश जाए भांड़ में। आप उत्तम नागरिक माने जाएंगे, अगर उनकी नींद में खलल नहीं डालें। अगर डाल दिए, तब आपको दरबान बुलाकर बाहर करवा दिया जाएगा।दान्तेवाड़ा में यात्री बस को माओवादियों ने उड़ दिया। कहा गया उस बस में यात्रियों के अलावे एस.पी.ओ. भी सफर कर रहे थे। एस.पी.ओ. यानि स्पेशल पुलिस अफसर। छत्तीसगढ़ सरकार ने विक्षुब्ध माओवादियों के बीच से इस बल का निर्माण किया था। लेकिन उस बस में निरीह ग्रामीण, उनके परिवार, उनके बच्चे भी तो थे। उन्हें क्यों निशाना बनाया गया? यह एक सवाल किसी ने नहीं पूछा। यहां तक कि तथाकथित मानवाधिकारवादियों ने भी नहीं। एस.पी.ओ. का नाम आते ही सबको जैसे सांप सूंघ गया।अब हावड़ा-कुर्ला ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस। 150 लोगों की मौत। लाशों के ढेर। इस टेªन में भी क्या एस.पी.ओ. सफर कर रहे थे?सच्चाई यही है कि गरीबों की दुर्दशा आदि से माओवादियों का कुछ भी लेना देना नहीं है। उन्होंने जन-समर्थन लेने के लिए क्रांतिकारी लबादा ओढ़ रखा है। और हां, इनके पास अवश्य ही वकीलों की एक अच्छी खासी फौज है। कौन नहीं है इस फौज में? हारे हुएविधायक, दरकिनार कर दिए गए राजनेता, पस्तहिम्मत लेखिका, दिल्ली में फंड के लिए इसके-उसके दरवाजे खटखटाजे गांधीवादी, सभी। जनता इन्हें झेलती है, केवल झेलती है। अपने आप में यह जमात भी एक जैविक उद्यान ही है। फर्क सिर्फ इतना है कि जैविक उद्यान में पशु पिंजरों में रहते हैं और इन्हें खुला छोड़ दिया गया है।अखबार में तस्वीर आई है (प्रभात खबर, 29.5 2010)। एक बच्ची की लाश को सुरक्षा बल के जवान उठाए हुए हैं। बच्ची का सर गायब है। जाहिर सी बात है कि माओवादी कहर में उसका सर लुप्त हो चुका है। मुझे लगा उस बच्ची की लाश हमारे शिशु लोकतंत्र का प्रतीक है। इस लोकतंत्र के शरीर का वह हिस्सा गायब हो चुका है, जहां मस्तिष्क हुआ करता है। इसीलिए इसे आनेवाले खतरों की आहट सुनाई नहीं देती।हावड़ा-कुर्ला ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस जहां काल-कवलित हो गया, वहां दो पेास्टर मिले हैं। “जनसाध रणेर कमिटी“ ने इस घटना की जवाबदेही स्वीकारी है। यह संगठन माओवादियों के मुखौटे के रूप में काम करता है, और इसे महाश्वेता देवी का वरदहस्त प्राप्त है। वही महाश्वेता देवी, जो कभी दलित जातियों के बंधुआ मजदूरों के प्रवक्ता रही हैं। आज जब पश्चिम मिदनापुर की आम जनता को माओवादी बंधुआ बनाये हुए है, तब शायद उन्हें मोतियाबिंद हो गया है।पर, हमारे सौभाग्य से, इतिहास की आंखों को कुछ नहीं हुआ। उसकी आंखें सब कुछ देख रही हैं। समय आने पर वह न्यायाधीश की कुर्सी पर बैठेगा और न्याय भी करेगा। अगर ऐसा नहीं होता, तो दुनिया कब के नर्क बन गयी होती। हिटलर सफल हो गया होता, मुसोलिनी अपनी रखैल के साथ सुख-चैन से होते। लेकिन हिटलर को, मुसोलिनी को जाना पड़ा। गणपति भी जाएंगे।
- विश्वजीत सेन
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दादरी के किसानों द्वारा मुआवजा वापस करने की अवधि बढ़ाने की भाकपा द्वारा मांग

लखनऊ 21 जून, 2010। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव डा. गिरीश ने मांग की है कि माननीय उच्च न्यायालय के आदेश पर दादरी विद्युत परियोजना के लिये अधिगृहीत जमीन को मुआवजे की राशि वापस कर वापस पाने की अवधि को आगे बढ़ाया जाये तथा वहां के आन्दोलकारी किसानों पर लगाये गये मुकदमें तत्काल वापस लिये जायें।यहां जारी एक प्रेस बयान में डा. गिरीश ने बताया कि उन्होंने इससम्बन्ध में प्रदेश सरकार की मुखिया को एक पत्र लिखा है जिसमें इस बात का उल्लेख किया है कि माननीय उच्च न्यायालय ने प्राप्त मुआवजे की राशि अदा करने वाले किसानों को अधिगृहीत जमीन को वापस करने का निर्देश दिया था। लेकिन अभी सारे किसान निर्धारित अवधि में मुआवजे की राशि वापस नहीं कर पाये हैं। अतएव किसान हित में इस अवधि को कम से कम तीन माह और बढ़ा दिया जाये।भाकपा राज्य सचिव ने सरकार से प्रश्न किया है कि जब किसानों के पक्ष को उचित मानते हुये उनकी जमीनें वापस करने का आदेश माननीय उच्च न्यायालय ने दे दिया है तो इस मुद्दे पर आन्दोलन करने वाले किसानों पर लगे मुकदमें जारी रखने का क्या औचित्य है? इन मुकदमों के कारण किसानों को भारी उत्पीड़न का सामना करना पड़ रहा है अतएव राज्य सरकार को इन मुकदमों को फौरन वापस ले लेना चाहिये।
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हमारे सैकड़ों भोपाल

भोपाल का हादसा हमारे हिंदुस्तान का सच्चा आइना है। भोपाल ने बता दिया है कि हम लोग कैसे हैं, हमारे नेता कैसे हैं, हमारी सरकारें और अदालतें कैसी हैं। कुछ भी नहीं बदला है। ढाई सौ साल पहले हम जैसे थे, आज भी वैसे ही हैं। गुलाम, ढुलमुल और लापरवाह! अब से 264 साल पहले पांडिचेरी के फ्रांसीसी गवर्नर के चंद सिपाहियों ने कर्नाटक-नवाब की 10 हजार जवानों की फौज को रौंद डाला। यूरोप के मुकाबले भारत की प्रथम पराजय का यह दौर अब भी जारी है। यूनियन कार्बाइड हो या डाऊ केमिकल्स हो या परमाणु हर्जाना हो, हर मौके पर हमारे नेता गोरी चमड़ी के आगे घुटने टेक देते हैं।आखिर इसका कारण क्या है? हमारी केंद्र और राज्य की सरकारों ने वारेन एंडरसन को भगाने में मदद क्यों की? कीटनाषक कारखाने को मनुष्यनाषक क्यों बनने दिया? 20 हजार मृतकों और एक लाख आहतों के लिए सिर्फ 15 हजार और पांच हजार रू. प्रति व्यक्ति मुआवजा स्वीकार क्यों किया गया? उस कारखाने के नए मालिक डाऊ केमिकल्स को शेष जहरीले कचरे को साफ करने के लिए मजबूर क्यों नहीं किया गया? इन सब सवालों का जवाब एक ही है कि भारत अब भी अपनी दिमागी गुलामी से मुक्त नहीं हुआ है। सबसे पहला सवाल तो यही है कि यूनियन कार्बाइड जैसे कारखाने भारत में लगते ही कैसे हैं? कोई भी तकनीक, कोई भी दवा, कोई भी जीवन-षैली पष्चिम में चल पड़ी तो हमें उसे आंख मींचकर अपना लेते हैं। हम यह क्यों नहीं सोचते कि यह नई चीज़ हमारे कितनी अनुकूल है। जिस कारखाने की गैस इतनी जहरीली है कि जिससे हजारों-लाखों लोग मर जाएं, उससे बने कीटनाषक यदि हमारी फसलों पर छिड़के जाएंगे तो कीड़े-मकोड़े तो तुरंत मरेंगे लेकिन क्या उससे मनुष्यों के मरने का भी अदृष्य और धीमा इंतजाम नहीं होगा? इसी प्रकार हमारी सरकारें आजकल परमाणु-ऊर्जा के पीछे हाथ धोकर पड़ी हुई हैं। वे किसी भी क़ीमत पर उसे भारत लाकर उससे बिजली पैदा करना चाहती हैं। बिजली पैदा करने के बाकी सभी तरीके अब बेकार लगने लगे हैं। यह बेहद खर्चीली और खतरनाक तकनीक यदि किसी दिन कुपित हो गई तो एक ही रात में सैकड़ों भोपाल हो जाएंगे। रूस के चेर्नाेबिल और न्यूयार्क के थ्रीमाइललाँग आइलेंड में हुए परमाणु रिसाव तो किसी बड़ी भयावह फिल्म का एक छोटा-सा ट्रेलर भर हैं। यदि हमारी परमाणु भट्रिठयों में कभी रिसाव हो गया तो पता नहीं कितने शहर और गांव या प्रांत के प्रांत साफ हो जाएंगे। इतनी भयावह तकनीकों को भारत लाने के पहले क्या हमारी तैयारी ठीक-ठाक होती है ? बिल्कुल नहीं। परमाणु-बिजली और जहरीले कीटनाषकों की बात जाने दें, हमारे देष में जितनी मौतें रेल और कारों से होती हैं, दुनिया में कहीं नहीं होतीं। अकेले मुंबई शहर में पिछले पांच साल में रेल-दुर्घटनाओं में 20706 लोग मारे गए। भोपाल में तो उस रात सिर्फ 3800 लोग मारे गए थे और 20 हजार का आंकड़ा तो कई वर्षों का है। यदि पूरे देष पर नज़र दौड़ाएँ तो लगेगा कि भारत में हर साल एक न एक भोपाल होता ही रहता है। इस भोपाल का कारण कोई आसमानी-सुलतानी नहीं है, बल्कि इंसानी है। इंसानी लापरवाही है। इसे रोकने का तगड़ा इंतजाम भारत में कहीं नहीं है। यूनियन कार्बाइड के टैंक 610 और 611 को फूटना ही है, उनमें से गैस रिसेगी ही यह पहले से पता था, फिर भी कोई सावधानी नहीं बरती गई। इस लापरवाही के लिए सिर्फ यूनियन कार्बाइड ही जिम्मेदार नहीं है, हमारी सरकारें भी पूरी तरह जिम्मेदार हैं। यूनियन कार्बाइड का कारखाना किसी देष का दूतावास नहीं है कि उसे भारत के क्षेत्रधिकार से बाहर मान लिया जाए। भोपाल की मौतों के लिए जितनी जिम्मेदार यूनियन कार्बाइड है, उतनी ही भारत सरकार भी है। जैसे रेल और कार-दुर्घटनाओं के कारण इस देष में कोई फांसी पर नहीं लटकता, वैसे ही वारेन एंडरसन भी निकल भागता है। एंडरसन के पलायन पर जैसी शर्मनाक तू-तू-मैं-मैं हमारे यहां हो रही है, वैसी क्या किसी लोकतंत्र में होती है? अगर भारत की जगह जापान होता तो कई कलंकित नेता या उन मृत नेताओं के रिष्तेदार आत्महत्या कर लेते। हमारे यहां बेषर्मी का बोलबाला है। हमारे नेताओं को दिसंबर के उस पहले सप्ताह में तय करना था कि किसका कष्ट ज्यादा बड़ा है, एंडरसन का या लाखों भोपालियों का? उन्होंने अपने पत्ते एंडरसन के पक्ष में डाल दिए? आखिर क्यों? क्या इसलिए नहीं कि भोपाल में मरनेवालों के जीवन की क़ीमत कीड़े-मकोड़े से ज्यादा नहीं थी और एंडरसन गौरांग शक्ति और श्रेष्ठता का प्रतीक था। हमारे भद्रलोक के तार अब भी पष्चिम से जुड़े हैं। दिमागी गुलामी ज्यों की त्यों बरकरार है। यदि एंडरसन गिरफ्तार हुआ रहता तो उसे फांसी पर चढ़ाया जाता या नहीं, लेकिन यह जरूर होता कि यूनियन कार्बाइड को 15 हजार रू. प्रति व्यक्ति नहीं, कम से कम 15 लाख रू. प्रति व्यक्ति मुआवज़ा देने के लिए मजबूर होना पड़ता। यह मुआवज़ा भी मामूली ही होता, क्योंकि अभी मेक्सिकों की खाड़ी में जो तेल रिसाव चल रहा है, उसके कारण मरने वाले दर्जन भर लोगों को करोड़ों रू. प्रति व्यक्ति के हिसाब से मुआवज़ा मिलने वाला है। असली बात यह है कि औसत हिंदुस्तानी की जान बहुत सस्ती है।यही हादसा भोपाल में अगर श्यामला हिल्स और दिल्ली में रायसीना हिल्स के पास हो जाता तो नक्षा ही कुछ दूसरा होता। ये नेताओं के मोहल्ले हैं। भोपाल में वह गरीब-गुरबों का मोहल्ला था। ये लोग बेजुबान और बेअसर हैं। जिंदगी में तो वे जानवरों की तरह गुजर करते हैं, मौत में भी हमने उन्हें जानवर बना दिया है। यही हमारा लोकतंत्र है। हमारी अदालतें काफी ठीक-ठाक हैं लेकिन जब गरीब और बेजुबान का मामला हो तो उनकी निर्ममता देखने लायक होती है। सामूहिक हत्या को कार-दुर्घटना- जैसा रूप देनेवाली हमारी सबसे बड़ी अदालत को क्या कहा जाए? क्या ये अदालतें हमारे प्रधानमंत्रियों के हत्यारों के प्रति भी वैसी ही लापरवाही दिखा सकती थीं, जैसी कि उन्होंने 20 हजार भोपालियों की हत्या के प्रति दिखाई है? पता नहीं, हमारी सरकारों और अदालतों पर डॉलर का चाबुक कितना चला लेकिन यह तर्क बिल्कुल बोदा है कि अमेरिकी पंूजी भारत से पलायन न कर जाए, इस डर के मारे ही हमारी सरकारों ने एंडरसन को अपना दामाद बना लिया। पता नहीं, हम क्या करेंगे, इस विदेषी पूंजी का? जो विदेषी पंूजी हमारे नागरिकों को कीड़ा-मकोड़ा बनाती हो, उसे हम दूर से ही नमस्कार क्यों नहीं करते? यह ठीक है कि जो मर गए, वे लौटनेवाले नहीं और यह भी साफ है कि जो भुगत रहे हैं, उन्हें कोई राहत मिलनेवाली नहीं है लेकिन चिंता यही है कि हमारी सरकारें और अदालतें अब भी भावी भोपालों और भावी चेर्नाेबिलों से सचेत हुई हैं या नहीं? यदि सचेत हुई होतीं तो परमाणु हर्जाने के सवाल पर हमारा ऊँट जीरा क्यों चबा रहा होता?
- डॉ. वेदप्रताप वैदिक
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प्रधानमंत्री के दस दिन

भोपाल गैस कांड एक ऐसी कहानी है जिसमें हम एक पतनशील समाज की सारी कुरूपताएं एक साथ देख सकते हैं। इसमें एक व्यापारिक कंपनी की अमानवीयता और गोरी चमड़ी की अहंमन्यता, चालबाज राजनीतिकों की बेशर्म कारगुजारियां, अमेरिकी घुड़की से सहमे भारतीय सत्ता-वर्ग की चरित्र, न्याय की तरफ से आंखे मूंदे, लकीर की फकीर बनी हमारी न्याय व्यवस्था और सामाजिक स्तर पर हमारी पतनशीलता के अविश्वसनीय नमूने मिलेंगे। इसमें सामान्य लोगों की असहायता और उनके असामान्य जीवट की कहानी भी मिलेगी।लेकिन अभी इन सबमें जाने का न तो वक्त है और न मनःस्थिति है। अभी तो एक ही बात है जिसकी तरफ हम सबका ध्यान जाना चाहिए और वह यह कि सात जून को भोपाल की स्थानीय अदालत ने भोपाल गैस कांड के आठ आरोपियों को जिस तरह जमानत दे दी, उसका आधार क्या है, और उसके बाद से आज तक इसके पीछे की कहानियां जिस शक्ल में बाहर आ रही है उनका जवाब किसके पास है। सबसे संवेदनशील सवाल यह बनाया जा रहा है कि यूनियन कार्बाइड के प्रमुख वारेन एंडरसन को देश से निकल भागने की गली कैसे मिली और किसके इशारे पर? इस सवाल की लाश पर सत्ता के गिद्ध तुरंत उतर आए और बगैर यह विवेक रखे कि इसमें कहीं हम भी शरीक हैं, एक दूसरे पर तोहमत लगाने का खेल शुरू हो गया। सत्तालोलुपता कितनी संवेदनहीन और राष्ट्रहित-घाती हो सकती है, इसे देखना और पचाना बहुत तकलीफदेह है।कांग्रेसियों की सबसे बड़ी कोशिश यह चल रही है कि भोपाल कांड का ठीकरा कहीं गांधी परिवार के सिर न फूटे। इसलिए वे यह बात बार-बार दोहरा रहे हैं कि एंडरसन के भारत से बाहर जाने की कोई जानकारी तब केप्रधानमंत्री राजीव गांधी को नहीं थी। अगर यह सच है तब कोई भी यह पूछेगा कि क्या राजीव गांधी प्रधानमंत्री बनने लायक थे? कैलेंडर देखें तो तीन दिसंबर 1984 को जहरीली मिक गैस का तांडव हुआ और हजारों लोग कीड़े-मकोड़ों की तरह दम तोड़ गए। भोपाल शहर किसी भयावह आतंक से घिर गया।अगले दिन चार दिसंबर को एंडरसन समेत कंपनी से जुड़े आठ लोगों की गिरफ्तारी हुई। दो हजार डॉलर के मामूली से मुचलके पर एंडरसन की उसी दिन रिहाई भी हो गई। इन दो तारीखों के बीच देश में ही नहीं सारी दुनिया में इस हादसे की खबर बिजली की तरह दौड़ गई। तो क्या देश के प्रधानमंत्री को उस घटना का पता नहीं चला और वे उसकी भयावहता का अनुमान नहीं कर सके? और क्या वे यह नहीं समझ सके कि देश के प्रधामंत्री के नाते उनका दायित्व बनता है कि इस हादसे के जिम्मेवार लोगों पर निगाह रखी जाए? उस वक्त के गृहमंत्री और उद्योग मंत्री की तो यह पक्की जिम्मेदारी थी कि उनकी नींद हराम हो जाती और वे अपने प्रधानमंत्री के साथ बैठ कर यह सुनिश्चित करते कि अपराध और अपराधियों के बारे में अभी हमें क्या रुख लेना है? हम जानना चाहते हैं कि क्या ऐसी कोई कार्रवाई हुई? हुई तो कब और क्या? इसका जवाब देने के बजाय मनीष तिवारी जैसों की बेसिर-पैर की बकवास हमें सुनाई जा रही है जो परिवार और पार्टी का भला करने के जगह उसका बुरा ही कर रही है। चार दिसंबर को एंडरसन की रिहाई हुई और आठ दिसंबर को वे दिल्ली होते हुए और राष्ट्रपति आदि से मिलते हुए, भारत को उसकी औकात बताते हुए अमेरिका चले गए।चार से आठ दिसंबर के बीच के पांच दिनों में भोपाल की सबसे बुरी स्थिति थी- जैसी न कभी देखी, न सुनी। क्या तब भी राजीव गांधी को पता नहीं चला कि इस मामले में कहां क्या हो रहा है? तब मध्यप्रदेश में भी कांग्रेस की ही सरकार थी और उनके खास विश्वसनीय अर्जुन सिंह मुख्यमंत्री की गद्दी पर विराजमान थे। क्या प्रधानमंत्री- मुख्यमंत्री ने इस भयानक हादसे के बारे में एक बार फोन पर बात करने की जरुरत भी नहीं समझी?कांग्रेस की तरफ से पहली हास्यास्पद कोशिश राजीव गांधी को इस मामले से अलग करने की हुई। फिर दूसरा दांव यह चला गया कि ठीकरा किसी और के सिर फोड़ा जाए। सबको लगा कि ऐसा सिर सिर्फ अर्जुन सिंह का है। लगना ठीक भी था, क्योंकि उनकी मानसिक-शारीरिक हालत अच्छी नहीं है, इसलिए उनका सिर भी अच्छी हालत में नहीं होगा, उनकी राजनीतिक संभावनाएं भी समाप्त हो चुकी हैं। इसलिए उन्हें निशाना बना कर बात को कहीं और मोड़ने की कोशिशें सफल होंगी। कांग्रेस के कई लोगों को लगा कि परिवार की नजर में चढ़ने का यही मौका। लेकिन राजीव गांधी के तत्कालीन सचिव पीसी अलेक्जेंडर के सीधे बयान और भोपाल के शासन-प्रशासन से जुड़े बड़ेआधिकारियों के बयानों से ऐसी तस्वीर बनी कि लगा कि अर्जुन सिंह को फंसाने की कोशिश ज्यादा की गई तो कहीं भी वे भड़क कर कुछ बयान न दे बैठें। इसलिए फिर बात व्यक्तियों से हटा कर व्यवस्था की तरफ लाई गई और कहा गया कि हमारी प्रशासकीय और न्याय व्यवस्था ऐसी सुस्त है कि जल्दी कोई निर्णय संभव नहीं हो पाता है।गरज यह कि सारा दोष तो लोकतंत्र का है जो गति से काम नहीं करता है। लेकिन भाई लोगों, तीन दिसंबर को हादसा हुआ और चार दिसंबर को गिरफ्तारी हो गई, राजनीतिक हस्तक्षेप से उसी दिन एंडरसन की रिहाई भी हो गई और आठ दिसंबर को वे, राजकीय विमान से भारत की राजधानी होते हुए, सबको हाय-हैलो कहते हुए अमेरिका चले गए, तो इससे अधिक तेजी क्या होती है? सवाल है कि यह तेजी कैसे आई? जवाब देते हैं 1984 के अर्जुन सिंह, और वह भी हादसे के बाद, यूनियन कार्बाइड के कारखाने को पार्श्व में लेते हुए, सिर पर कारखाने वालों का लोहे का टोप पहने हुए। वे कहते हैं कि हमें किसी को परेशान नहीं करना है... किसी को नाहक मुसीबत में नहीं डालना है... इसलिए हमने जमानत का फैसला लिया और एंडरसन से यह वादा भी लिया है कि जब सारे अपराध तय हो जाएंगे तब वे मुकदमे में सहयोग करने उपस्थित हो जाएंगे।गौर करें हम कि यह बात विपक्ष नहीं कह रहा है, तब के कंाग्रेसी मुख्यमंत्री और राजीव गांधी के खासमखास अर्जुन सिंह कह रहे हैं। मतलब कि एंडरसन को रिहा करने का फैसला खासे विचार-विमर्श के बाद हुआ था। किनके बीच विचार-विमर्श हुआ? एक तो अर्जुन सिंह थे, और दूसरे, पीसी अलेक्जंेडर की आंखों देखी के मुताबिक राजीव गांधी थे। अलेक्जेंडर कहते हैं कि भोपाल कांड पर विचार-विमर्श करने आए वरिष्ठ मंत्रियों के चले जाने के बाद, जब वे प्रधानमंत्री से विदा होकर चले, तब प्रधानमंत्री के साथ सिर्फ अर्जुन सिंह बैठे थे। मतलब विचार-विमर्श वहां हुआ और सबसे ऊपरी स्तर पर हुआ, और फिर कहीं जाकर, बकौल तब के जिला कलेक्टर मोती सिंह, राज्य के मुख्य सचिव ब्रह्मस्वरूप ने उन्हें और पुलिस अधीक्षक को बुला कर एंडरसन को रिहा करने का आदेश दिया।हैरानी इस बात की है कि भोपाल जैसे कांड के बाद कोई मुख्यमंत्री किस अधिकार से यह तय करता है कि उसे किसी अपराधी को परेशान नहीं करना है और उसे रिहा कर देना है? पहला काम पुलिस का है और दूसरा काम न्यायालय का है। क्या मुख्यमंत्री को किसी भी परिस्थिति में इन दोनों के काम खुद करने की इजाजत संविधान देता है?भोपाल की स्थानीय अदालत का हमें आभारी होना चाहिए कि उसने अपने एक ही फैसले से हमारे राजनेताओं का वह चेहरा उजागर कर दिया है जो खौफनाक भी है और अपराधग्रस्त भी। व्यवस्था की खामियों का सवाल जो उठाते हैं वे इस चालाकी में हैं कि शास्त्रीय बहस में उलझा कर मामले को दफना दिया जाए। लेकिन इस सवाल का जवाब क्या है कि यह जो भी व्यवस्था है, अच्छी या बुरी, आपकी ही बनाई हुई है। बुरी है तो इसे अच्छा बनाने के लिए और अच्छी है तो इसे और भी अच्छा बनाने के लिए हम आपको भोपाल और दिल्ली भेजते हैं। भोपाल कांड के बाद से आज तक वहां आठ सरकारें बन चुकी हैं। किसी ने किसी दूसरी से अलग किसी नजरिए से इस मामले पर विचार क्यों नहीं किया? सारे राजनेताओं के पास क्या एक-सा ही चश्मा होता है जिससे सत्ता की कुर्सी के अलावा दूसरा कुछ दिखाई नहीं देता है? और फिर यह भी कि जब आपके हित में होता है तब यही व्यवस्था तेजी से काम करने लगती है, और जब आपके हित में नहीं होता है तब मरे बैल सी बन जाती है जिसे जितना भी हुलकारो टस से मस नहीं होती।आप देखिए कि दिसंबर 1984 में हुई दुर्घटना के लिए मात्र दो माह में, फरवरी 1985 में भारत सरकार अमेरिकी अदालत में यूनियन कार्बाइड के खिलाफ 3.3 अरब डॉलर के हर्जाने का दावा करती है। इसे असामान्य तेजी से काम करना कहते हैं। लेकिन इसके बाद क्या? ऐसा लगता है जैसे यह सारी कसरत सिर्फ इसलिए थी कि कैसे भी गेंद एक बार अपने पाले में कर ली जाए, फिर खेल भी हमारा और नियम भी हमारे। फरवरी 85 से फरवरी 89 यानी पूरे चार साल तक मामले को लटका कर रखा गया, ताकि इसकी जान निकल जाए। इस बीच भोपाल की अदालत एंडरसन को अदालत में हाजिर होने का समन-दर-समन भेजती रही, लेकिन कोई जवाब नहीं आया। कोई पता करे कि क्या इस बीच में कभी अर्जुन सिंह ने अपने खास दोस्त, एंडरसन को खत लिखा कि दोस्त, अदालत में हाजिर हो जाओ, क्योंकि यही अपना समझौता था? चार साल पर्दे के पीछे जो भी नाटक चला हो, हमें फरवरी 1989 में अचानक बताया गया कि यूनियन कार्बाइड और भारत सरकार के बीच अदालत के बाहर समझौता हो गया है और भोपाल के लोगों को चार करोड़ सत्तर लाख डॉलर का मुआवजा मिलेगा। किसी ने नहीं बताया कि यह समझौता 3.3 अरब डॉलर की मांग से गिर कर चार करोड़ सत्तर लाख डॉलर कैसे हो गया?यहीं पर अदालतों और सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका की गहरी जांच जरूरी है। अब हमारे पूर्व मुख्यन्यायाधीश जेएस वर्मा अखबार में लिख रहे हैं कि तब के मुख्य न्यायाधीश अहमदी की पीठ ने मामले को समझने में और संविधान की व्याख्या में भी चूक की। माननीय वर्मा साहब को इतने वर्षों बाद इसका इल्म हुआ। उस रोज मरे और तब से रोज ही मारे जाते भोपाल के लोगों की तरफ अपनी जिम्मेवारी का उन्हें कभी एहसास नहीं हुआ? न्याय की देवी आंखों पर पट्टी बांधे रहती है, यह बहुत पुराना प्रतीक हो गया। नया प्रतीक तो यही है, और यही हो सकता है कि वह आंख-कान-मुंह खोल कर ही नहीं, बल्कि संवेदना से लबालब भरी अचल नहीं, चल देवी है जो किसी के पुकारने, चीखने या दम तोड़ने का इंतजार नहीं करती, अपनी जिम्मेवारी मान कर दौड़ पड़ती है। अपने संवैधानिक दायरे में सक्रिय न्यायपालिका ही वर्तमान चुनौतियों का मुकाबला कर सकती है।पता नहीं मनमोहन सिंह के लोग दस दिनों में क्या करेंगे। लेकिन अगर कुछ करने लायक है तो सिर्फ इतना कि यह तय किया जाए कि उस दिन के हादसे के लिए कौन जिम्मेवार था, और उसके बाद की सारी विफलता का जिम्मेवार कौन है। मुआवजे की रकम और उसकी अदायगी, उसमें हो रही लूट आदि का सवाल उठाने का यह वक्त नहीं है। पहले जिम्मेवारी तय हो जाए तो इन सारे सवालों के जवाब उसके ही पेट से बाहर आएंगे।
- कुमार प्रशांत
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दफन हो गया इंसाफ: सर्वोच्च न्यायालय सर्वांगीण परख करे

दिसंबर 1984 भोपाल गैस त्रासदी का वह काला दिन था, जिस दिन 15 हजार से ज्यादा लोग मौत के मुंह में दफन हो गये और लाखों पीढ़ी दर पीढ़ी संतृप्त रहने के लिये अभिशप्त हो गये और उसी तरह 7 जून 2010 इंसाफ के मंदिर में न्यायिक त्रासदी का वह काला दिन साबित हुआ, जिस दिन औद्योगिक इतिहास के इस भयंकरतम नरसंहार के अपराधी यूनियन कर्बाइड कंपनी के मुख कार्यकारी पदाधिकारी वारेन एंडरसन को सजा दिये बगैर अन्य छुटभैये आरोपियों को आम सड़क दुर्घटना के प्रावधानों के अंतर्गत महज लापरवाही बताकर लाखों पीड़ितों को न्याय देने से इंकार कर दिया गया। भोपाल गैस कांड के लाखों पीड़ितों के लिये यह सचमुच दोहरी त्रासदी का दिन है। गैस त्रासदी के बाद न्यायिक त्रासदी। औद्योगिक इतिहास के इस भयंकरतम नरसंहार के अपराधियों को सजा नहीं दे पाना भारतीय न्यायपालिका की संपूर्ण विफलता है।इस मामले के तत्कालीन सीबीआई प्रभारी डी.आर. लाल के मुताबिक उन्हें केन्द्र सरकार से स्पष्ट लिखित निर्देश दिये गये थे कि वह नरसंहार के मुख्य अपराधी वारेन एंडरसन पर कोई कार्रवाई नहीं करे। यद्यपि कानून मंत्री वीरप्पा मोइली ने फिर से जांच कराने का नया आश्वासन किया है, किंतु विदेशी कंपनियों पर प्रधानमंत्री की कृपादृष्टि के मद्देनजर इस आश्वासन पर भरोसा करना फिर से धोखा खाने के बराबर होगा। केन्द्र सरकार द्वारा गठित मंत्री समूह भी जनमानस को भरमाने तथा गरमाये मुद्दे को ठंडे बस्ते में डालने की कुटिल चाल के अलावा कुछ नहीं है।1991 के बाद सरकार की परिवर्तित नयी आर्थिक नीति के अनुकूल सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों में स्पष्ट परिवर्तन देखा जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय ने स्वयं ही अस्सी के दशक में दिये गये अपने तमाम फैसलों को उलट दिया है। ऐसा करके सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी स्वयं की गरिमा का परित्याग किया है। भोपाल गैस मामले में सर्वोच्च न्यायालय का दिया गया वह आदेश कि मामले को भारतीय दंड संहिता की धारा 304ए के मातहत ट्रायल किया जाय, ऐसा ही एक भ्रमित आदेश है जिसके चलते न्याय के मंदिर में ही न्याय की हत्या संभव हुई। सबको मालूम है कि धारा 304ए के तहत लापरवाही की सड़क दुर्घटनाओं का ट्रायल होता है। भोपाल का गैस रिसाव लापरवाही की सड़क दुर्घटना नहीं था। तथ्यों से प्रमाणित होता है कि संभावित दुर्घटना की पक्की जानकारी सभी जिम्मेदार लोगों को पहले से ही थी। इसे ‘लापरवाही’ के दायरे के तहत ट्रायल करने का आदेश देना न्यायिक अपराध ही कहा जायेगा। इसलिये न्यायपालिका में जनआस्था बनाये रखने के लिए उचित है कि सर्वोच्च न्यायालय अपने मूल अधिकार क्षेत्र का इस्तेमाल करते हुए इस मामले में स्वतः संज्ञान ले और पूरे मामले की सर्वांगीण परख करें। यह इसलिये भी आवश्यक है क्योंकि वैश्वीकरण के इस युग में भारत की धरती पर अपराध करके भाग जानेवालों को भारतीय धरती पर लाकर भारतीय न्यायालय के न्याय करने का सार्वभौम अधिकार प्रतिष्ठित किया जाना आजाद भारत की आजाद जनता का आत्म सम्मान सुरक्षित करने के बराबर है। यह भी जरूरी है कि इस न्यायिक गलती दुरूस्त करने के लिए संसद उचित कदम उठाये।
- सत्य नारायण ठाकुर
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दफन हो गया इंसाफ: सर्वोच्च न्यायालय सर्वांगीण परख करे

दिसंबर 1984 भोपाल गैस त्रासदी का वह काला दिन था, जिस दिन 15 हजार से ज्यादा लोग मौत के मुंह में दफन हो गये और लाखों पीढ़ी दर पीढ़ी संतृप्त रहने के लिये अभिशप्त हो गये और उसी तरह 7 जून 2010 इंसाफ के मंदिर में न्यायिक त्रासदी का वह काला दिन साबित हुआ, जिस दिन औद्योगिक इतिहास के इस भयंकरतम नरसंहार के अपराधी यूनियन कर्बाइड कंपनी के मुख कार्यकारी पदाधिकारी वारेन एंडरसन को सजा दिये बगैर अन्य छुटभैये आरोपियों को आम सड़क दुर्घटना के प्रावधानों के अंतर्गत महज लापरवाही बताकर लाखों पीड़ितों को न्याय देने से इंकार कर दिया गया। भोपाल गैस कांड के लाखों पीड़ितों के लिये यह सचमुच दोहरी त्रासदी का दिन है। गैस त्रासदी के बाद न्यायिक त्रासदी। औद्योगिक इतिहास के इस भयंकरतम नरसंहार के अपराधियों को सजा नहीं दे पाना भारतीय न्यायपालिका की संपूर्ण विफलता है।इस मामले के तत्कालीन सीबीआई प्रभारी डी.आर. लाल के मुताबिक उन्हें केन्द्र सरकार से स्पष्ट लिखित निर्देश दिये गये थे कि वह नरसंहार के मुख्य अपराधी वारेन एंडरसन पर कोई कार्रवाई नहीं करे। यद्यपि कानून मंत्री वीरप्पा मोइली ने फिर से जांच कराने का नया आश्वासन किया है, किंतु विदेशी कंपनियों पर प्रधानमंत्री की कृपादृष्टि के मद्देनजर इस आश्वासन पर भरोसा करना फिर से धोखा खाने के बराबर होगा। केन्द्र सरकार द्वारा गठित मंत्री समूह भी जनमानस को भरमाने तथा गरमाये मुद्दे को ठंडे बस्ते में डालने की कुटिल चाल के अलावा कुछ नहीं है।1991 के बाद सरकार की परिवर्तित नयी आर्थिक नीति के अनुकूल सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों में स्पष्ट परिवर्तन देखा जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय ने स्वयं ही अस्सी के दशक में दिये गये अपने तमाम फैसलों को उलट दिया है। ऐसा करके सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी स्वयं की गरिमा का परित्याग किया है। भोपाल गैस मामले में सर्वोच्च न्यायालय का दिया गया वह आदेश कि मामले को भारतीय दंड संहिता की धारा 304ए के मातहत ट्रायल किया जाय, ऐसा ही एक भ्रमित आदेश है जिसके चलते न्याय के मंदिर में ही न्याय की हत्या संभव हुई। सबको मालूम है कि धारा 304ए के तहत लापरवाही की सड़क दुर्घटनाओं का ट्रायल होता है। भोपाल का गैस रिसाव लापरवाही की सड़क दुर्घटना नहीं था। तथ्यों से प्रमाणित होता है कि संभावित दुर्घटना की पक्की जानकारी सभी जिम्मेदार लोगों को पहले से ही थी। इसे ‘लापरवाही’ के दायरे के तहत ट्रायल करने का आदेश देना न्यायिक अपराध ही कहा जायेगा। इसलिये न्यायपालिका में जनआस्था बनाये रखने के लिए उचित है कि सर्वोच्च न्यायालय अपने मूल अधिकार क्षेत्र का इस्तेमाल करते हुए इस मामले में स्वतः संज्ञान ले और पूरे मामले की सर्वांगीण परख करें। यह इसलिये भी आवश्यक है क्योंकि वैश्वीकरण के इस युग में भारत की धरती पर अपराध करके भाग जानेवालों को भारतीय धरती पर लाकर भारतीय न्यायालय के न्याय करने का सार्वभौम अधिकार प्रतिष्ठित किया जाना आजाद भारत की आजाद जनता का आत्म सम्मान सुरक्षित करने के बराबर है। यह भी जरूरी है कि इस न्यायिक गलती दुरूस्त करने के लिए संसद उचित कदम उठाये।
- सत्य नारायण ठाकुर
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अमरीका के दोहरे मापदंड

पिछले दिनों की दो घटनाओं से एक बार फिर उजागर हुआ है कि किस तरह अमरीका दोहरे मापदंड अपनाता है।26 मार्च को दक्षिण कोरिया का एक जहाज डूब गया था जिसमें 46 सेलर (नाविक) भी मारे गये। दक्षिण कोरिया ने तुरन्त ही उत्तरी कोरिया पर आरोप मढ़ दिया कि उसने उस जहाज को डुबा दिया है और युद्ध की भाषा बोलना शुरू कर दिया। आव देखा न ताव, अमरीका ने अपनी फौजों को भी वहां भेज दिया। युद्ध के बादल घिरने लगे और लगने लगा कि उत्तरी कोरिया के विरूद्ध युद्ध अब छिड़ा और तब छिड़ा। गनीमत ही रही कि युद्ध नहीं हुआ। यह था अमरीका का उत्तरी कोरिया के प्रति रूख! इसके बरअक्स एक दूसरा मामला देखें!30 मई को इóायल ने गाजा पट्टी में घेरेबंदी के शिकार लोगों के लिए सहायता सामग्री ले जाते हुए जहाजी बेड़े पर जिसमें सभी लोग निहत्थे थे- हमला कर दिया और अत्यंत मानवीय कार्य में लगे दर्जनों लोगों को मौत के घाट उतार दिया तो अमरीका ने उसकी निंदा करने से भी इंकार कर दिया।उत्तरी कोरिया ने दक्षिण कोरिया के जहाज को डुबोने के आरोप का खंडन किया था और इस घटना की स्वतंत्र जांच किये जाने की मांग की थी। रूस के राष्ट्रपति ने कोरिया महाद्वीप में तनाव को और अधिक बढ़ने से रोकने के लिए कोरिया की इस मांग पर विशेषज्ञों के एक दल को दक्षिण कोरिया भेजा। अब खबर आयी है कि वह विशेषज्ञ दल डूबे हुए जहाज के मलबे और अन्य उपलब्ध सबूतों की जांच करने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचा हे कि ऐसा कोई सबूत नहीं मिलता कि उत्तरी कोरिया पर इसका दोषारोपण किया जाये। कोरिया के संबंध में एक प्रमुख रूसी विशेषज्ञ डा. कोन्सटेंटिन अस्मोलोव के अनुसार दक्षिण कोरिया का यह जहाज संभवतः किसी दोस्ताना गोलाबारी की जद में आया। विशेषज्ञ दल के निष्कर्षों के संबंध में आधिकारिक बयान अभी आना बाकी है।
- आर.एस. यादव
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साम्राज्य एवं युद्व

दो दिन पहले मैंने संक्षेप में बताया था कि साम्राज्यवाद नशीली वस्तुओं के सेवन की अत्यंत गंभीर समस्या को हल करने में असमर्थ है जो विश्व भर में लोगों के लिए अनिष्टकारी साबित हो रहा है। आज में एक अन्य विषय पर चर्चा करना चाहता हूं जिसे मैं काफी महत्वपूर्ण समझता हूं।हाल में उत्तर कोरिया की जल सीमा में घटी घटना के बाद उस पर अमरीका द्वारा हमला करने का खतरा पैदा हो गया है। यदि चीनी गणराज्य के राष्ट्रपति संयुक्त सुरक्षा परिषद में इस बारे में किसी समझौते के लिए चल रही चर्चा के दौरान वीटो का इस्तेमाल करते हैं तो उसे टाला जा सकता है।लेकिन एक दूसरी और ज्यादा गंभीर समस्या है जिसका जवाब अमरीका के पास नहीं है और वह है वह बनाया हुआ विवाद जिसमें ईरान को शामिल किया गया है। राष्ट्रपति बाराक ओबामा ने 4 जून, 2010 को काहिरा में इस्लामिक यूनिवर्सिटी ऑफ अल-अजहर में जिस तरह का भाषण दिया उससे यह बात साफ नजर आती है। उनके भाषण की कापी प्राप्त होने के बाद मैंने अपनी प्रतिक्रिया में उसके अनेक अंशों का इस्तेमाल किया ताकि उसके महत्व को समझा जा सके। मैं उनमें कुछ का यहां उल्लेख करना चाहूंगा।“हम ऐसे समय में मिल रहे हैं जब अमरीका और विश्व भर में मुसलमानों के बीच काफी तनाव है...”“...उपनिवेशवाद ने अनक मुसलमानों के अधिकार और अवसर छीन लिया तथा शीत युद्ध जिसमें मुस्लिम बहुल देशों को उनकी आकांक्षाओं का ख्याल किये बिना अक्सर प्रॉक्सी के तौर पर इस्तेमाल किया गया...” यह और ऐसे ही अन्य तर्क प्रभावशाली लगे क्योंकि वे एक अफ्रीकी-अमरीकी राष्ट्रपति द्वारा कहे गये; ये कथन उन स्वयं प्रत्यक्ष सच्चाइयों को दर्शाते हैं जो 4 जुलाई, 1776 के फिलाडेल्फिया घोषणा पत्र में शामिल हैं।“मैं काहिरा में अमरीका और विश्व भर के मुसलमानों के बीच एक नई शुरूआत करने आया हूं जो आपसी हितों एवं आपसी सम्मान पर आधारित होगा....”“जैसा कि पवित्रव कुरान में कहा गया है, खुदा को याद करो और हमेशा सच बोलो...”“और अमरीका का राष्ट्रपति होने के नाते मैं अपनी यह जिम्मेदारी समझता हूं कि जहां भी नकारात्मक रूढ़िवादी इस्लाम है उसके खिलाफ संघर्ष करूं।”इस प्रकार उन्होंने विवादित मुद्दों पर बोलना जारी रखा जिनका संबंध अमरीका की नीतियों से है।“शीतयुद्ध के मध्य में अमरीका ने ईरान की लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गयी सरकार को उखाड़ फेंकने में भूमिका निभायी।”“इस्लामिक क्रांति के बाद से ही ईरान ने बंधक बनाने और अमरीकी सैनिकों एवं नागरिकों के खिलाफ हिंसा की भूमिका निभानी शुरू कर दी।”“इóाइल के साथ अमरीका का घनिष्ट संबंध जगजाहिर है। यहसंबंध टूटने वाला नहीं है।”“अनेक लोग शांति एवं सुरक्षा के ऐसे जीवन के लिए जो उन्हें कभी नसीब नहीं हुआ, वेस्ट बैंक, गाजा एवं पड़ोसी देशों में शरणार्थी शिविरों में जीवन व्यतीत कर रहे हैं।”हम सभी जानते हैं कि आज भी गाजा पट्टी में रहने वाले लोगों पर सफेद फोसफोरस एवं अन्य अमानवीय पदार्थ गिराये जाते हैं जैसा कि नाजी फासिस्ट किया करते थे। फिर भी ओबामा के कथन जीवंत एवं कभी-कभी गंभीर लगते हैं और क्योंकि उन्होंने विश्व के विभिन्न देशों की यात्रा के दौरान अपने ऐसे कथनों को दोहराया।31 मई को विश्व समुदाय यह देखकर चकित रह गया जब गाजा पट्टी से हजारों मील दूर अंतर्राष्ट्रीय जल में करीब एक सौ इóाइली सैनिकों ने हेलीकाप्टरों से उतरकर सैकड़ों निर्दोष एवं शांतिप्रिय लोगों पर गोलियां बरसानी शुरू कर दी जिसमें प्रेस रिपोर्टों के अनुसार 20 लोग मारे गये तथा अनेक घायल हो गये। जिन लोगों पर हमले किये गये उनमें कुछ अमरीकी भी थे जो अपनी ही मातृभूमि में घिरे हुए फिलिस्तीनियों के लिए राहत सामग्री ले जा रहे थे।जब ओबामा ने इस्लामिक यूनिवर्सिटी ऑफ अल अजहर में “ईरान की लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गयी सरकार को उखाड़ फेंकने” की चर्चा की तथा उसके तुरन्त बाद कहा, “इस्लामिक क्रांति के बाद से ही ईरान ने बंधक बनाने, अमरीकी सैनिकों एवं नागरिकों के खिलाफ हिंसा में भूमिका निभायी...” तो वे आयातुल्लाह खुमैनी के नेतृत्व में शुरू हुए उस क्रांतिकारी आंदोलन की बात कह रहे थे, जिसने पेरिस से और बिना किसी हथियार के दक्षिण एशिया में शक्तिशाली अमरीकी सेना को धूल चटा दी थी। दुनिया की सबसे बड़ी ताकत अमरीका सोवियत संघ के दक्षिण में स्थित उस स्थान पर अपना एक फौजी अड्डा बनाने के लालच में न पड़ता यह अत्यंत कठिन था।पांच दशक से भी पहले अमरीका ने पूरी तरह लोकतांत्रिक एक अन्य क्रांति को कुचल दिया था जब उसने ईरान के प्रधानमंत्री मोहम्मद मोस्सादेग की सरकार को उखाड़ फेंका था जो 24 अप्रैल, 1951 को प्रधानमंत्री चुने गये थे। उसी साल 1 मई को (ईरान की) सीनेट ने तेल उद्योग के राष्टीयकरण को मंजूरी दे दी जो कि संघर्ष के दौरान उनकी मुख्य मांग थी। उन्होंने कहा था, “विदेशों से कई वर्षों से चल रही हमारी समझौता वार्ता असफल साबित हुई है।”स्पष्टतः उनका आशय बड़ी पूंजीवादी शक्तियों से था जिनका विश्व अर्थव्यवस्था पर वर्चस्व है। ब्रिटिश पेट्रोलियम कंपनी जिसे पहले एंग्लो-ईरानियन आयल कंपनी से जाना जाता था, के अड़ियल रवैये के कारण ईरान ने उसे अपने कब्जे में ले लिया। कंपनी अपनी तकनीकी कर्मचारियों को प्रशिक्षित करने में असमर्थ थी। इंगलैंड ने अपने कुशल कर्मचारियों को वापस बुला लिया था तथा कल-पुर्जे एवं बाजार पर प्रतिबंध लगा दिया था। उसने ईरान के खिलाफ कारवाई करने के लिए अपनी नौ सेना को भी भेज रखा था। इसके फलस्वरूप ईरान का तेल उत्पादन 1952 के 24.4 मिलियन बैरेल से घटकर 1953 में 10.6 मिलियन बैरेल हो गया। ऐसी अनुकूल परिस्थिति देखकर सीआईए ने वहां सत्ता पलट कर दिया और प्रधानमंत्री मोस्सादेगको हटा दिया जिनका तीन साल बाद निधन हो गया। उसके बाद वहां राजतंत्र स्थापित कर दिया गया और ईरान की सत्ता अमरीका के एक शक्तिशाली सहयोगी के हाथ में सौंप दी गयी।अमरीका ने केवल यही चीज अन्य राष्ट्रों के साथ भी की है। जब से दुनिया के सबसे समृद्ध जमीन पर यह अमरीका देश बना है उसने अपने ही देश के मूल बाशिंदों के अधिकारों का सम्मान नहीं किया जो हजारों वर्षों से वहां रहे हैं या उन लोगों के अधिकार का भी सम्मान नहीं किया जिन्हें ब्रिटिश उपनिवेशवादी वहां गुलाम बनाकर लाये थे।चाहे जो हो, मुझे विश्वास है कि अमरीका के ईमानदर नागरिक इस तथ्य को समझते हैं।राष्ट्रपति ओबामा सच को नुकसान पहुंचाते हुए अनसुलझे विरोधाभासों को पाटने की कोशिश में चाहे सैकड़ों भाषण दें या अपनी सोची-समझी बातों को किसी चमत्कार के होने का सपना देखें, जबकि अनैतिक व्यक्तियों और संगठनों को रियायतें दी जा रही हैं। वे एक ऐसी काल्पनिक दुनिया का खाका भी खीेंच सकते हैं जो केवल उनके दिमाग की फितरत हो सकती है जिसे कि उनकी इस तरह की प्रवृत्तियों को जानने वाले उनके बेईमान सलाहकार उनके भाषणों में डाल देते हैं।दो अपरिहार्य सवाल पैदा होते हैंः क्या ओबामा बिना पेंटागन या इóाइल द्वारा जिनके व्यवहार से पता चलता है कि वह अमरीका के फैसले को नहीं मानता- ईरान के खिलाफ परमाणु हथियारों का इस्तेमाल किये बिना दोबारा राष्ट्रपति बन सकते हैं?उसके बाद हमारी धरती पर किस तरह का जीवन रह पायेगा?
- फिडेल कास्ट्रो रूज
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दूसरे देशों में अमरीका की बढ़ती दखलंदाजी

वाशिंगटनः आतंकी संगठन अलकायदा के खिलाफ लड़ाई के नाम पर अमरीका दुनिया में अपनी दखलंदाजी बढ़ाता जा रहा है। इस संबंध में एक रिपोर्ट के अनुसार अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अलकायदा और अन्य आतंकी संगठनों के खिलाफ छेड़ी खुफिया जंग के मद्देनजर दुनिया के 75 देशों में अमरीकी विशेष बलों की तैनाती को गोपनीय तौर पर मंजूरी दे दी है।एक अमरीकी अखबार में छपी रिपोर्ट के मुताबिक ओबामा के अमरीकी राष्ट्रपति का पद संभालने के पहले दुनिया के 60 देशों में विशेष अमरीकी बल तैनात थे। लेकिन अब यह संख्या बढ़कर 75 हो गई है। विश्व में करीब 220 देश हैं। इस लिहाज से देखें तो अब दुनिया के हर तीसरे देश में अमरीकी सैनिक किसी न किसी रूप में तैनात हैं।अखबार के अनुसार ओबामा से पहले के बुश प्रशासन के मुकाबले सार्वजनिक तौर पर ओबामा की पहचान अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न मसले हल करने के लिए वैश्विक सहभागिता और कूटनीति पर ज्यादा जोर देने की रही है। लेकिन अब यह जानकारी सामने आई है कि ओबामा ने चरमपंथी संगठनों, खासतौर पर अलकायदा के खिलाफ अभियान और आंतकियों के सफाए के लिए विभिन्न देशों में अमरीकी विशेष बलों की संख्या बढ़ाने पर जोर दिया है। ओबामा ने पिछले डेढ़ वर्षों में अलकायदा की सक्रियता वाले यमन और अफ्रीका महाद्वीप के कई देशों में अमरीकी सैनिकों की संख्या में खासा इजाफा किया है। पश्चिम और मध्य एशिया में भी अमरीकी खुफिया बलों की संख्या बढ़ाई गयी है। विभिन्न देशों में अमरीकी विशेष बलों के करीब 13 हजार जवान (प्रत्यक्ष तौर पर युद्ध में भाग ले रहे हैं यह अमरीकी सैनिकों से अलग) हैं। इनमें से नौ हजार अकेले अफगानिस्तान और पाकिस्तान में मौजूद हैं।अखबार के अनुसार ओबामा ने वित्तीय वर्ष 2011 के लिए विशेष अभियानों के बजट में 5.7 फीसदी बढ़ोत्तरी करने को कहा है। 2010 में ओबामा प्रशासन ने इस मद में 6.3 अरब डालर खर्च किए। अखबार कहता है कि ओबामा ने आतंकी साजिशों की भनक लगते ही विशेष बलों को पहले ही हमला बोलने की मंजरी दे दी है।उल्लेखनीय है कि बुश प्रशासन के दौरान अमरीकी बलों को ऐसी मंजूरी नहीं दी गई थी।
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देश की जरूरत है एक कृषि - आधारित वैकल्पिक आर्थिक नीति

वैश्वीकरण के फलाफल पर आयोजित 2006 के अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में शरीक होने के सिलसिले में मुझे चीन के दो बड़े शहर बीजींग और शंघाई में एक सप्ताह बिताने का मौका मिला था। चीन जैसे विशाल देश को समझने के लिये एक सप्ताह का समय कुछ भी नहीं है फिर भी जो बात हमें एक से ज्यादा मर्तबा जोर देकर बतायी गयी, वह यह कि चीन के समक्ष ऊंचा जीडीपी हासिल करने का लक्ष्य नहीं है, प्रत्युत इसके विपरीत चीन अपना वित्तीय स्रोत्र कृषि और देहात के विकास की ओर ज्यादा निवेशित कर रहा है। यह वह समय था जब चीन का जीडीपी दुनिया के सवोच्च शिखर पर कुलांचे मार रहा था। बीजिंग में पुराने बैगोडे खोजने से कहीं-कहीं दिख जाते थे और शंघाई का कहना ही क्या? पुराने शंघाई से अलग अत्याधुनिक नया शंघाई बनाया जा रहा है। नये और पुराने शंघाई के बीच हवाई और जलमार्गों के अलावा समुद्र के नीचे भूमिगत मार्ग भी प्रशस्त हैं। गगनचुंबी बहुमंजिली इमारतें तो इन दिनों बड़े शहरों की शान है, किंतु शंघाई की सड़कों पर बहुमंजिली फ्लाईओवर देखना मेरे लिये सचमुच नया था। चीन की दीवार देखकर जहां प्राचीनता का बोध होता है, वहीं नया शंघाई देखकर उत्तर आधुनिकता का विस्मय होता है।आधुनिक चीन के निर्माता देंग शियाओ पेंग का कहना था कि समाज के सभी वर्गों और तबकों का समान विकास एक साथ नहीं हो सकता। वे मानते थे कि विभिन्न तबकों का विकास आगे-पीछे होगा। आधुनिक चीन की विकास प्रक्रिया में देहात पिछड़ा। फलस्वरूप देहात से शहर की ओर लोग तेजी से भागने लगे। इसलिए चीन के योजनाकार अब देहात की ओर ध्यान दे रहे हैं। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के पिछले महाधिवेशन का दिशा निर्देश भी पिछडे़ कृषि क्षेत्र को उन्नत करने का है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपनी सरकार का रिपोर्ट कार्ड पेश करते हुए गर्व से बताया कि देश का जीडीपी 7.4 प्रतिशत है, जब कि योरपीय देश और अमेरिका पीछे हैं। उसी रिपोर्ट कार्ड में कृषि क्षेत्र की विकास दर शून्य के नीचे (-)0.7 प्रतिशत दर्ज है, जिसकी कोई कैफियत उन्होंने नहीं दी।भारत का औद्योगिक रूप से सबसे ज्यादा विकसित महाराष्ट्र का विदर्भ क्षेत्र भूख से क्यों तड़प रहा है? और महाराष्ट्र समेत विकसित प्रदेश कर्नाटक आंध्र और खुशहाल पंजाब के किसान क्यों आत्महत्या करने को विवश हैं? पशुपति से तिरुपति की बहुप्रचारित पट्टी के 700 जिले क्यों माओवादियों के प्रभाव में चले गये, जिसे मुक्त कराने के लिए गृहमंत्री चिंदबरंम सेना तैनाती की मांग करते हैं।देश के 87 करोड़ लोग 20 रुपये से कम पर गुजारा करते हैं तो बढ़ा हुआ जीडीपी का लाभ कहां जा रहा है? आंकड़ों के मुताबिक देश में 30 हजार नये करोड़पति हर साल पैदा हो रहे हैं। करोड़ों की लाश पर कुछेक सैकड़ों अरबपति और खरबपति बन रहे हैं तो जाहिर हे कि संविधान की मूलभूत भावना को दरकिनार करते हुए संपत्ति का संकेन्द्रण कुछेक व्यक्तियों के हाथों में तेजी से हो रहा है।कामरेड ज्योति बसु के निधन के बाद दिल्ली में आयोजित शोकसभा को सम्बोधित करते हुए सीटू महासचिव मुहम्मद अमीन ने (जो पश्चिम बंगाल सरकार में मंत्री रह चुके हैं और वर्तमान में सीटू के उपाध्यक्ष हैं) ‘आपरेशन बर्मा’ की कामयाबी का बड़ा ही जीवंत चित्रण किया। यह कामरेड ज्तोति बसु के प्रति सर्वोत्तम श्रद्धांजलि थी। आपरेशन बर्मा भूमि सुधार कार्यक्रम था, जिसके तहत बटाईदारी को कानूनी हक दिया गया। आपरेशन बर्मा के सफल कार्यन्वन से भाकपा (मा) का प्रदेश में विशालजनाधार प्राप्त हुआ। विगत तीस वर्षों से पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा सरकार अस्तित्व में है तो इसका श्रेय निश्चय ही कृषि क्षेत्र में हासिल की गयी वाममोर्चा सरकार की कामयाबियों को जाता है।कामरेड ज्योति बसु के अवकाश ग्रहण के बाद बुद्धदेव भट्टाचार्य के नेतृत्व में वाममोर्चा सरकार की प्राथमिकता में परिवर्तन आया। वाममोर्चा सरकार ने जिस नयी औद्योगिक नीति की घोषणा की है वह केन्द्र सरकार की आर्थिक नीति से भिन्न कोई विकल्प नहीं है। ऐसा दावा किसी ने किया भी नहीं है। सिंगुर आदि इलाके में उद्योग विस्तार के लिये भूमि अधिग्रहण का विरोध हुआ। फलस्वरूप पिछले लोकसभा चुनावों और हालिया स्थानीय निकाय में चुनाव परिणामों में वाममोर्चा की लोकप्रियता का घटता ग्राफ जाहिर है। इसके लिए ममता को दोष देना बेकार है। ममता विगत पांच दशकों से राजनीति में सक्रिय है। उसे पहले सफलता नहीं मिली तो आज वह क्यों कामयाब हो रही है।निश्यच ही, वैकल्पिक आर्थिक नीति का वामपंथी नारा लोगों को आकर्षित करता है, किन्तु इस वैकल्पिक आर्थिक नीति की ठोस रूपरेखा प्रस्तुत करने की विफलता वामपंथ की वह कमजोरी है जिसके चलते आर्थिक विकास का मनमोहनी मॉडल बेरोकटोक आगे बढ़ता जाता है। यह सही है कि भारत के टेªड यूनियन आंदोलन ने प्रारम्भ से ही नयी आर्थिक नीति का विरोध किया। भारतीय मजदूर वर्ग ने नई आर्थिक नीति के विरुद्ध अब तक 12 राष्ट्रव्यापी हड़तालें की हैं। यही नहीं विगत 5 मार्च को 10 लाख से ज्यादा श्रमजीवी जेल भरने के लिये सड़कों पर उतर आये। आगे फिर एक राष्ट्रव्यापी हड़ताल की तैयारी चल रही है, जिसमें इंटक, भामस समेत सभी केन्द्रीय टेªड यूनियनें शामिल हैं फिर भी यह प्रतिरोध टेªड यूनियनों की प्रकट सीमाओं के कारण जन आंदोलन का रूप ग्रहण नहीं कर रहा है। इसके लिये देहाती हित का प्रतिनिधित्व करनेवाली राजनीतिक दलों को आगे आना होगा।भारत कृषि प्रधान देश है। देश की 70 प्रतिशत आबादी देहात में रहती है। उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में यह औसत 80 से 90 के पास है। ऐसी स्थिति में वैकल्पिक आर्थिक नीति निश्चय ही कृषि आधारित होगी। किंतु इसके विपरीत देश की वर्तमान आर्थिक नीति के मनमोहनी मॉडल के केन्द्र में कार्पोरेट गवर्नेस है। कार्पोरेट गवर्नेस का सीधा अर्थ है वित्तपूंजी की इजारेदारी कायम करना। वित्तपूंजी की इजारेदारी व्यवहार में छोटी पूंजी और खुदरा व्यापार को लील रही है। साथ ही वित्तपूंजी कृषि क्षेत्र में भी अपने डंक फैला रही है और किसानों को भूमि से बेदखल कर रही है। मजे की बात यह है कि यह सब सरकारी संरक्षण में हो रहा है। उड़ीसा में पोस्को, उत्तर प्रदेश में अंबानी, पं. बंगाल में सिंगुर परिघटनायें इस तथ्य के गवाह हैं, जहां कार्पोरेट घरानों को भूमि पर कब्जा दिलाने के लिये सरकार ने किसानों का दमन किया है।वैश्वीकरण और मुक्त बाजार व्यवस्था में देश-देश के बीच तथा देशों के अंदर घनघोर विसमता और क्षेत्रीय तनाव पैदा किये है। यही नहीं देश के अंदर विभिन्न राज्यों और राज्यों के अंदर जिला-कस्बों के बीच भी इसने आर्थिक टकराव और सामाजिक बिलगाव पैदा किये हैं।यह सुखद संकेत है कि सभी केन्द्रीय टेªड यूनियनों ने आपसी मतभेद भुलाकर एक मंच पर इकट्ठे होकर समवेत स्वर में वैकल्पिक आर्थिक नीति बनाने की मांग उठायी है। उम्मीद की जाती है कि श्रमजीवी जनगण की एकता और एकताबद्ध संघर्ष से ऐसी वैकल्पिक आर्थिक नीति का मार्ग प्रशस्त होगा, जिसके मध्य में कृषि क्षेत्र की निर्णायक भूमिका रेखांकित होगी।
- सत्य नारायण ठाकुर
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यूनानी संकट का संदेश

यूनान से उपजे आर्थिक संकट ने एक बार फिर इस तथ्य को रेखांकित किया है कि विश्व जल्द राहत की सांस ले संवृद्धि पथ पर आगे बढ़ने वाला नहीं है। पहले अमरीका और अब यूनान में आर्थिक संकट का जो ज्वालामुखी फटा है उसकी चपेट में सारा विश्व है और सतही तौर पर तथा परंपरागत नुस्खों से उससे निजात मिलना कठिन है। यह मानना है प्रो. दानी रोद्रिक का, जिनकी गिनती संसार के स्पष्टवादी, ईमानदार अर्थशाóियों में होती है।रोद्रिक लेबनानी मूल के हैं। वे हारवर्ड विश्वविद्यालय में वर्षों से अर्थशाó के प्रोफेसर हैं। उन्हें अनेक अंतर्राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त हैं जैसे सोशल साईंस रिसर्च काउंसिल का अलबर्ट ओ हर्षमैन पुरस्कार। 1990 के दशक में जब नवउदारवादी रंग में सराबोर लोग भारत के लिए नेहरू के योगदान को विनाशकारी कह रहे थे तब रोद्रिक ने तर्कों और आंकड़ों के आधार पर नेहरू के योगदान को बहुमूल्य बतलाते हुए अनेक लेख लिखे थे जिनमें से एक मुंबई में प्रकाशित ‘इकानिक एंड पोलिटिकल वीकली’ में छपा था। उन्होंने रेखांकित किया था कि नेहरू के योगदान के बिना भारत में जनतंत्र नहीं पनपता, उसकी एकता और अखंडता समाप्त हो जाती और मजबूत आर्थिक आधारशिला नहीं रखी जाती। कहना न होगा कि उनकी स्पष्टवादिता ने नवउदारवादीविचारधारा के हिमायतियों को रूष्ट किया था। अभी-अभी उनका एक लेख ‘ग्रीक लेसंस फॉर वर्ल्ड इकानमी’ (विश्व अर्थव्यवस्था के लिए यूनानी सबक) ने तमाम नवउदारवादियों को अप्रसन्न कर दिया है। लेख प्रोजेक्ट सिंडिकेट द्वारा प्रसारित होकर सारे विश्व में अनेक भाषाओं की पत्र-पत्रिकाओं में छपा है। संभव है कि वर्तमान यूनान से उपजा संकट बहुत दिनों तक न चले और उसका कोई समाधान निकल आए मगर उससे समस्या पर अस्थायी रूप से काबू पाया जा सकता है, स्थायी रूप से नहीं क्योंकि दुनिया एक अजीब पेशोपेश में है। आर्थिक भूमंडलीकरण, राजनीतिक जनतंत्र और राष्ट्र राज्य को वह एक साथ रखना चाहती है मगर इन तीनों को एक साथ बनाए रखना असंभव है क्योंकि वे एक दूसरे के विरोधभासी हैं। उसे समझ में नहीं आ रहा कि किसको चुनें और किसको छोड़ें। इनमें कोई दो ही एक साथ रह सकते हैं। जनतंत्र राष्ट्र राज्य यानी राष्ट्रीय सार्वभौमिकता के साथ चल सकता है बशर्ते कि हम भूमंडलीकरण को नियंत्रित कर उसे काबू में रखंे। इसी तरह अगर हम जनतंत्र और भूमंडलीकरण को साथ-साथ रखना चाहते हैं तो हमें राष्ट्र-राज्य को दरकिनार करना होगा तथा अंतर्राष्ट्रीय कायदे-कानून को स्वीकार करना होगा।अपनी प्रस्थापना के समर्थन में रोद्रिक ने इतिहास का सहारा लिया है। भूमंडलीकरण का पहला दौर 1914 तक यानी प्रथम विश्वयुद्ध के आरंभ होने तक रहा। वह तब तक सफलतापूर्वक काम करता रहा जब तक आर्थिक और मौद्रिक नीतियां किसी भी देश के घरेलू राजनीति दबावों से मुक्त रहीं। वे नीतियां स्वर्णमान यानी गोल्ड स्टैंडर्ड से संबद्ध रहीं और उनका उद्देश्य पूंजी के एक देश से दूसरे देश में प्रवाह को उन्मुक्त करना था। कालक्रम में मजदूर आंदोलन के फैलने और शक्तिशाली होने तथा श्रमिकों को मताधिकार मिलने से राजनीति का दायरा बढ़ा। वह संभ्रांत लोगों के दायरे से निकली और जनराजनीति बन गई। घरेलू आर्थिक जरूरतों को तरजीह देने का दबाव बढ़ा और अंतर्राष्ट्रीय कायदे-कानूनों तथा प्रतिबंधों से टकराव होने लगा। उदाहरण के लिए स्वर्णमान से अलग होने के कुछ ही समय बाद ब्रिटेन ने अपने को दुबारा उससे जोड़ने की भरपूर कोशिश की मगर वह भूमंडलीकरण के 1914 से पहले का दौर वापस नहीं ला सका और अंततः उसे स्वर्णमान को 1931 में पूर्णतया छोड़ घरेलू परिस्थितियों के अनुकूल अपनी नीतियां बनानी पड़ी। लियाकत अहमद की बहुप्रशंसित रोचक पुस्तक ‘लार्ड्स ऑफ फाइनेंस’ में विस्तार से भूमंडलीकरण के प्रथम दौर के साथ स्वर्णमान की व्यवस्था के धराशायी होने तथा उससे उपजे गड्डमड्ड का विस्तृत वर्णन और विश्लेषण है।द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद एक बार फिर भूमंडलीकरण को पुनर्जीवित करने की कोशिश की गई। निर्विवाद रूप से पूजीवादी जगत में शीर्ष पर पहुंचे अमरीका के नेतृत्व में ब्रेट्टन उड्स व्यवस्था लागू की गई। सब राष्ट्रीय मुद्राओं को डालर से जोड़ा गया है। अमरीका ने डालर के मूल्य को स्थिर रखने और परिवर्तनीयता बनाए रखने की गारंटी दी। अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक को नई व्यवस्था चलाने का भार दिया गया। कह सकते हैं कि भूमंडलीकरण की यह नई व्यवस्था काफी सतही थी। ब्रेट्टन उड्स व्यवस्था 1970 के दशक में धराशायी हो गई। अमरीका डालर के मूल्य को स्थिर रखने में अक्षम रहा और वह अन्य प्रमुख पूंजीवादी देशों के साथ मिलकर बढ़ते अंतर्राष्ट्रीय पूंजी प्रवाह को नियंत्रित करने में विफल रहा।इसके बाद भूमंडलीकरण का तीसरा और वर्तमान दौर शुरू हुआ। सोवियत संघ के अवसान और गुट निरपेक्ष आंदोलन की समाप्ति के बाद उत्पन्न परिस्थितियों में कहा गया कि राष्ट्र-राज्य का जमाना लद चुका है। राष्ट्रीय सार्वभौमिकता को तिलांजलि देकर राज्यो को राजनैतिक संघ बनाना होगा जिससे आर्थिक एकीकरण की प्रक्रिया तेज हो। राष्ट्रीय सार्वभौमिकता से होने वाली क्षति को जनतांत्रिक राजनीति के ‘अतर्राष्ट्रीयकरण’ द्वारा पूरा किया जाएगा। इस प्रकार राष्ट्रों को भूमंडलीय संघ की ओर बढ़कर ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ का सपना साकार किया जाएगा। याद दिलाया गया कि गृहयुद्ध के बाद संयुक्त राज्य अमरीका मजबूत संघ बना जिससे घरेलू बाजार का विस्तार हुआ।इसी भावना से प्रेरित होकर अंततः यूरोपीय संघ बना। उत्तर अमरीकी देशों ने नाफ्टा की नींव रखी। दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों ने अपना संघ बनाया, अपने बाजार के विस्तार की प्रक्रिया आरंभ की। हमारे अपने यहां सार्क की नींव पड़ी। मगर राष्ट्रीय सार्वभौमिकता समाप्त या काफी कमजोर होने के बदले रोड़ा बन गई और राष्ट्रों की एकीकरण की प्रक्रिया को पीछे पलटने लगी। इसे हम अपने यहां सार्क की नगण्य प्रगति को देखकर जान सकते हैं। भारत और पाकिस्तान के बीच राजनैतिक मतभेद गहरा होता गया है। पाकिस्तान अपने यहां जमे हुए आतंकी संगठनों का सफाया करने में अक्षम है जिससे दोनों देशों के बीच आर्थिक सहयोग असंभव है।यूरोपीय देशों का संघ बन गया, बाजार का विस्तार हुआ तथा ब्रिटेन को छोड़ उसके सब सदस्य राष्ट्रों में एक ही मुद्रा यूरो का चलन हो गया। इसके बावजूद राष्ट्र-राज्य बने रहे तथा यूरोपीय क्षेत्र की अर्थव्यवस्था को अपना मजबूत राजनीतिक पाया नहीं मिल सका। परिणामस्वरूप यूनान को समान मुद्रा, एकीकृत पूंजी बाजार तथा संघ के अंदर मुक्त व्यापार के फायदे मिले। मगर मुसीबत की घड़ी में यूरोपीय केन्द्रीय बैंक से अपने आप ऋण पाने की सुविधा नहीं मिली।उदाहरण के लिए अमरीका के कैलिफोर्निया राज्य में मंदी के दौर में बेरोजगार लोगों को वाशिंगटन स्थित संघीय संस्थानों से अपने आप सहायता मिलती है। ऐसा अधिकार यूनान को प्राप्त नहीं है। उसके बेरोजगारों को ब्रसेल्स स्थित केन्द्रीय बैंक से स्वतः भत्ते नहीं मिल सकते। वे रोजगार की खोज में यूरोपीय संघ के अन्य सदस्य देशों में बेरोकटोक नहीं जा सकते। भाषाई एवं सांस्कृतिकअवरोध आड़े आते हैं। सरकार के दिवालिया होने के साथ यूनानी बैंकों और फर्मों को भी दिवालिया मानकर ऋण मिलने में दिक्कत आती है। साथ ही यूनान की राष्ट्रीय सार्वभौमिकता बरकरार रहने के कारण संघ को जर्मनी और फ्रांसीसी सरकारें उसकी आर्थिक विशेषकर बजटीय नीतियों के संबंध में कुछ भी नहीं कह सकती। जब तक क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां यूनानी सरकार को दिवालिया नहीं घोषित करतीं तब तक उसे अप्रत्यक्ष रूप से यूरोपीय केन्द्रीय बैंक से उधार लेने पर कोई रोक नहीं लगाई जा सकती। अगर यूनान ऋण की अदायगी नहीं करने का इरादा बना लेता है तो ऋणदाता यूनानी परिसंपत्तियों पर कब्जा नहीं जमा सकते और न ही वे अपनी कोई दावेदारी कानूनी तौर पर ठोक सकते हैं। इतना ही नहीं, यूनान को यूरोपीय संघ से बाहर जाने से नहीं रोका जा सकता।परिणामस्वरूप यूनान से उपजा आर्थिक संकट अत्यंत गहरा होता जा रहा है और उस पर पार पाने के रास्ते उलझाव भरे हो रहे हैं। यूरोपीय केन्द्रीय बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष ने यूनानी अर्थव्यवस्था को संकट से उबारने के लिए पैकेज तैयार किए हैं जिनके तहत यूनान को बजट घाटे, वेतन, मजदूरी, सामाजिक सुरक्षा के मद में होने वाले खर्च में भारी कटौती करनी होगी। फलतः मजदूर वर्ग और आम जनता नाराज हैं तथा उनका प्रतिरोध बढ़ रहा है। इससे बचाव के पैकेज की सफलता संदेह के घेरे में है।स्पष्टतया राष्ट्रीय सार्वभौमिकता और भूमंडलीकरण के बीच भारी टकराव पैदा होने के संकेत मिल रहे हैं। कहना न होगा कि मजदूर वर्ग, आम जनता और यूनान की घरेलू राजनीति की जरूरतों से भूमंडलीकरण मात हो जाएगा। वयस्क मताधिकार पर आधारित कोई भी जनतांत्रिक सरकार अपने को संकट में डाल भूमंडलीकरण के आगे घुटने नहीं टेक सकती और इस तरह अगर भूमंडलीकरण के वर्तमान दौर के आगे विराम लग जाए तो कोई आश्चर्य नहीं होगा।
- डा. गिरीश मिश्र
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