भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रकाशन पार्टी जीवन पाक्षिक वार्षिक मूल्य : 70 रुपये; त्रैवार्षिक : 200 रुपये; आजीवन 1200 रुपये पार्टी के सभी सदस्यों, शुभचिंतको से अनुरोध है कि पार्टी जीवन का सदस्य अवश्य बने संपादक: डॉक्टर गिरीश; कार्यकारी संपादक: प्रदीप तिवारी

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सोमवार, 12 जुलाई 2010

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय परिषद की मीटिंग, हैदराबाद, 12 से 14 जून, 2010 द्वारा पारित राजनीतिक प्रस्ताव

प्रस्तावानाः
राष्ट्रीय परिषद की पिछली बैठक (दिसम्बर, 2009, बंगलौर) के बाद राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अनेक आर्थिक और राजनैतिक घटनाक्रम हुए है, जिनमें कुछ निश्चित आर्थिक एवं राजनैतिक रूझानों के संकेत मिलते हैं, जिनके कुल मिलाकर राजनैतिक व्यवस्था पर दूरगामी परिणाम होंगे। आर्थिक संकट ने विश्व भर में पूंजीवादी आर्थिक नव-उदारवाद को जकड़ लिया है और उसमें एक नया मोड़ आ गया है जिससे आर्थिक स्थिति और अधिक जटिल तथा खराब होगी। इसका निश्चित रूप से विकासशील देशों पर प्रभाव पडे़गा, खासकर चीन और भारत जैसी उभरती आर्थिक व्यवस्थाओं पर जिनकी मजबूती के कुछ आसार दिखाई दे रहे हैं। देश के अंदर यूपीए-दो इस गलत धारणा को पालते हुए कि उसकी आर्थिक नीतियां देश को विकास के रास्ते पर ले जा रही हैं, वह शर्मनाक ढंग से आर्थिक नव-उदारवाद के रास्ते पर चल रही हैं, जिसके कारण बढ़ती महंगाई (मुद्रा स्फीति), के गहराते कृषि संकट और बेराजगारी, मजदूरी में कटौती एवं लगभग सभी क्षेत्रों में छंटनी के रूप में आम लोगों की परेशानियां बढ़ गई हैं।
राजनैतिक क्षेत्र में यूपीए-दो का संकट बना हुआ है क्योंकि उसे अपने अस्तित्व मात्र के लिए बाहर से समर्थन निर्भर करना पड़ रहा है (लोक सभा में यूपीए-दो को बहुमत का समर्थन प्राप्त नहीं है)। इसके अलावा लगातार कटुता तथा घटक दलों द्वारा ब्लैकमेल जारी है। व्यापक भ्रष्टाचार ने, खासकर घटक दलों के मंत्रियों के द्वारा किये जा रहे भ्रष्टाचार से शासन मजाक बनकर रह गया है।
लोकसभा में मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा मुद्दे उठाने के लिए अभी भीअंधेरे मंे तीर मार रही है क्योंकि मुख्य आर्थिक एवं राजनैतिक मुद्दों पर शासक पार्टी और उसके बीच मतभेद बहुत कम है। वास्तव में अधिकांश बुर्जुआ राजनैतिक दलों ने, चाहे वे राष्ट्रीय हैं या क्षेत्रीय दल, भूमंडलीकरण, निजीकरण एवं उदारीकरण (आर्थिक नव-उदारवाद) को स्वीकार कर लिया है जो अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक के निर्देश पर हो रहा है और जो बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के प्रभाव में काम करते है। इससे राजनैतिक स्थिति और जटिल हो जाती है।
यद्यपि वामपंथी पार्टियों ने आर्थिक नीतियों, खासकर आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में असहनीय वृद्धि के खिलाफ एक के बाद दूसरे लगातार अभियान चलाये हैं लेकिन इस संघर्ष को एक ऐसा सुस्पष्ट एवं निश्चित राजनैतिक आकार दिया जाना बाकी है जिसे कांग्रेस नेतृत्व वाले यूपीए (संप्रग-संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन) और भाजपा नेतृत्व वाले एनडीए (राजग-राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन) के विकल्प के तौर पर प्रस्तुत किया जा सके। वामपंथी पार्टियों ने दिल्ली मार्च और राष्ट्रव्यापी हड़ताल के रूप में दो बडे़ अभियान चलाये जिनका अन्य धर्मनिरपेक्ष पार्टियों ने भी समर्थन किया, उनमें से कुछ ने संसद में कटौती प्रस्ताव पर वामपंथी पार्टियों के साथ मतदान नहीं किया। अनेक क्षेत्रीय दलों के नेतृत्व का, जो धर्मनिरपेक्ष विकल्प का हिस्सा हो सकते हैं, समझौतापरस्त रवैया तथा मजबूरी एक ऐसा विकल्प प्रस्तुत करने में सबसे बड़ी बाधा है जिसके बारे में हैदराबाद में 2009 में आयोजित हमारी पार्टी की 20वीं कांग्रेस में खाका खींचा गया था।
केन्द्र सरकार की जनविरोधी नीतियों के विरूद्ध अनेक आंदोलन चल रहे हैं और जनता का असंतोष बढ़ रहा है, आगे आने वाले समय में जो घटनाक्रम सामने आने वाले हैं उनके लिए हमें इंतजार करना होगा।
आर्थिक स्थिति
इस दावे के विपरीत कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद के बदतरीन आर्थिक संकट का हल किया जा रहा है और अर्थव्यवस्था बहाली के रास्ते पर है, यह संकट और भी जटिल हो रहा है। अमरीका में जो आज तक का बदतरीन संकट शुरू हुआ और जिसने विश्व पूंजीवादी व्यवस्था को अपनी चपेट में ले लिया वह मंदी अब नये आकार ले रही है और एक के बाद एक प्रमुख देशों को आर्थिक विभीषिका की दिशा में ले जा रही है और इस तरह उन्हें राजनैतिक संकट में धकेल रही है। ग्रीस का संकट पूंजीवादी आर्थिक संकट के नये लक्षण का उदाहरण पेश करता है।
ग्रीस का संकट पूंजीवादी व्यवस्था का अपरिहार्य नतीजा है और इस व्यवस्था की एक कमजोर कड़ी होने के कारण ग्रीस इसका बदतरीन शिकार हुआ है। वास्तव में पूंजीपति वर्ग शासकों ने हर कहीं मजदूर वर्ग और आम लोगों पर असहनीय बोझ डालकर इस संकट का हल निकालने की कोशिश की है। विश्वव्यापी मंदी और रोजगार छिनने, मजदूरी कम होने, पेंशन और सामाजिक सुरक्षा में कटौती और रोजगार की गुणवत्ता एवं शर्तों में बदलाव के कारण मेहनतकश लोग सड़कों पर उतरने को मजबूर हुए। ग्रीस का संकट यूरोपीय संघ की साझा मुद्रा (करेंसी) यूरो के संकट से भी जुड़ा है। इससे यूरोपीय यूनियन के लगभग सभी देशों में गहराते संकट का पता चलता है और लगता है कि अब पुर्तगाल की बारी है।
विश्वव्यापी आर्थिक संकट और मंदी का मौजूदा दौर वास्तव में उन सिद्धांतकारों और बुर्जुआ प्रचारकों का पर्दाफाश करता है जिन्होंने सोवियत संघ के पतन और समाजवाद को लगे आघात के बावजूद “इतिहास का अन्त” और इस अतर्कसंगत अवधारणा कि- “कोई विकल्प नहीं है” (टीना-देयर इज नो आल्टरनेटिव)- की घोषणा कर दी थी।
प्रथम विश्व युद्ध के बाद यह सबसे बड़ी मंदी अमेरिका और अन्य पूंजीवादी देशों में कर्ज का बोझ बढ़ाने की अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने और जनता के बजाय मुनाफे को प्राथमिकता एवं महत्व देने के पूंजीवादी मंत्र का नतीजा थी। अमरीका एवं अन्य विकसित बुर्जुवा अर्थव्यवस्थाओं में बैंकों एवं अन्य वित्तीय संस्थानों के दिवाला पिटने और फेल हो जाने से विश्व भर में पूंजीवादी अर्थव्यवथा के संकट का पता चलता है। शीघ्र ही इसने विकासशील देशों को अपनी चपेट में ले लिया। इससे “कोई विकल्प नहीं है” के दावे का पूरी तरह से पर्दाफाश हो गया।
सभी पूंजीवादी देशा में सरकारें तथाकथित अर्थव्यवस्था के लिए स्टिमुलस फंड (प्रोत्साहन कोष) के नाम पर बहुत बड़े आर्थिक पैकेज देकर बहुराष्ट्रीय निगमों, कारपोरेट घरानों और बड़े बिजनेस को बचाने के लिए दौड़ पड़ी। इससे पता चलता है कि वे मुनाफे को तो निजी क्षेत्र को देना चाहते हैं जबकि घाटे की पूर्ति सरकारी खजाने से करते हैं। भारत समेत किसी भी देश में उन गरीब लोगों को कोई राहत नहीं दी गई जो संकट के असली शिकार हुए हैं और जिनकी कीमत पर पूंजीपति सरकारों ने इस संकट के समाधान की कोशिश की है।
अनुभव बताता है कि मंदी के संकट को पूंजीवादी रास्ते पर चलकर हल नहीं किया जा सकता। इसको अस्थायी तौर से हल किया भी गया तो वह फिर से सामने आ जाएगा। और यह संकट पहले से भी अधिक विकराल रूप में सामने आएगा जैसा कि ग्रीस और पुर्तगाल में देखा गया।
अर्थव्यवस्था का भूमंडलीकरण हो गया है अतः चीन भी इस विश्व-संकट के असर में आये बिना नहीं रह सका। पर उसने पूंजीपतियों को संकट से निकालने के रास्ते को अपनाने के बजाय मेहनतकश लोगों की क्रय शक्ति को बढ़ाने का रास्ता अपनाया, अतः संकट से बाहर निकलने में वह सबसे पहले देशों में था।
भारत में आर्थिक संकट
विश्वव्यशपी मंदी और आर्थिक संकट ने भारत समेत विकाशसील देशों को भी बुरी तरह प्रभावित किया। हमारे देश में निर्यात से जुड़े उद्योगों, लघु उद्योगों और हस्तशिल्प पर ही नहीं, आईटी (सूचना प्रौद्योगिकी) पर भी इसका गंभीर असर पड़ा। लगभग 30-40 लाख कर्मचारियों को रोजगार छिनने, कारखाना-बंदी, छंटनी और मजदूरी में कटौती की परेशानियों का सामना करना पड़ा। मीडिया मालिकों ने भी मदजूरी/वेतन में कटौती का तरीका अपनाया।
कम्युनिस्टों और अन्य वामपंथी ताकतों द्वारा लगातार विरोध और उनके द्वारा चलाये जा रहे संघर्षों के कारण भारत में शासक वर्ग बैंकों, बीमा और वित्तीय क्षेत्र के अन्य संस्थानों का उस हद तक निजीकरण नहीं कर पाया जितना वह चाहता था। इस कारण भारतीय अर्थव्यवस्था पर इस संकट का असर अपेक्षाकृत कम रहा। इसके बावजूद, विकसित पूंजीवादी देशों की सरकारों के उदाहरण और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक और विश्व व्यापार संगठन के निर्देशों पर चलते हुए यूपीए-दो सरकार ने भी कारपोरेट घरानों को संकट से निकालने के लिए राहत देने और उन्हें स्टिमुलस पैकेज देने का रास्ता अपनाया। और अर्थव्यवस्था की “बहाली” (रिकवरी) के मिथ्या दावे के बावजूद वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने इस वर्ष के बजट में इन पैकेजों को वापस लेने से मना कर दिया।
आर्थिक संकट के सबसे अधिक शिकार आम लोग हुए हैं जिन्हें रोजगार छिनने, मजदूरी में कटौती और रोजगार की गुणवत्ता और शर्तो में नकारात्मक बदलाव झेलने के अलावा उस नये बोझ को भी सहना पड़ रहा है जो लगभग सभी आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में लगातार वृद्धि से उन पर पड़ रहा है। मैट्रोपेालिटेन शहरों और अन्य शहरों में मकान किराए 40 से 100 प्रतिशत बढ़ गये हैं। फिक्स्ड आमदनी समूह (वे लोग जिनकी आमदनी में कोई वृद्धि नहीं होती) के लोगों के लिए गुजारा करना मुश्किल हो गया हैं
निजी कम्पनियों के साथ ही साथ सार्वजनिक क्षेत्र की इकाईयों की 15 प्रतिशत की अनिवार्य बिक्रीवित्त मंत्री ने कम्पनियों को सूचीबद्ध करने (लिस्टिंग) के लिए जिन नये मानदण्डों की घोषणा की है उनसे सार्वजनिक क्षेत्र की इकाईयों को भी अपने 25 प्रतिशत शेयर पब्लिक को बेचना कानूनन जरूरी हो गया है। इन नए मानदण्डों को कुछ निजी कम्पनियों द्वारा शेयरों की कीमतों में हेरा-फेरी करने को रोकने के बहाने से शुरू किया गया। इन नये मापदण्डों से निजी क्षेत्र में विप्रो, रिलायंस पावर जैसी चंद ही कम्पनियों पर असर पड़ेगा, अधिकांशतः इसका असर सार्वजनिक क्षेत्र की इकाईयों पर ही पड़ने वाला है। पिछले दरवाजे से निजीकरण और विनिवेश करने का यह तरीका लोगों को धोखा देने के लिए शुरू किया गया। सार्वजनिक क्षेत्र कि निम्न बड़ी इकाईयों उनके सामने दिये गए शेयर प्रतिशत में प्रभावित होंगी:
एनटीपीसी 15.5 प्रतिशत
एनएमडीसी 10 प्रतिशत
इंडियन ऑयल 21 प्रतिशत
सेल 14 प्रतिशत
पावर ग्रिड 13 प्रतिशत
पावर फाइनेंस कारपोरेशन 10.22 प्रतिशत
नेशनल एल्युमिनियम 12.85 प्रतिशत
न्येवेली लिग्नाइट 06.44 प्रतिशत
शिपिंग कारपोरेशन ऑफ इंडिया 19.88 प्रतिशत
पहले सरकार ने जीवन बिमा निगम में सरकार के निवेश को पंाच करोड़ से बढ़ाकर एक सौ करोड़ करने का फैसला किया, यद्यपि ऐसी कोई आवश्यकता नहीं थी। इसमें भी जीवन बीमा निगम के भविष्य में विनिवेश का इरादा है।
25 प्रतिशत के नये कानूनी अनिवार्य मानदण्ड से पब्लिक और प्राइवेट क्षेत्र में दो लाख करोड़ रूपये मिलने की अपेक्षा है पर बाद में इससे सार्वजनिक क्षेत्र की इकाईयों को भारी नुकसान होगा।
महंगाईइस संकट के बदतरीन नतीजों में से एक है तमाम आवश्यक वस्तुओं की आसमान छूती कीमतें। महंगाई बुनियादी तौर पर सरकार की नीतियों-खाद्यान्नों एवं अन्य आवश्यक वस्तुओं में वायदा कारोबार की इजाजत देने, जमाखोरी के विरूद्ध कानूनों में व्यापारियों को फायदा पहुंचाने वोल संशोधन एवं ऐसे ही अन्य कदमों-का नतीजा है। मनमोहन सिंह सरकार वायदा कारोबार और जमाखोरी के विरूद्ध कदम उठाने से यह बहाना बनाकर इन्कार करती है कि यह राज्य सरकारों का कार्यक्षेत्र है।
इस मामले में यूपीए-दो की निष्क्रियता के परिणाम स्वरूप दालों और खाद्य-तेलों की कीमतों में सौ प्रतिशत, गेहूं एंव चावल में 50 प्रतिशत की वृद्धि हो गयी है। सरकार ने स्वंय माना है कि मुद्रा स्फीति की दर 15 प्रतिशत से अधिक है। सरकार लोगों की इस परेशानी को दूर करने के लिए कोई कदम उठाने को तैयार नहीं है। इसके बजाय प्रधानमंत्री जनता की आंखों में यह आश्वासन देकर धूल झोंक रहे हैं कि साल के अंत में कीमतें नीचे आ जाएगी। यह उसी किस्म की क्रूरता है जो कृषि मंत्री ने यह कहकर प्रकट की थी कि चीनी महंगी होने से लोगों को डायबिटीज कम होगी।
पार्टी की 20वीं कांग्रेस के फैसले के अनुसार, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने महंगाई के विरूद्ध व्यापक जन आंदोलन खड़ा करने पर ध्यान दिया है। इस साल के दौरान पहले तो उसने भाकपा (मा.), आरएसपी और फारर्वउ ब्लॉक के साथ मिलकर देशव्यापी कार्रवाईयां की और बाद में महंगाई के सीमिति मुद्दे पर संयुक्त कारवाईयां की और बाद में महंगाई के सीमित मुद्दे पर संयुक्त कार्रवाई के लिए कुल मिलाकर 13 राजनैतिक पार्टियों को तैयार किया।
गैर-यूपीए और गैर-राजग तमाम क्षेत्रीय पार्टियां उस अखिल भारतीय हड़ताल में शामिल हुई जो वस्तुतः भारत बंद में बदल गई। हमें इस तथ्य को नोट लेना होगा कि यूपीए-दो सरकार के दबाव और सीबीआई एवं सरकार की ताकत के दुरूपयोग के कारण इनमें से कुछ पार्टियों ने कटौती प्रस्ताव में हमारे साथ मतदान नहीं किया।
यूपीए-2: विफलता और छल-कपट का एक साल
यूपीए-2 ने अपने दूसरे कार्यकाल में एक साल पूरा किया जो आर्थिक मोर्चे पर सरकार की विफलता तथा लोगों को बेवकूफ बनाने के उसके प्रयास से भरा हुआ है। यूपीए-2 के सत्ता में आने की प्रथम वर्षगांठ पर प्रधानमंत्री ने अपनी प्रेस कांफ्रेेंस में विभिन्न मोर्चो खासकर जीडीपी विकासदर, सबको शिक्षा का अधिकार देने और खाद्य सुरक्षा कानून बनाने का आश्वासन देने के बारे में उपलब्धियां हासिल करने का दावा किया। जीडीपी विकासदर मानव विकास इंडेक्स को प्रतिबिम्बित नहीं करती है। जीडीपी विकास दर का दावा कुछ हलकों में झूठा संतोष पैदा करता है। यह भी नोट करना चाहिए कि जीडीपी विकास दर के दावे का आधा सेवा क्षेत्र से है। यह सच है कि संपत्ति का निर्माण हो रहा है लेकिन चार कारपोरेट घरानों के हाथों में यह संपत्ति जमा हो रही है। अमीरों और गरीबों के बीच खाई बढ़ती जा रही है। भारत की सच्चाई यह हैः
 मानव विकास इंडेक्स में भारत का स्थान 123वां है।
 प्रति व्यक्ति जीडीपी में इसका स्थान 126वां है।
जन्म के बाद जिंदा रहने के मामले में इसका स्थान 127वां है।
 व्यस्क निरक्षरता के मामले में इसका स्थान 148वां है।
 एक रिपोर्ट के अनुसार देश के पांच शीर्ष खरबपतियों की संपत्ति का मूल्य 30 करेाड़ लोगों की संपत्ति के बराबर है।
 कार्पोरेट घरानों के आला अधिकारियों का वेतन सलाना 5 करोड़ से 40 करोड़ रू. के बीच है। ऐसे करीब 3000 आला अधिकारी लगभग 20,000 करोड़ रु. केवल वेतन के रूप में लेते हैं।
दूसरी तरफ अर्जुन सेनगुप्ता कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार 77 प्रतिशत लोग (करीब 84 करोड़़) रोजाना 20 रु. से कम पर गुजारा करते हैं।
यह विरोधाभास और हकीकत यूपीए-2 के असली चेहरे को दर्शाती है।
महंगाई रोकने में सरकार की विफलता के अलावा ऐसे मुद्दे हैं जो यूपीए-2 के एक साल के कुशासन का बखान करते हैं। इन मुद्दों में आर्थिक एवं विदेश नीतियों में लगातार ऐसा झुकाव जो अमरीका के हक में है, आंतरिक सुरक्षा की विफलता, आतंकवाद और नक्सलवाद में तेजी, यूपीए में शामिल घटक दलों और मंत्रियों में कटुता, आईपीएल विवाद, राजनीतिक दलों को ब्लैकमेल करने के लिए सीबीआई एवं अन्य सरकारी एजेंसियों का दुरूपयोग जैसा कि बजट सत्र के दौरान कटौती प्रस्ताव पर मतदान के दौरान देखने को मिला तथा शशि थरूर, जयराम रमेश और ममता बनर्जी जैसे मंत्रियों के अनुचित व्यवहार शामिल हैं।
विपक्षी नेताओं के टेलीफोन टेप होने का खुलासा होने तथा राजनीतिकविरोधियों के खिलाफ सीबीआई के दुरूपयोग से कुछ हद तक यूपीए-2 का चेहरा कलुषित होता है। अपने एक साल के शासन में यूपीए-2 को अस्थिरता के खतरे का सामना करना पड़ा तो अब केन्द्र और राज्यों में दूसरी पार्टियों का समर्थन लेने की कोशिश कर रही है ताकि आंतरिक एवं बाहरी दबावों के खतरे का सामना किया जा सके।
सरकार निजीकरण एवं उदारीकरण की आर्थिक नीति पर लगातार आगे बढ़ रही है जैसा कि बहुराष्ट्रीय निगम चाहते हैं। इस दिशा में ताजा कदम पेट्रोल एवं पेट्रोलियत उत्पादों के मूल्यों पर से नियंत्रण हटाने की दिशा में है। इसका कीमतों पर काफी घातक प्रभाव पड़ेगा।
उच्च स्तरों पर भ्रष्टाचार
उच्च स्तरों पर भ्रष्टाचार यूपीए-2 की एक अन्य विशेष बात है। यूपीए के कुछ घटकों द्वारा सरकार के पैसे की लूट इतने खुलेआम हो रही है कि प्रधानमंत्री भी उसका बचाव नहीं कर सके। जी-2 स्पैक्ट्रम घोटाला, जिसमें संचार मंत्री, डीएमके के ए. राजा लिप्त हैं, इसका एक उदाहरण हैं। अनेकों मंत्री आईपीएल घोटाले में शामिल है। आईपीएल का क्रिकेट को बढ़ावा देने से कोई वास्ता नहीं है। इस तरीके को जनता को लूटने और पैसे को हड़प करने के लिए बनाया गया। कुल मिलाकर इससे क्रिकेट को नुकसान पहुंच रहा है।
सरकार और प्रशासन में भ्रष्टचार इतना व्यापक है कि मनमोहन सिंह सरकार बचाव के तरीके खोज रही है। भ्रष्ट तत्वों को बचाने के लिए और प्रशासन में पारदर्शिता को खत्म करने के लिए उसने सूचना के अधिकार कानून में संशोधन की पेशकश की है। इसका कुल नतीजा यह है कि भ्रष्टाचार न्यायापालिका और रक्षा सेवाओं में भी घुस गया है।
कानूनों के नाम पर धोखाधड़ी
शिक्षा के अधिकार, महिला आरक्षण बिल और खाद्य सुरक्षा बिल जैसे कुछ जनकानूनों के संबध्ंा में सरकार की घोषणाओं से बड़े सब्जबाग दिखाये जा रहे हैं। तथ्य यह है कि महिला आरक्षण बिल को राज्यसभा में पारित कराने के बाद यूपीए-2 इस मुद्दे पर पीछे कदम हटा रही है। बिल को पारित करने की अपनी वचनबद्धता को पूरा करने के बजाय उसने एक बार फिर “सर्वसम्मति” बनाने के संबंध में बोलना शुरू कर दिया है।
इसी प्रकार शिक्षा के अधिकार के बिल को संसद में पास किया गया जिससे शिक्षा का अधिकार सुनिश्चित नहीं होता क्योंकि इसमें वित्तीय समर्थन के बारे में कोई स्पष्टता नहीं है। केन्द्र सरकार मामले को राज्य सरकार पर डालने की कोशिश कर रही है, जबकि इस बिल को अंतिम रूप देते समय उसने राज्य सरकारों को विश्वास में लेने की फिक्र ही नहीं की थी।
शिक्षाविद, शिक्षक और छात्र संगठन शिक्षा अधिकार कानून पर नाखुश है क्योेंकि यह उनकी अपेक्षाओं से बहुत दूर है और वे महसूस करते हैं कि इससे कोई उद्देश्य हल होने वाला नहीं है। इसके अलावा यूपीए सरकार ने निजी विश्वद्यिालयों को इजाजत देकर और विदेशियों के लिए उच्च शिक्षा क्षेत्र के दरवाजे खोलने की मंशा जाहिर कर उच्च शिक्ष को आम आदमी की पहुंच से दूर कर दिया है।
यही बात बहुप्रचारित खाद्य सुरक्षा बिल पर लागू होती है। यूपीए-2 ने अपने घोषणा पत्र में सभी बीपीएल परिवारों को 35 किलो चावल या गेहूं 3 रु. प्रति किलो दर पर देने का वायदा किया था। उस वायदे पर टिके रहने के बजाये वह खाद्य सुरक्षा बिल में हीला-हवाली कर रही है और मानदंडों को पूरी तरह बदलकर बीपीएल परिवारों की अवधारणा को ही विकृत कर रही है। पहले ही अधिकांश बीपीएल परिवारों को इस कैटेगरी से बाहर किया जा चुका है।कट्टरवादी ताकतों द्वारा साम्प्रदायिक नफरत फैलाये जाने के बावजूद-जिससे देश का धर्मनिरपेक्ष वातावरण दूषित हो रहा है- जिस “साम्प्रदायिक हिंसा रोक एवं नियंत्रण बिल” का वायदा किया गया था, वह अभी लंबित कर दिया गया है।
सरकार जनहित के बिलों की घोषणा मात्र करके संतुष्ट है और वास्तव में परमाणु दायित्व जैसे बिलों पर जोर दे रही है, उन्हें आगे बढा़ रही है। परमाणु दायित्व बिल परमाणु दुर्घटना होने की सूरत में, परमाणु रिएक्टरों (जो दो दशक से भी अधिक से गोदामों में जंग खा रहे हैं) के आपूर्तिकर्ता अमरीकी बहुराष्ट्रीय निगमों को किसी भी मुआवजे के भुगतान की जिम्मेदारी से मुक्त करता है। भोपाल की बदतरीन औद्योगिक दुर्घटना के मामले में जो शर्मनाक फैसला आया उससे स्वष्ट चेतावनी मिल रही है कि संसद में जो परमाणु दायित्व बिल पेश किया गया है उसका लक्ष्य क्या है।
मणिपुर की स्थिति
मणिपुर में नागाओं ने पिछले दो महीने से उन दो राष्ट्रीय राजमार्गों को ब्लॉक कर रखा है जो मणिपुर से एकमात्र जीवित संपर्क हैं। इससे मणिपुर में स्थिति बहुत खराब हो गयी है। मणिपुर चारों तरफ से जमीन से घिरा राज्य है। मणिपुर सरकार ने एनएससीएन नेता मुवेइया की प्रस्तावित यात्रा को इस डर से नामंजूर कर दिया कि 1990 के दशक जैसी नृजातीय हत्याओं का सिलसिला न दोहराया जाने लगे, जिनमें लगभग 1000 कुर्की लोग मारे गये थे और एक लाख लोग घरों से विस्थापित हो गये थे।
नागा संगठन “नागालियम” अर्थात स्वतंत्र वृहत नागालैंड की मांग कर रहे हैं और उसमें मणिपुर के चार जिलों और असम, मिजोरम एवं अन्य राज्यों के कुछ नागा आबादी वाले क्षेत्रों को शामिल करने की मांग कर रहे हैं। जब केन्द्र सरकार नागा संगठनों से बात कर रही थी उसने पहले मणिपुर में भी सीजफायर घोषित कर दिया जिससे बड़ा राजनैतिक आंदोलन भड़क उठा।केन्द्र सरकार द्वारा मणिपुर की स्थिति के संबंध में गैर जिम्मेदार तरीके से निपटने के कारण मणिपुर के लोगों को दिक्कते पैदा हो रही हैं। मणिपुर में छोटे एवं मध्यम अनेक विद्रोही ग्रुप सक्रिय हैं। इस तरह एक संवेदनशील राज्य होने के नाते मणिपुर में स्थिति विस्फोटक है। वहां आवश्यकता इस बात की है कि मणिपुर की जनता और सरकार को साथ लेकर, उनको शामिल कर केन्द्र सरकार अधिक उत्तरदायीपूर्ण और सावधानी के साथ हस्तक्षेप करे।
विदेश नीति
विदेश नीति में अमरीका के पक्ष में झुकाव जारी है। भारत-अमरीकी रणनीतिक वार्ता जिसके लिए विदेश मंत्री के नेतृत्व में एक उच्चस्तरीय प्रतिनिधिमंडल वहां गया था, अमरीकापक्षी नीति का ताजा उदाहरण है। अमरीका ने यहां तक कि भारत से उच्च तकनीक के आयात पर रोक को हटाने की मांग स्वीकार नहीं की लेकिन हमने अमरीकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए अपना बाजार खोल देने तथा उदारीकरण के तेज करने का आश्वासन दे डाला। भोपाल गैस त्रासदी पर शर्मनाक अदालती फैसले को लेकर देश भर में फैले आक्रोश के बावजूद भारत सरकार परमाणु दायित्व बिल को और नरम करने पर राजी हो गयी है जिसमें परमाणु हादसे होने पर अमरीकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को मुआवजा देने से पूरी तरह मुक्त कर दिया गया है।
यद्यपि विश्वव्यापी आर्थिक मंदी ने अनेक विकासशील देशों को विभिन्न तरह के ग्रुप बनाकर अमरीका द्वारा एक ध्रुवीय विश्व व्यवस्था थोपने के प्रयास का विरोध करने के लिए मजबूर किया, भारत अभी अपनी भावी दिशा के बारे में स्पष्ट नहीं है। इसके कारण यूपीए-2 द्विविधा में पड़ गयी है, वास्तव में ऐसी परिस्थिति में पड़ गयी है कि विदेश नीति में विरोधाभासी रवैया अपना रही है। ब्रिक एवं ऐसे ही संगठनों में भारत ने जो सक्रिय भूमिका निभायी वह स्वागतयोग्य है, लेकिन यूपीए-2 शंघाई सहयोग संगठन की पूर्ण सदस्यता ग्रहण करने के बारे में अभी भी बहस ही कर रही है जिसमें बहुध्रवीय विश्व व्यवस्था में एक अन्य स्तंभ बनकर उभरने की क्षमता है।
पाकिस्तान के साथ वार्ता करने में स्वतंत्र रूख अपनाने के बजाय, सरकार अनधिकृत एवं अवांछनीय ‘मध्यस्थता’ के लिए अमरीका की ओर देख रही है। अमरीका ने ही डा. मनमोहन सिंह को पाकिस्तानी प्रधानमंत्री के साथ शरम-एल-शेख (मिस्र) में एक संयुक्त बयान पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया था जिसमें पाकिस्तानी प्रांत बलूचिस्तान की घटनाओं का अनावश्यक उल्लेख किया गया है।
भारत-पाक संबंधों में मध्यस्थ बनने का दर्जा हासिल करने की अमरीकी कोशिशों को भारत को पूरी तरह खारिज कर देना चाहिए। हमें कश्मीर सहित सभी विवादस्पाद भारत-पाक मुद्दों पर द्विपक्षीय वार्ता को बढ़ावा देना चाहिए। दोनों देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक का लाभ उठाकर भारत-पाक व्यापक वार्ता के लिए मार्ग प्रशस्त करना चाहिए जो मुंबई में आतंकवादी हमले के कारण ठप्प पड़ गयी थी। पाकिस्तान को अपने यहां सक्रिय आतंकवादियों एवं उनके संरक्षकों को पकड़ने और दंड देने के लिए भारत के साथ पूरा सहयोग करना चाहिए। यूपीए-2 सरकार श्रीलंका के तमिलों के राजनीतिक समाधान के मुद्दों को श्रीलंका सरकार से उठाने में विफल रही है तथा श्रीलंका के तमिल शरणार्थियों के पुनर्वास और मानवधिकारों के उल्लंधन के मुद्दे को उठाने में विफल रही है।
आतंकवाद का खतरा
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की हमेशा से यह राय रही है कि भारत जिस आतंकवादी खतरे का सामना कर रहा है उसका 2001 में अमरीका के आर्थिक एवं सैनिक शक्ति के प्रतीकों पर हुए हमले क बाद अमरीका जिस आतंकवाद की बात कर रहा है उससे कुछ लेना देना नहीं है। लेकिन दुर्भाग्य से उस समय की एनडीए सरकार ने आतंकवाद पर अमरीकी रूख को मान लिया तथा तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने स्वयं कहा कि “सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं है लेकिन सभी आतंकवादी मुसलमान है।” इस झूठी धारणा के कारण 2001 के बाद भारत में हुए हर आतंकवादी हमले के बाद बड़ी संख्या में मुसलमान युवाओं को झूठे मुकदमों में फंसाया गया।
महाराष्ट्र के मालेगांव में हुए बम विस्फोट के बाद महाराष्ट्र के एटीएस प्रमुख ने कहा था कि हिंदुत्व संगठन अभिनव भारत ने यह आतंकवादी हमला रचा था और उसे अंजाम दिया था। उसके बाद संघ परिवार से जुड़े विभिन्न संगठनों के अनेक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया जिनमें सेना का एक कर्नल और एक साध्वी शामिल थी। लेकिन एनडीए सरकार के दिनों में किये गये इस बारे में भ्रामक प्रचार तथा पुलिस और अन्य एजेंसियों में घुसपैठ के कारण मालेगांव विस्फोट और महाराष्ट्र के अन्य शहरों में हुई ऐसी ही अन्य घटनाओं की जांच जिनमें आरएसएस और विश्व हिन्दू परिषद के कार्यकर्ता प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शामिल थे, ठीक ढंग से नहीं हो पायी। बल्कि जांच में बाधा डालने की कोशिश की गयी जिससे इस धारण को बल मिला कि नकली मुठभेड़ों की तरह आतंकवादी हमले भी नकली हैं जिससे आतंकवाद के बारे में अमरीकी विचार को मान्यता मिली।
इस आशंका को उस समय और बल मिला जब राजस्थान एटीएस ने कहा कि अजमेर में हुए बम विस्फोट में आरएसएस कार्यकर्ताओं का हाथ था। राजस्थान एटीएस ने आगे दावा किया कि उसके पास साबित करने के लिए पर्याप्त सबूत हैं कि हैदराबाद में मक्का मस्जिद पर हमला तथा समझौता एक्सप्रेस में विस्फोट में आरएसएस के उसी ग्रुप का हाथ था जो अजमेर विस्फोट में शामिल था। सीबीआई ने भी राजस्थान पुलिस के इस दावे की पुष्टि की है।
यह नोट किया जाना चाहिए कि अधिकांश विस्फोटों के मामलों में मध्य प्रदेश, गुजरात और राजस्थान जहां भाजपा सत्ता में थी, के बीच लिंक होने का पुलिस दावा कर रही है। यहां तक कि अभी इन राज्यों की पुलिस तथा केन्द्रीय एजेंसियों में घुसपैठ करने वाले तत्व जांचों में बाधा डालने की कोशिश कर रहे हैं।
भाकपा को इन आतंकवादी कार्रवाइयों में हिन्दुत्व लिंक होने तथा आतंकवाद के बारे में साम्राज्यवादी विचार को उनके द्वारा मान्यता देने का पर्दाफाश करने के लिए अभियान चलाना चाहिए और 2010 के बाद से हर आतंकवादी हमले के बाद झूठे मुकदमों में फंसाये गये सभी मुसलमान युवाओं को तुरन्त रिाहाई की मांग करने चाहिए। जो पुलिस अधिकारी मुसलमान युवाओं के शामिल होने की मनगढ़ंत कहानी बनाते हैं उन्हें दंडित किया जाना चाहिए। भाकपा माओवादियों की गलत कार्यनीति और वैचारिक भटकाव का पर्दाफाश करना जारी रखेगी जिससे क्रांतिकारी आंदोलन को नुकसान हो रहा है।
माओवादी हिंसा में तेजी
पिछले छह महीनों में देश के अनेक हिस्सों में तथाकथित माओवादियों द्वारा किये जा रहे हिंसक हमलों मंे तेजी आयी है। माओवादी अब सरकारी अधिकारियों की जगह नागरिकों को निशाना बना रहे हैं। रेलों को निशाना बनाया गया है जिनमें बड़ी संख्या में निर्दोष यात्री मारे गये हैं। इसके पहले दांतेवाड़ा में सीआरपीएफ के 76 जवानों की हत्या भी माओवादियों ने ही की थी। बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की साठगांठ से माओवादी राजनीतिक विरोधियों को निशाना बनाकर तथा उनकी हत्या कर के तथा आम लोगों को आतंकित करके अपने प्रभाव क्षेत्र का विस्तार करने की कोशिश कर रहे हैं।
माओवादी अपनी कार्यनीति से उनके खिलाफ सेना को इस्तेमाल करने की गृहमंत्री की कोशिश को आसान बना रहे हैं। भाकपा स्पष्ट तौर पर घोषणा करती है कि आंतरिक समस्याओं के समाधान के लिए सेना का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए। यह एक गलत परिपाटी होगी तथा भारतीय सेना की प्रतिष्ठा को काफी धक्का लगेगा।
केन्द्रीय गृह मंत्रालय माओवादी हिंसा के मुद्दे पर कड़ा रुख अपना रहा है। हालांकि सरकार मानती है कि यह केवल कानून-व्यवस्था की समस्या नहीं है, लेकिन वास्तव में यह इससे कानून-व्यवस्था की समस्या की तरह निपट रही है।
भाकपा हमेशा इन गुमराह तत्वों के साथ वार्ता के पक्ष में रही है लेकिन साथ ही हिंसा करने वाले तत्वों से सख्ती से निपटने के पक्ष में रही है। इसके साथ ही सरकार को उन लोगों के लिए सामाजिक-आर्थिक पैकेज लाना चाहिए जो माओवादी प्रभाव वाले क्षेत्रों में रहते हैं। लोगों खासकर आदिवासियों की शिकायतों को दूर करने के लिए विकासोन्मुख परियाजनाओं को लागू किया जाना चाहिए। उन परियोजनाओं को तुरन्त बन्द कर देना चाहिए, खासकर बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा चलायी जाने वाली उन परियोजनाओं को जिनमें आदिवासी अपनी जमीन और वन संसाधनों से वंचित होते हैं।
पश्चिम बंगाल में नगर पालिका चुनाव
पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ वाममोर्चा को हाल में संपन्न कोलकाता नगर निगम और 80 अन्य नगर पालिका बोर्डो के चुनाव में गहरा धक्का लगा है। यद्यपि डाले गये वोट और जीते गये वार्डो के आधार पर कोई यह संतोष कर सकता है कि एक साल पहले लोकसभा चुनावों में जितना नुकसान हुआ था कुछ हद तक उसमें कमी हुई है लेकिन इससे आत्मसंतुष्टि और समस्या की गंभीरता की उपेक्षा नहीं की जा सकती।
यह एक तथ्य है कि वाममोर्चा अपने परंपरागत समर्थकों जैसे शहरी गरीब, मजदूर एवं अल्पसंख्यक के बीच आधार खोता चला जा रहा है। इसके अलावा इनकम्बेंसी कारक, जिसका सामना हर सत्तारूढ़ गठबंधन को करना होता है, व्याप्त भ्रष्टाचार और जमीनी स्तर पर लोकतांत्रिक विरोध को दबाना वाममोवर्चा की हार के मुख्य कारण है।
समय का तकाजा है कि वाममोर्चा के घटकों को व्यक्तिगत तथा सामूहिक रूप से गंभीरतापूर्वक आत्मविश्लेषण और चिंतन करना चाहिए। वाममोर्चा के परंपरागत समर्थक लोगों की आकांक्षाओं के अनुरूप सामाजिक - आर्थिक प्राथमिकताओं को फिर से निर्धारित किया जाना चाहिए तथा आज की वास्तविकताओं को देखते हुए वाममोर्चा का पुनर्गठन किया जाना चाहिए। एक बेहतर वाममोर्चा ही विकल्प है।
कुछ उल्लेखनीय रूझान
राष्ट्रीय परिषद की बंगलौर बैठक के बाद हुए सामाजिक-आर्थिक एवं राजनीतिक घटनाएं निम्नलिखित रूझानों की ओर इंगित करती हैं जिन्हें पार्टी के कर्तव्यों को अंतिम रूप देने में नोट किया जाना चाहिए ये हैं:
आर्थिक संकट एवं मंदी गंभीर बनी हुई है। यह नया रूप ले रहा है तथा रोजगार और वेतन में कटौती से मेहनतकश लोगों को ज्यादा नुकसान हो रहा है। मुद्रास्फीति विश्वव्यापी हो गयी है और पूंजीवादी व्यवस्था के संकट का आंतरिक हिस्सा बन गई है।
 यूपीए-2 की इस गलत धारणा से कि सरकार की नीतियां विकासोन्मुख हैं, भूमंडलीकरण, निजीकरण और उदारीकरण का वह विनाशकारी रास्ते पर चलना जारी रखे हुए हैं। इससे अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी को ज्यादा से ज्यादा रियायतें मिलती रहेंगी। वैकल्पिक आर्थिक रास्ता अपना कर और उचित राजनीतिक नारों के साथ इन नीतियों का विरोध करने की जरूरत है।
समावेशी विकास के बारे में भ्रम पैदा किया जायेगा ताकि आम लोगों को गुमराह किया जा सके। विभिन्न क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियों की मजबूरियां और ब्लैकमेल जो हाल में देखने को मिले वे जारी रहेंगे। इसके बावजूद हमें उनके साथ संबंध बनाना है। कम्युनिस्टों को हमेशा राजनीतिक एवं चुनावी कार्यनीतियों में अंतर को ध्यान में रखना चाहिए।
वाम, खासकर कम्युनिस्टों को अलग-थलग करने की कोशिश की जा रही है। पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा हार का कम्युनिस्ट विरोधी शक्तियों और मीडिया द्वारा पूरी तरह फायदा उठाया जा रहा है। वामपंथी शक्तियां और धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक शक्तियों के बीच ज्यादा से ज्यादा सहयोग वक्त का तकाजा है।
आर्थिक विकृति के कारण लोगों में बढ़ रहे असंतोष और कमजोर वर्गो, जिनमें अल्पसंख्यक भी शामिल हैं, में उपेक्षा की भावना को जनआंदोलन में बदलना होगा। इस दिशा में काफी सोच समझकर प्रयास करने होंगे।
आने वाले दिनों में बिहार विधान सभा के चुनाव होने वाले हैं तथा अगले चार राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। पार्टी को इन सभी राज्यों में तुरन्त सांगठनिक तैयारी शुरू कर देनी चाहिए।
आने वाले महीनों में अनेक राज्यों में पंचायत एवं स्थानीय निकायों के चुनाव होने वाले हैं। आमतौर पर हम इन चुनावों पर ध्यान नहीं देते। इस पर जोर देने की जरूरत है कि स्थानीय निकायों के चुनावों के जरिए तथा रोजाना की गतिविधियों से राजनीतिक आधार तैयार किये बिना हम विधानसभा और संसदीय चुनावी चुनौती का सामना नहीं कर सकते।
राज्य परिषदों की बैठक होनी चाहिए जिसमें पार्टी फंड के लिए चंदा वसूलने पर विचार किया जाना चाहिए ताकि पार्टी की गतिविधियां सुचारू रूप से चलती रहे। चूंकि जीवनयापन पर खर्च काफी बढ़ गया है, पूरावक्ती कामरेडों के वेतन/भत्तों में उचित वृद्धि की जानी चाहिए और इसे तुरन्त किया जाना चाहिए।
कर्तव्य
1. मीटिंगों और पार्टी अखबारों के जरिये राजनीतिक अभियान चलाया जाना चाहिए जिसमें पार्टी की राजनीतिक लाइन और नीतियों को बताया जाना चाहिए।
2. बिहार विधान सभा और विभिन्न राज्यों में होने वाले स्थानीय निकायों के चुनावों के लिए राजनीतिक तैयारियां की जानी चाहिए।
3. 2012 के आरंभ में पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु एवं अन्य राज्यों में होने वाले चुनावेां के लिए तैयार रहे।
4. केन्द्रीय एवं राज्य पार्टी की पत्र-पत्रिकाओं तथा दैनिक अखबारों का सर्कुलेशन बढ़ाने का लक्ष्य पूरा करें।
5. जनसंठनों खासकर खेत मजदूरों और किसानों के संगठनों को मजबूत करें जिसमें ग्रामीण गतिविध पर जोर हो।
6. महिलाओं, युवाओं, दलितों एवं अल्पसंख्यकों में से अधिक से अधिक लोगों को पार्टी में लाएं।
7. सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ संघर्ष।
8. विभिन्न राज्यों में भूमिसंघर्ष चलाया जाना चाहिए।
9. ब्रांच से राष्ट्रीय स्तर तक पार्टी फंड की वसूली की योजना बनानी चाहिए और उस पर अमल करना चाहिए।
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महंगाई और मायावती सरकार

5 जुलाई को पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों को बाजार के हवाले करने तथा महंगाई के खिलाफ वामपंथी दलों ने भारत बंद का नारा दिया था। इसी दिवस तमाम अन्य राजनीतिक दलों ने भी इसमें शिरकत की। तमाम व्यापारिक संगठनों तथा किसानों, खेत मजदूरों, मजदूरों, विद्यार्थियों, नौजवानों, महिलाओं तथा वकीलों आदि के संगठनों ने भी इसे अपना समर्थन दिया। केन्द्र में सरकार चला रहे कांग्रेस नीत संप्रग-2 में शामिल राजनीतिक दल तथा उत्तर प्रदेश में सरकार चला रही बसपा इसमें शामिल नहीं थे।
महंगाई जनता के लिए एक मुद्दा है। पिछले डेढ़ सालों में महंगाई इतनी ज्यादा बढ़ी है कि जनता के अधिसंख्यक तबके त्राहि-त्राहि कर रहे हैं। बन्द का पूरे देश में अच्छा असर रहा और उत्तर प्रदेश भी इससे अछूता नहीं था।
महंगाई बढ़ाने में केन्द्र सरकार दोषी है लेकिन इसमें बसपा सरकार भी दोषी है। विभिन्न योजनाओं में जो खाद्यान्न राज्य सरकार को आबंटित होता है, भ्रष्टाचार के कारण उसकी कालाबाजारी हो जाती है और वह लक्षित जनता तक नहीं पहुंचता। इस मध्य बसपा सरकार ने कई वस्तुओं पर टैक्स बढ़ाकर उनकी कीमतें बढ़ा दीं। कालाबाजारी, मुनाफाखोरी और खाद्यान्नों की अनैतिक और अवैधानिक जमाखोरी रोकने के लिए बसपा सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया। विकास के लिए केन्द्र सरकार द्वारा धन न देने का उलाहना मुख्यमंत्री अक्सरहां करती रहती हैं लेकिन एक बार भी उन्होंने प्रदेश की आम जनता के लिए नियंत्रित मूल्य पर खाद्यान्न आबंटित किए जाने की मांग तक केन्द्र सरकार से नहीं की। उन्होंने कभी सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सुदृढ़ करने की मांग केन्द्र सरकार से नहीं की। पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में बढ़ोतरी से जो वैट की अतिरिक्त राशि इन उत्पादों की कीमत में अपने आप शामिल हो गयी, उसे तो वे वापस ले ही सकती थीं जिससे बजट अनुमानों पर कोई असर नहीं होता। लेकिन उन्होंने न तो ऐसा किया और न ही करना चाहती हैं।
अलबत्ता बन्द के दिन जिस तरह का कहर बसपा सरकार ने बन्द को असफल करने के लिए बरपा, वह महंगाई बढ़ाने और पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्यवृद्धि में संप्रग के साथ बसपा और मूलतः उसकी नेता मायावती की संलिप्तता की ओर इशारा है। बन्द को असफल करने के लिए 5 जुलाई को भाकपा सहित तमाम राजनीतिक दलों के कार्यालयों पर भारी पुलिस बल अल सुबह ही पहुंच गया था और उसने इन कार्यालयों को वस्तुतः सील कर दिया था मानों इनके अन्दर बड़े-बड़े आतंकवादी छिपे हों। इन कार्यालयों की ओर आने वाले कार्यकर्ताओं को रास्ते में ही रोक कर गिरफ्तार कर लिया गया।
मंहगाई चूंकि एक फौरी मुद्दा है जिससे प्रदेश की अधिसंख्यक जनता परेशान है, बसपा ने भारत बन्द के अगले दिन 6 जुलाई को देशव्यापी प्रदर्शनों का नारा दिया था। बसपा के इन प्रदर्शनों के प्रति जनता में रंचमात्र उत्साह नहीं था। बसपा के प्रदर्शनों में जिला मुख्यालयों पर जितनी जनता जुटी उससे कहीं ज्यादा वामपंथी दलों के कार्यकर्ताओं की एक दिन पूर्व गिरफ्तारी हुई थी।
ये प्रदर्शन आम जनता के बसपा से हो रहे मोहभंग की ओर इशारा है। जनता के सरोकारों से सरोकार न रखना बसपा और उसकी सुप्रीमो मायावती को खासा महंगा साबित होगा।

- प्रदीप तिवारी

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