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शुक्रवार, 17 जून 2011

न्यायपालिका में पसरा भ्रष्टाचार


यह बात अब जन सामान्य में ही नहीं वरन् न्याय के सर्वोच्च मन्दिर में भी गूंज रही है कि न्यायपालिका में भ्रष्ट, पतित, बेईमान और रिश्वतखोर न्यायाधीशों की संख्या में निरन्तर बढ़ोत्तरी हो रही है।

अप्रैल 2011 में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एस.एच. कपाडिया ने एम.सी. सीतलवाड स्मृति व्याख्यान माला में भाषण देते हुए कहा कि “बेईमान और भ्रष्ट न्यायधीशों को राजनीतिक संरक्षण नहीं प्रदान किया जाना चाहिए। यदि न्यायपालिका से भ्रष्टचार को समाप्त करना है तो भ्रष्ट न्यायधीशों के साथ किसी भी प्रकार की दयालुता, कृपा या मेहरबानी नहीं दिखायी जानी चाहिए।” अपने भाषण में उन्होंने एक ओर तो राजनीतिज्ञों को सुझाव दिया कि वे भ्रष्ट एवं बेईमान न्यायाधीशों से दूर रहे वहीं दूसरी ओर उन्होंने न्यायाधीशों को सलाह दिया कि वे सुविधादायक व्यवहार, सुविधाजनक बर्ताव तथा सेवानिवृत्ति के पूर्व ही या बाद में पद पाने की लालसा में किसी राजनैतिक संरक्षण प्राप्त करने की कामना के साथ राजनीतिज्ञों, विशेषकर सत्ताधारी राजनीतिज्ञों से निकटता न बनायें।” न्यायमूर्ति एस.एच. कपाडिया ने चेतावनी देते हुए कहा कि “न्यायाधीश राजनीतिज्ञों से दूरी बना कर रखें।“ यह प्रवृति “तुम मेरे काम आओ, मैं तुम्हारे काम आऊंगा” या “तुम मेरी मदद करो, मैं तुम्हारी मदद करूंगा“ को जन्म देती है और भ्रष्टाचार को पोषित करती है।“

उन्होंने आगे कहा कि यदि “कोई न्यायाधीश पक्षपात के आरोप से बचे रहना चाहता है तो उसे चाहिये कि वह समाज से थोड़ी दूरी और अलगाव बना कर रखे।

उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि “एक व्यक्ति जो न्यायाधीशों के संसार में प्रवेश करता है उसे स्वयं में अपने ऊपर कुछ नियंत्रण रखने होंगे। उसे वकीलों से राजनीतिक दलों, उनके नेताओं से, मंत्रियों आदि से सामाजिक समारोहों के अतिरिक्त अन्य प्रकार के मेल मिलाप नहीं रखना चाहिये।“ उन्होंने कहा कि “न्यायपालिका अपने गुप्त भवनों में, जिन्हें भ्रष्ट और बेईमान न्यायाधीश सुरक्षा कवच समझते हैं, सूर्य का प्रकाश आने से भयभीत नहीं है परंतु सूर्य का प्रकाश आने से भयभीत नहीं है परंतु सूर्य का प्रकाश इतना अधिक और प्रभावी न हो जाय कि उससे शरीर की खाल ही जल जाय।“

यह सत्य है कि पिछले कुछ महिनों से, विशेषकर जब से न्यायमूर्ति एस.एच. कपाडिया सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पद पर आसीन हुए हैं, सर्वोच्च न्यायालय ने जनता की आशाओं में पर लगा दिये हैं, न्यायापालिका के प्रति सम्मान बढ़ा है और लोकतंत्र को मजबूती प्रदान हुई है परंतु भ्रष्ट न्यायाधीशों पर अंकुश नहीं लग पा रहा है। हम भूले नहीं है कि सर्वोच्च न्यायालय के भूतपूर्व न्यायाधीश रामा स्वामी पर संसद में जब भ्रष्टाचार का महाअभियोग चला था उस समय उनके भ्रष्टाचार की पैरवी करने में, उसे सही ठहराने में केन्द्रीय मंत्री कपिल सिब्बल आगे आये थे, उन्हीं तर्कों के साथ जो आज वह टू जी स्पैक्ट्रम और कामनवेल्थ खेल घोटालों के बचाव में दे रहे हैं- “कोई घोटाला नहीं हुआ”, “कोई नुकसान नहीं हुआ” इत्यादि-इत्यादि।

आज भी भ्रष्टाचार के आरोपों से बुरी तरह से घिरे सिक्किम हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पी.डी. दिकरन के प्रकरण पर अच्छी-अच्छी, सुन्दर-सुन्दर और उपदेशात्मक बातें करने वाले उच्चतम न्यायालय के व्यवहार पर आश्चर्य होता है। सिक्किम हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बनने के पूर्व वह कर्नाटक हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश थे। उनका नाम उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश पद के लिये प्रस्तावित किया गया था, यद्यपि वह भ्रष्टाचार के अनेकों आरोपों में लांक्षित थे। उन पर जमीन घोटालों, आय से कई हजार गुना अधिक सम्पति बटोरने, भूमि सीमाबन्दी से अधिक जमीन रखने, सार्वजनिक, सरकारी एवं दलितों की भूमि पर जबरदस्ती कब्जा करने, साक्ष्यों को नष्ट करने, विक्रय प्रपत्रों में सम्पति का वास्तविक मूल्य से कम मूल्य दिखाने और इस प्रकार कर चोरी करने, स्टैम्प ड्यूटी की चोरी करने, गैर कानूनी निर्माण करने, बेनामी ट्रांसज्कशनस करनें, तमिननाडु हाउसिंग बोर्ड द्वारा अपनी पत्नी एंव पुत्रियों के नाम से पांच प्लाट आबंटित कराने इत्यादि के अनेकों आरोप हैं। इतना ही नहीं दिनकरन पर आरोप हैं कि उन्हांेपे कर्नाटक हाईकोट के मुख्य न्यायधीश पद पर रहते समय नियमों के विरूद्ध जानबूझ कर गलत एवं बेईमानी भरा प्रबन्धन किया, वह न्यायाधीशों का क्रम इस प्रकार निश्चित करते थे जिससे बेईमानीपूर्ण न्यायिक निर्णय दिये जा सकें। उनको अविलम्ब हटाने, उनके ऊपर लगे आरोपों की जांच के लिये, कर्नाटक के अधिवक्ताओं ने धरना दिया, प्रदर्शन किये, हड़तालों की, अदालतों का बहिष्कार किया। संसद में भी इस भ्रष्टाचारी न्यायाधीश के करतूतों की गूंज उठी।

इन तमाम आन्दोलनों की अगुवाई मुख्यतः कर्नाटक उच्च न्यायालय के वरिष्ठ एडवोकेट श्री पी.पी. राव एवं कमेटी फार जुडीशियल एकाउन्टेबिलिटी के संयोजक वरिष्ठ एडवोकेट श्री वागाई कर रहे थे। अन्ततः दिकरन के ऊपर लगे आरोपों की जांच के लिये एक तीन सदस्यीय कमेटी गठित की गई जिसमें उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति आफताब आलम, कर्नाटक उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति जे.एस. केहर एवं वरिष्ठ एडवोकेट श्री पी.सी. राव थे। जनता और अधिवक्ताओं के दबाव के चलते पी.डी. दिनकरन को कर्नाटक उच्च न्यायाधीश के मुख्य न्यायाधीश के पद से सिक्किम उच्च न्यायालय के मुख्य पद पर स्थानान्तरण कर दिया गया। प्रश्न उठता है कि यदि सरकार और उच्चतम न्यायालय ने दिनकरन जैसे बेईमान और भ्रष्ट न्यायाधीश को जेल की राह नहीं दिखाई तो उन्हें कम से कम कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश सौमित्र सेन की भांति, जिनके ऊपर भी भ्रष्टाचार के आरोप हैं, जबरन छुट्टी पर क्यों नहीं भेजा? जिसके ऊपर भ्रष्टाचार के अनेकों गंभीर आरोप लगे हों, उनकी जांच चल रही हो और जांच समिति में उच्चतम न्यायालय का एक वर्तमान न्यायाधीश हो, उस आरोपित न्यायाधीश को दूसरे राज्य का मुख्य न्यायाधीश बना दिया जाय? यह कैसी और किस प्रकार की न्यायिक पारदर्शिता और निर्णय है?

इतना ही नहीं पराकाष्ठा तो उस समय हो गई जब उच्चतम न्यायालय की जस्टिस एस.एस. बेदी और जस्टिस के.सी. प्रसाद की खण्डपीठ ने दिकरन के इम्पीचमेंट (न्यायाधीश की नौकरी से बर्खास्त किये जाने की कार्यवाही) से पूर्व होने वाली जांच को ही रोक दिया। स्मरण रहे कि दिनकरन के खिलाफ आरोपों की जांच के लिए बनायी गयी तीन सदस्यीय समिति को राज्य सभा ने बनाया था जिसमें उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति आफताब आलम, कर्नाटक उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति जे.एस. केहर और कर्नाटक उच्च न्यायालय के वरिष्ठ एडवोकेट श्री पी.पी. राव थे।

इस तीन सदस्यीय समिति ने दिनकरन को नोटिस भेज कर चेताया था कि वे अपने ऊपर लगाये गये 16 आरोपों का 20 अप्रैल, 2011 तक उत्तर दें अन्यथा समिति अपनी आगे की कार्यवाही करेगी।

इस बीच दिनकरन ने उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की कि चूंकि वरिष्ठ अधिवक्ता श्री पी.पी. राव, जो समिति के सदस्य हैं उनसे (दिनकरन से) दुराग्रह रखते हैं अतः जब तक वह जांच समिति में हैं तब तक समिति निष्पक्ष जांच नहीं कर सकती। उच्चतम न्यायालय ने इसी अपील के आधार पर पूरी जांच पर ही रोक लगा दी। वाह! बहुत खूब! प्रश्न उठता है कि राज्य सभा के निर्णय पर उच्चतम न्यायालय ने रोक क्यों लगायी? हमारे देश में तो संसद ही सर्वोपरि है। इसके उपरान्त भी यदि श्री पी.पी. राव, एडवोकेट, से दिनकरन को निष्पक्षता की आशा नहीं थी तो उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति आफ़ताब आलम और कर्नाटक उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति केहर भी क्या दिनकरन से दुराग्रह रखते थे? यदि उच्चतम न्यायालय इतनी निष्पक्षता और पादर्शिता का हिमायती है और भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए कृत संकल्प है, तो उसे श्री पी.पी. राव, एडवोकेट, के स्थान पर किसी अन्य को समिति में नियुक्त करने का आदेश देना चाहिए था। क्या उच्चतम न्यायालय का यह आदेश न्यायमूर्ति आफ़ताब आलम और न्यायमूर्ति केहर का अपमान नहीं है? उच्चतम न्यायालय के इस निर्णय से कौन से तत्वों को, किस प्रकार के लोगों को प्रोत्साहन मिलेगा?

दिनकरन की ही भांति उच्चतम न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एवं राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष के.जी. बालाकृष्णन पर भी आय से अधिक सम्पत्ति रखने, बेनामी सम्पत्तियां रखने, अपने परिवार के सदस्यों द्वारा की गयी बेईमानी, भ्रष्टाचार आदि कुकृत्यों पर पर्दा डालने के आरोप हैं। बालाकृष्णन तो अपनी सम्पत्ति का विवरण देने के लिए भी तैयार नहीं है। उन्होंने जो आयकर रिटर्न दाखिल किये हैं उसका भी वह खुलासा करने से मना कर रहे हैं।

दिनकरन, सौमित्र सेन बालकृष्णन की भांति ही देश के लगभग पचास से अधिक न्यायाधीशों के विरूद्ध बेईमानी, भ्रष्टाचार, आय से अधिक सम्पत्ति रखने, हेराफेरी, धोखाधड़ी, नाजायज सम्पत्ति रखने, अपने मित्रों/सम्बन्धियांे के साथ पक्षपात करने और उनको लाभ पहुंचाने आदि के मुकदमें चल रहे हैं।

देखना है कि उच्चतम न्यायालय कब अपने घर-न्यायापालिका में गंदगी फैलाने वालों पर चाबुक चलाती है, उन्हें बाहर का रास्ता दिखाती है।
- राम किशोर
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सरकार का पीछा कर रहे हैं भ्रष्टाचार और काले धन के मुद्दे



भ्रष्टाचार का मुद्दा कांग्रेस नीत यूपीए-दो सरकार का पीछा नहीं छोड़ रहा है। इसका कारण स्पष्ट हैं इस सरकार के पहले दो साल के अरसे में सरकार की ऊंची जगहों पर भ्रष्टाचार के इतने मामले बेनकाब हुए हैं जैसे पहले कभी नहीं हुए। इन घोटालों में शामिल रकम इतनी बड़ी हैं कि दिमाग चकरा जाता है। देश की जनता ने मनमोहन सिंह की सरकार को भ्रष्टाचार का पर्यायवाची मानना शुरू कर दिया है।

भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जनता की बढ़ती जागरूकता ने यूपीए सरकार को सांसत में डाल दिया है। भ्रष्टाचार शब्द के जिक्र मात्र से सरकार को सांप सूंघ जाता है। केन्द्र में लोकपाल और राज्यों में लोक आयुक्त संस्था बनाने के लिए कानून बनाने की मांग करते हुए जब सामाजिक कार्यर्ता अन्ना हजारे अनिश्चितकालीन हड़ताल पर बैठे तो हमने सरकार को बचाव का कोई रास्ता तलाश करने के लिए व्याकुल होते देखा। चार ही दिन के अंदर सरकार ने घुटने टेक दिये और एक दस सदस्यीय संयुक्त मसविदा समिति (ज्वायंट ड्राफ्टिंग कमेटी) बना दी गयी जिसमें पांच सदस्य अन्ना हजारे द्वारा नामित थे।

अब योग गुरू रामदेव खासतौर पर विदेशी बैंकों में जमा काले धन के मुद्दे पर भूख हड़ताल पर जाने पर अड़ गये हैं तो सरकार के हाथ पांव फूल गये हैं सरकार बुरी तरह हड़बड़ायी हुई है। मंत्रीगण और वित्त मंत्रालय के शीर्ष अधिकारी योग गुरू के पास भागे फिर रहे हैं। अन्ना हजारे के मामले मेें शीर्ष कार्पोरेटों द्वारा समर्थित नवगठित सिविल सोसायटी ने भूख हड़ताल पर बैठे हजारे के साथ एकजुटता का तमाम

प्रबंध किया था। पर रामदेव के साथ अपने सवयं के योग शिविरों के अनुयायी हैं। उन्होंने दावा किया कि 4 जून से एक करोड़ लोग उनकी भूख हड़ताल में शामिल होंगे। जाहिर है सरकार इस तरह के जबर्दस्त आंदोलन के हलके तरीके से नहीं ले सकती।

इन दो आंदोलनों को जनता का स्वतः स्फूर्त समर्थन मिला है क्योंकि 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले, राष्ट्रमंडल खेल घोटाले और आदर्श सोसायटी घोटाले के मामले में सरकार जिस तरह से पेश आयी लोगों ने उसे मामलों को रफा-दफा करने की कोशिश के रूप में देखा। लोगों को सीबीआई (सेन्ट्रल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन) और सीवीसी (चीफ़ विजिलेंस कमिश्नर) जैसी वर्तमान संस्थाओं से विश्वास ही उठ गया। सरकार ने एक आरोपित एवं दागदार नौकरशाह पीजे थॉमस को सीवीसी नियुक्त किया, पर सर्वोच्च न्यायालय ने उस नियुक्ति को खारिज कर दिया। इससे स्वयं इस संस्थान की ही साख कम हो गयी है।

जहां तक सीबीआई की बात है, एक के बाद दूसरी सरकारों ने उसे अपने राजनैतिक औजार के रूप मंे इस्तेमाल किया है जिससे उसकी साख एवं विश्वसनीयता खत्म ही हो गयी है। यदि कोई पार्टी या व्यक्ति आसानी से सरकार के पक्ष में नहीं आता तो सीबीआई को उसके विरूद्ध जांच में तेजी लाने के लिए कह दिया जाता है, वह घुटने टेक देता है; तो उसकी फाइलों को ताक पर रखवा दिया जाता है। इस गंदे खेल में कांग्रेस और भाजपा दोनों बरारबर की गुनाहगार हैं। लोगों को निराश और परेशान करने वाली बात है लम्बी चलने वाली न्यायिक प्रक्रिया जिसका वास्तव में भ्रष्ट लोग वाजिब सजा से बचने के लिए बुरी तरह फायदा उठाते हैं।

इस तरह की हालत में भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए किसी नये तंत्र की ललक एक स्वाभाविक सी बात है। जनता एक ऐसा तंत्र चाहती है जो कठोर और पारदर्शी हो, जो जांच-पड़ताल करे, गलत कामों का पता लगाये और अपराधियों को सजा दिलाने में मददगार की भूमिका अदा करे। इस पृष्ठभूमि में केन्द्र में लोकपाल और राज्यों में लोक आयुक्त संस्था की अवधारणा लोगों के दिलों-दिमाग में घर कर गयी है।

सरकार यद्यपि अभी भी दावा कर रही है कि संयुक्त मसविदा समिति 10 जून तक अपना काम पूरा कर लेगी और संसद के मानसूत्र सत्र में बिल पेश किया जा सकता है पर मसविदा तैयार करने के लिए अपनायी गयी प्रक्रिया और कुछ मुद्दों पर विवाद से यह नजर आता है कि यह काम निर्धारित समय में संभवतः नहीं हो पायेगा।

पर विवादित मुद्दों में से कुछ पर जाने से पहले यह बताना संदर्भ से हटकर नहीं होगा कि लोकपाल की संस्था के निर्माण का विचार पहली बार 1997 में उस समय लाया गया था जब देवगौड़ा के नेतृत्व में संयुक्त मोर्चा सरकार सत्ता में थी। यही वह एकमात्र मौका था जब केन्द्र सरकार में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के दो मंत्री थे। आज बहुत से जिन मुद्दों को ताजे और नये मुद्दों का नाम दिया जा रहा है वे उस समय तैयार दस्तावेज में शामिल थे।

उस समय भी यह खुलासा किया गया कि लोकपाल का संस्थान एक “सुपरकोप” (यानी ऐसा अधिकारी जिसकी हैसियत सबसे ऊपर हो) नहीं होगा। वह जांच-पड़ताल करने वाला, मुकदमा चलाने वाला और जज-तीनों काम एक ही संस्थान के हाथ में हों, ऐसा संस्थान नहीं होगा। तीनों शक्तियां एक ही संस्थान में रहे, हमारा

संविधान इसकी इजाजत नहीं देता। संयोग से, संयुक्त मसविदा समिति के एक सदस्य प्रशांत भूषण ने भी इसी बिन्दु को दोहराया है। उन्होंने लिखा है:

“लोकपाल के प्रशासकीय एवं सुपरवाइजरी अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत एक जांच पड़ताल शाखा और एक मुकदमा चलाने वाली (प्रोसीक्यूटिंग) शाखा होगी। यदि जांच-पड़ताल शाखा पाती है कि भ्रष्टाचार का अपराध किया गया है तो वह मामले को प्रोसीक्यूटिंग शाखा को भेज देगी जो स्पेशल कोर्ट-जो सामान्य न्यायिक व्यवस्था का एक हिस्सा होगा- में उस मुकदमें को चलायेगी। स्पेशल कोर्ट लोकपाल के तहत नहीं होगा। लोकपाल केवल समय-समय पर यह मूल्यांकन एवं निर्धारण करेगा कि भ्रष्टाचार के मुकदमों की सुनवाई को तेजी से पूरा करने के लिए इस तरह के कितने कोर्टो की जरूरत है और सरकार की जिम्मेदारी होगी कि उतनी संख्या में स्पेशल कोर्ट बनायें” (टाईम्स ऑफ इंडिया, 1 जून, 2011)।

उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि स्पेशल कोर्ट के फैसले को हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकेगी।

30 मई को संयुक्त मसविदा समिति की अंतिम बैठक में जो पांच विवादस्पद मुद्दे उभर कर आये हैं, उनमें यह भी शामिल है कि प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में आना चाहिये। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने एनडीए के शासन के दिनों में भी इस मांग का समर्थन किया था। एक अन्य कुछ जटिल मुद्दा इस मांग के संबंध में है कि बिल में यह प्रावधान भी होना चाहिए कि संसद में संसद सदस्यों के आचरण भी उसके दायरे में आयें। यह सच है कि निर्णायक विश्वासमत के दौरान संसद सदस्यों की खरीद-फरोख्त हुई और कई संसद सदस्यों को (अधिकांशतः वे भाजपा के हैं) को प्रश्न पूछने के एवज में पैसा लेने के आरोप में सजा दी गयी। जो भी, हम इस मुद्दे पर बहस करना चाहते हैं क्योंकि इसके साथ संसद की सर्वाेच्चता की बात जुड़ी हुई है।

सभी नौकरशाहों को लोकपाल के दायरे में लाने जैसे मुद्दों पर कोई विवाद नहीं होगा हालांकि संयुक्त मसविदा समिति में यूपीए-दो के प्रतिनिधि इस पर बतंगड़ खड़ा कर रहे हैं। इसी प्रकार सीबीआई और सीवीसी जैसी अन्य जांच एजेंसियों को लोकपाल के तहत लाने के मुद्दे पर विचार-विमर्श की जरूरत है। जैसा कि पहले कहा गया इन संस्थानों की साख एवं विश्वसनीयता खत्म हो गयी है क्योंकि सरकारों ने अपने हितों के लिए इनका घोर दुरूपयोग किया है। मुद्दा यह हैः क्या इन सब को लोकपाल संस्थान के साथ मिला देने पर वही उद्देश्य खत्म नहीं हो जायेगा जिसके लिए यह संस्थान बनाया जा रहा है। यह कहना काफी नहीं होगा कि लोकपाल पारदर्शी तरीके से काम करेगा और उसका सारा कार्यकलाप वेबसाईट पर होगा। उसे एक सतर्क प्रहरी की तरह रहना चाहिए।

जैसा कि संयुक्त मसविदा समिति के अध्यक्ष प्रणव मुखर्जी ने कहा है कि इन सब विवादस्पद मुद्दों को राज्यों और राजनैतिक पार्टियों और सिविल सोसायटी के अन्य तबकों को उनकी राय जानने के लिए भेजा जाएगा। आशा करें कि संविधान के फ्रेमवर्क के अंदर ही एक बेहतर मतैक्य बन जाएगा।

कालेधन के जिस मुद्दे को योगगुरू रामदेव ने अपने आंदोलन का मुख्य बिन्दु बनाया है उस संबंध में वास्तव में तेजी से समाधान निकालने की जरूरत है। वामपंथी पार्टियां लम्बे अरसे से मांग करती रही है कि विदेशी बैंकों में जमा पैसे को वापस लाया जाए। यह राष्ट्रीय परिसम्पत्ति है जिसे गैर कानूनी तरीके से दूर विदेश में जमा किया गया है। इसी के साथ ही देश के अंदर काले धन का पता लगाने की जरूरत है क्यांेकि इसने देश में अनाचार मचा रखा है। देश में काले धन की समानांतर अर्थव्यवस्था चल रही है जो कभी-कभी वास्तविक अर्थव्यवस्था से भी बड़ी नजर आती है।

भ्रष्टाचार और काले धन के विरूद्ध संघर्ष करते हुए तमाम बुराईयों की जड़ को नहीं भूलना चाहिये। इन सब बुराईयों का मूलभूत कारण है लालच। अधिकांश राजनैतिक पार्टियां आर्थिक नवउदारवाद की जिन नीतियों के लिए प्रतिबद्ध है उन नीतियों ने लोगों में बड़े पैमाने पर लालच पैदा कर दिया है। हर कोई जैसे-तैसे किसी भी तिकड़म से सुपर मुनाफा कमाना चाहता है। इसके फलस्वरूप सर्वव्यापक भ्रष्टाचार और काले धन के सृजन में बेतहाशा वृद्धि हुई हैं। अर्थव्यवस्था की अनेक बुराईयों में इस या उस बुराई के विरूद्ध संघर्ष के भेष में पूंजीवाद के खिलाफ, आर्थिक नवउदारवाद के इसके वर्तमान अवतार के खिलाफ असली संघर्ष से ध्यान डाइवर्ट नहीं होना चाहिए।
- शमीम फ़ैजी
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