भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रकाशन पार्टी जीवन पाक्षिक वार्षिक मूल्य : 70 रुपये; त्रैवार्षिक : 200 रुपये; आजीवन 1200 रुपये पार्टी के सभी सदस्यों, शुभचिंतको से अनुरोध है कि पार्टी जीवन का सदस्य अवश्य बने संपादक: डॉक्टर गिरीश; कार्यकारी संपादक: प्रदीप तिवारी

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मंगलवार, 26 फ़रवरी 2013

सीतापुर में जल सत्याग्रह को भाकपा का समर्थन

    लखनऊ 26 फरवरी। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव मंडल की ओर से जारी प्रेस बयान में भाकपा ने सीतापुर जनपद के गांजर क्षेत्र की जनता द्वारा शारदा नदी के तट पर कल 25 फरवरी से शुरू किये गये जल सत्याग्रह का समर्थन किया है। भाकपा की ओर से भाकपा के प्रांतीय कोषाध्यक्ष प्रदीप तिवारी ने मुख्यमंत्री तथा क्षेत्रीय सांसद जितिन प्रसाद को प्रेषित एक पत्र में कहा है कि -
    ” लखीमपुर, सीतापुर और बहराईच जनपदों से गुजरने वाली शारदा एवं घाघरा नदियों द्वारा अपना पाट बार-बार बदलने से उस क्षेत्र में इन नदियों के बीच में तथा किनारों पर बसने वाले गांव अपना अस्तित्व लगातार खोते रहे हैं। यह बहुत ही गंभीर समस्या है। सीतापुर और बहराईच जनपद आपस में भौगोलिक रूप से सटे हुए हैं परन्तु सीतापुर से बहराईच का कोई रास्ता आज तक नदियों के पाट बदलते रहने के कारण नहीं बन सका है। वर्षा काल में ये नदियों विकराल होकर प्रलय सहोदरायें बन जाती हैं।
सत्तर के दशक से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी इन दोनों नदियों पर लखीमपुर, सीतापुर और बहराईच जनपदों में बांध बनाने की मांग करती रही है और इसके लिए कई बार आन्दोलन भी किये गये हैं।
इसी मांग को लेकर सीतापुर जनपद की जनता द्वारा कल से शुरू किये गये जल सत्याग्रह का भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी समर्थन करती है और आपसे मांग करती है कि इन दोनों नदियों पर बांध बनाने के लिए एक उच्च स्तरीय विशेषज्ञ कमेटी नियुक्त की जाये जो तीन माह के भीतर इस परियोजना का ब्लू प्रिंट तैयार करे तथा राज्य सरकार उसे अमली जामा पहनाने के लिए आवश्यक बजट आबंटित करे।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी आपसे यह भी अनुरोध करती है कि पिछली बाढ़ में विस्थापित हुए परिवारों के पुनर्वास हेतु तुरन्त बजट आबंटित किया जाये।“
यहां जारी एक प्रेस बयान में भाकपा ने कहा है कि सीतापुर कलेक्ट्रेट में आज खाद्य सुरक्षा को लेकर आयोजित एक धरने में भाकपा कार्यकर्ताओं ने भी जल सत्याग्रह को भी समर्थन दिया तथा मुख्यमंत्री को सम्बोधित एक ज्ञापन जिलाधिकारी को दिया।

कार्यालय सचिव


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बुधवार, 20 फ़रवरी 2013

मजदूरों-कर्मचारियों की हड़ताल के समर्थन में सड़कों पर उतरी भाकपा

लखनऊ 20 फरवरी। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव मंडल ने आज से शुरू हुई मेहनतकशों की दो दिवसीय आम हड़ताल को बेहद सफल बताते हुए इसके लिए मजदूरों एवं कर्मचारियों के तमाम संगठनों को बधाई दी है। भाकपा ने हड़ताल का समर्थन करने के लिए आम जनता को भी धन्यवाद दिया है।
यहां जारी एक प्रेस बयान में भाकपा राज्य सचिव डा. गिरीश ने दावा किया कि उत्तर प्रदेश में भी यह हड़ताल बेहद सफल है। जिलों-जिलों में हड़ताली कर्मचारी एवं मजदूरों के समर्थन में भाकपा कार्यकर्ता भी सड़कों पर उतरे। राजधानी लखनऊ में भाकपा राज्य सचिव डा. गिरीश, वरिष्ठ नेता अशोक मिश्र, राज्य कार्यकारिणी सदस्य प्रदीप तिवारी, राज्य कौंसिल सदस्य परमानन्द द्विवेदी, जिला सचिव मो. खालिक, विजय राजबली माथुर एवं महेन्द्र रावत समेत तमाम नेतागण मजदूरों के समर्थन में प्रदर्शन में शामिल हुए।
नोएडा में हुई तोड़-फोड़ एवं आगजनी पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए भाकपा राज्य सचिव मंडल ने कहा कि राष्ट्र स्तर पर मजदूर वर्ग की शान्तिपूर्ण एवं व्यापक कार्यवाही को यह बदनाम करने की साजिश है। मजदूर वर्ग को इस हड़ताल का उद्देश्य, लक्ष्य एवं मर्यादायें भलीभांति मालूम हैं और वह ऐसी कार्यवाही नहीं कर सकता। अतएव घटना की उच्चस्तरीय जांच कराये जाने की जरूरत है।
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मंगलवार, 19 फ़रवरी 2013

भावी लोक सभा चुनाव में वोट साधने का टोटका मात्र है उत्तर प्रदेश सरकार का दूसरा आम बजट - भाकपा

लखनऊ 19 फरवरी। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव डॉ. गिरीश ने कहा कि आज विधान सभा में प्रस्तुत उत्तर प्रदेश सरकार का दूसरा आम बजट बजट कम चुनावी भाषण ज्यादा नजर आता है। इसमें न कोई नयापन है न किसी महत्वपूर्ण नयी योजना की घोषणा। यद्यपि बजट में समाज के विभिन्न तबकों के लिए कुछ न कुछ धन का आबंटन किया गया है लेकिन सारा बजट सामाजिक समीकरणों और अंततः वोट साधता नजर आता है। प्रदेश के विकास और रोजगार सृजन का कोई ब्लूप्रिंट इस बजट से नहीं उभरता है।
अल्पसंख्यकों, दलितों, कमजोरों, महिलाओं की मूल जरूरतें - शिक्षा व रोजगार आदि हैं। कब्रिस्तान, लैपटाप अथवा बेरोजगारी भत्ता नहीं। इसी तरह प्रदेश को सर्वाधिक जरूरत बिजली के बड़े पैमाने पर निर्माण की है लेकिन इसके लिए बजट में कोई आबंटन नहीं। केवल गाँव-मजरों को कनेक्शन देने की बात कही गयी है। पहले से ही भारी विद्युत संकट झेल रहे प्रदेश के लिए ये घोषणाएं बेकार हैं। आखिर जब बिजली बनेगी ही नहीं तो उसकी सप्लाई कहाँ से होगी।
बुन्देलखण्ड के विकास के लिए 109 करोड़ और पूर्वांचल के 27 जिलों के लिए 100 करोड़ का आबंटन ऊंट के मुंह में जीरा है। 24 हजार करोड़ रूपये का राजकोषीय घाटा महंगाई बड़ाने का काम करेगा। सार्वजनिक क्षेत्र के किसी उद्योग को खोलने की घोषणा इसमें नहीं है।
डॉ. गिरीश ने कहा कि विपक्षी दलों की इस आशंका में दम है कि जब पिछले बजट की धनराशि का बड़ा भाग उपयोग में नहीं लाया जा सका तो भविष्य में इसके इस्तेमाल की क्या गारंटी है? घोषणाओं और योजनाओं को लागू करने की इच्छा शक्ति का इस बजट में बेहद अभाव है।
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रविवार, 17 फ़रवरी 2013

भाकपा राज्य कौंसिल की बैठक सम्पन्न - आन्दोलन एवं संगठन सम्बंधी कई निर्णय लिये गये

लखनऊ 17 फरवरी। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राज्य कौंसिल की दो दिवसीय बैठक आज यहां सम्पन्न हुई। बैठक में राज्य सचिव डा. गिरीश ने राजनैतिक एवं सांगठनिक रिपोर्ट पेश की। रिपोर्ट पेश करते हुए डा. गिरीश ने केन्द्र सरकार पर आरोप लगाये कि वह लगातार जनविरोध की अपनी राजनीति को बेशर्मी से लागू कर रही है। बार-बार पेट्रोल-डीजल, यहां तक कि रसोई गैस के दाम बढ़ाये जा रहे हैं और मंहगाई को और परवान चढ़ने का रास्ता खोला जा रहा है। भ्रष्टाचार थमने का नाम नहीं ले रहा है और नये-नये घोटाले प्रकाश में आने से सरकार की साख बुरी तरह क्षीण हुई है। साम्प्रदायिक शक्तियों से खुल कर लड़ने के बजाय केन्द्र सरकार साम्प्रदायिक ताकतों से लड़ने का बहाना कर रही है। केन्द्र का हर कदम वोट की राजनीति से प्रेरित है। यही वजह है कि भाजपा जैसी साम्प्रदायिक शक्तियां इसका लाभ उठाने की पूरी कोशिश कर रही हैं।
सूबे की समाजवादी पार्टी की सरकार को हर मोर्चे पर विफल बताते हुए भाकपा ने आरोप लगाया कि इस सरकार के कार्यकाल में अपराध और भ्रष्टाचार पनप रहे हैं, साम्प्रदायिक शक्तियों को चुनौती देने में भी यह सरकार विफल रही है। सरकार में बैठे धनबली, बाहुबली लोग इस सूबे की जनता का निर्मम शोषण कर रहे हैं। सरकार के खिलाफ तमाम जनांदोलन पनप रहे हैं जिनको दबाने के लिए यह सरकार जनवादी अधिकारों का हनन कर रही है। यहां तक कि राज्य की राजधानी में विधान सभा के समक्ष होने वाले धरना-प्रदर्शन को फिर से रोकने के कदम उठाये जा रहे हैं। किसानों के सवाल जस के तस बने हुए हैं। गन्ना खरीद केन्द्रों पर धांधली है, गन्ने का पुराना भुगतान कराया नहीं गया है और कर्ज में डूबे किसानों के कर्ज माफ करने के बजाय सरकार उन्हें हवालातों में ठूंस रही है। भाकपा राज्य सरकार के किसान-मजदूर विरोधी कदमों के खिलाफ लगातार संघर्षरत है।
राज्य कौंसिल बैठक में निर्णय लिया गया कि एपील-बीपीएल का भेद किये बिना सभी परिवारों को हर माह पैतीस किलो अनाज 2 रूपये किलो की दर पर मुहैया कराने, सार्वजनिक वितरण प्रणाली को मजबूत करने और उसे भ्रष्टाचार से मुक्त बनाने तथा इस सम्बंध में एक खाद्य सुरक्षा विधेयक जल्द से जल्द पारित कराने हेतु 26 फरवरी को दिल्ली में रैली कर 5 करोड़ हस्ताक्षरों वाले ज्ञापन प्रधानमंत्री को सौंपे जायें। इसके लिए उत्तर प्रदेश से मेरठ मंडल, सहारनपुर मंडल, मुरादाबाद मंडल, बरेली मंडल, कानपुर मंडल, अलीगढ़ मंडल, आगरा मंडल एवं बुन्देलखण्ड के जनपदों से हजारों कार्यकर्ताओं को दिल्ली भेजा जायेगा। इन मंडलों के अतिरिक्त जनपदों में भाकपा 26 फरवरी को ही जिला केन्द्रों पर धरने-प्रदर्शन करके प्रधानमंत्री के लिए ज्ञापन जिलाधिकारियों को सौंपेगी।
20-21 फरवरी को 11 केन्द्रीय श्रम संगठनों तथा दर्जनों कर्मचारी फेडरेशनों द्वारा मंहगाई, भ्रष्टाचार के खिलाफ, सार्वजनिक क्षेत्र के निजीकरण के खिलाफ तथा मजदूरों के अधिकारों में कटौती के खिलाफ होने जा रही हड़ताल को भाकपा ने सक्रिय समर्थन देने का निर्णय लिया है।
भाकपा राज्य कौंसिल ने मुस्लिम अल्पसंख्यकों के सवाल पर मऊ एवं गाजियाबाद में पूर्वांचल एवं पश्चिमांचल के दो अलग-अलग कन्वेंशन आयोजित करने का निर्णय भी लिया है। भाकपा राज्य कौंसिल ने एक प्रस्ताव पारित करके निर्दोष मुस्लिम नौजवानों को बिना सजा के ही लम्बे समय तक जेलों में रखने के बारे में बनाये गये न्यायमूर्ति आर.डी. निमेष आयोग की रिपोर्ट को सार्वजनिक करने और उसकी सिफारिशों को लागू करने की मांग राज्य सरकार से की है।
भाकपा राज्य कौंसिल ने निर्णय लिया है कि पेट्रोल और डीजल के दामों में की गयी बढ़ोतरी के खिलाफ जिलों-जिलों में लगातार विरोध प्रदर्शन आयोजित किये जायें।
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गुरुवार, 14 फ़रवरी 2013

राम और मोदी किन-किन के लिए जरूरी हैं?

2014 में लोक सभा चुनाव होने हैं। सबसे बड़ा प्रदेश होने के कारण देश की राजनीति में उत्तर प्रदेश ने हमेशा महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है क्योंकि लोकसभा के लिए 80 सदस्य केवल इस प्रदेश से ही चुने जाते हैं। पिछले कुछ दशकों में उत्तर प्रदेश की जनता धार्मिक एवं जातीय संकीर्णता में जकड़ गयी है, जिसके कारण प्रदेश की राजनीति मुख्य चार दलों - कांग्रेस, भाजपा, सपा एवं बसपा के बीच सिमट कर रह गयी है। प्रदेश में होने वाले मतदान का बड़ा हिस्सा इन्हीं चारों राजनीतिक दलों के बीच बट जाता है और लोकसभा के सीटें भी मुख्यतः इन्हीं के बीच बंट जाती हैं। प्राप्त होने वाले मतों में हल्का सा परिवर्तन परिणामों पर बहुत अधिक प्रभाव डालता है।
उदाहरण के लिए 2009 में हुये लोकसभा चुनावों में कांग्रेस के पक्ष में 6.3 प्रतिशत रूझान ने उसे 18.3 प्रतिशत मत एवं 21 सीटों पर विजय दिला दी थी, जबकि 2.5 प्रतिशत रूझान ने बसपा को 27.4 प्रतिशत मत एवं 20 सीटों पर विजय दिलाई थी जबकि भाजपा के मतों में 4.7 प्रतिशत कमी ने उसे 17.5 प्रतिशत मतों के साथ केवल 10 सीटों पर सीमित कर दिया था और सपा के मतों में 3.4 प्रतिशत कमी से वह केवल 23.3 प्रतिशत वोट पर सिमट गयी थी परन्तु उसे 23 सीटों पर विजय मिल गयी थी। उससे ठीक तीन साल बाद हुए विधान सभा चुनावों में कांग्रेस के वोट घट कर 11.65 प्रतिशत रह गये और उसे केवल 28 विधान सभा सीटों पर विजय मिली, उस वक्त सत्ताधारी बसपा के वोटों में हल्की से कमी से उसे केवल 25.91 प्रतिशत मतों पर सीमित कर दिया परन्तु उसे केवल 80 विधान सभा सीटों पर ही विजय मिल सकी जबकि सपा के वोट बढ़कर 29.13 प्रतिशत पहुंच गये और उसे 224 विधान सभा सीटों के साथ उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने का मौका मिला। भाजपा के वोटों में लगभग ढाई प्रतिशत की कमी परिलक्षित हुई और वह केवल 15 प्रतिशत मतों के साथ केवल 47 विधान सभा सीटों पर सिमट गयी थी। लोक सभा और विधान सभा चुनावों में मतों के रूझान में थोड़ा सा परिवर्तन देखा जाता रहा है। लोक सभा चुनावों में जनता का रूझान हल्का सा राष्ट्रीय दलों की ओर बढ़ जाता है।
2014 में प्रधानमंत्री होने का ख्वाब उत्तर प्रदेश से कई लोग पाले हुए हैं। कांग्रेस के युवराज राहुल तो हैं ही, सपा के मुलायम सिंह और बसपा की मायावती भी किसी से पीछे नहीं हैं। भाजपा में गड़करी के हटने पर राजनाथ सिंह अध्यक्ष बने हैं और भाजपा उत्तर प्रदेश में उनके नाम पर कार्ड खेलने की कोशिश कर सकती है।
राष्ट्रीय स्तर पर जिस तरह कांग्रेस और भाजपा तथा उत्तर प्रदेश के स्तर पर सपा और बसपा भ्रष्टाचार में लीन रही हैं, ये चारों दल यह नहीं चाहते हैं कि उत्तर प्रदेश के चुनावों में भ्रष्टाचार कोई मुद्दा हो। आर्थिक नीतियों के सवाल पर भी चारों दल नए आर्थिक सुधारों के ध्वजवाहक हैं और वे नहीं चाहते कि चुनावों के दौरान महंगाई और बेरोजगारी के मुद्दे खड़े हों। संक्षेप में यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि चार के चारों दलों का हित इसी में है कि 2014 के चुनाव मुद्दाविहीन राजनीति का शिकार बन जायें और इसीलिए ये चाहते हैं कि देश और उत्तर प्रदेश में संकीर्ण धार्मिक एवं जातीय ध्रुवीकरण तीव्र होकर उनके-उनके मतों की संख्या में बढ़ोतरी करे।
भाजपा लगातार अपने गिरते मत स्तर से बहुत चिन्तित है। गांधी की हत्या से लेकर गांधीवादी समाजवाद तक के सफर में उत्तर प्रदेश में उसे टिकने का मौका नहीं मिला और न ही ”भूखों को धर्म की जरूरत नहीं होती“ कहने वाले विवेकानन्द को अपनाने का ही कोई फायदा मिला। उसे केवल राम के सहारे ही केन्द्र में और राज्य में सत्ता में भागीदारी मिली थी और इसीलिए उसे राम की आज एक बार फिर जरूरत है। इसी जरूरत के मद्देनजर परिवार के उग्र मुखौटे विश्व हिन्दू परिषद द्वारा महाकुंभ मेले के अवसर पर इलाहाबाद में आयोजित तथाकथित धर्म संसद में भाजपा के नये अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने राम मंदिर पर अपनी पार्टी की प्रतिबद्धता दोहराई तो आरएसएस प्रमुख भागवत ने यहां तक उद्घोष कर डाला कि जो मंदिर बनायेगा वहीं सत्ता में आयेगा और जो सत्ता में आयेगा, उसे मंदिर बनाना ही होगा। लोगों का यह कयास था कि इलाहाबाद में मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित कर दिया जायेगा। परन्तु भाजपा और संघ के लोग जानते हैं कि मोदी का नाम केवल गुजरात में बिक सकता है, उत्तर प्रदेश में तो कतई नहीं। इसलिए उसी वक्त मोदी श्री राम कालेज आफ कामर्स दिल्ली में विकास की बात कर रहे थे।
अपने हालिया कुशासन में कांग्रेस, बसपा और सपा ने ऐसा कुछ किया नहीं है जिसका उन्हें सहारा हो। नई पीढ़ी के आर्थिक सुधार शेयर सूचकांक को ऊपर उठा सकते हैं लेकिन गरीबों के वोट नहीं दिला सकते। इसलिए ये तीनों यही चाहते हैं कि भाजपा राम का नाम ले, मोदी का नाम ले तो गरीब अल्पसंख्यकों का ध्रुवीकरण उनकी ओर हो सके। बसपा तो एक साल पहले हुए विधान सभा चुनावों में अपने कुकर्मों का फल भुगत भी चुकी है। सपा को भी मालूम है कि विधान सभा में मिले वोटों में इजाफे की गुंजाईश तो कतई है ही नहीं, उसमें कमी ही आयेगी। कांग्रेस को भी मालूम है कि अगर कहीं उसे उतने ही वोट मिले जो उसे एक साल पहले मिले थे तो 21 तो छोडिये 10 सीटें भी उत्तर प्रदेश में नहीं आनी हैं।
इसका स्पष्ट मतलब है कि राम और मोदी के नाम की जरूरत उत्तर प्रदेश में भाजपा के साथ-साथ कांग्रेस, सपा और बसपा को भी है। लोकतंत्र के लिए बेहतर यही होगा कि उत्तर प्रदेश की जनता राम और मोदी से किनारा काट जाये और चुनावों को मुद्दाविहीन न बनने दे।
- प्रदीप तिवारी
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मंगलवार, 12 फ़रवरी 2013

कामरेड टीकाराम सखुन - महान क्रंतिकारी एवं एक सच्चे कम्युनिस्ट

महान क्रांतिकारी एवं हरियाणा में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के प्रथम राज्य सचिव कामरेड टीकाराम सखुन का जन्म 4 फरवरी 1912 को शिमला में हुआ। उनका पैतृक गांव भूंगा था जो उस समय कपूरथला रियासत में नायब तहसीलदार का मुख्य केन्द्र था और आज पंजाब के होशियारपुर जिले में खंड विकास अधिकारी के कार्यालय के रुप में जाना जाता है। उनकी माता जी का नाम ओमपति एवं पिता का नाम सोहन लाल था, सोहन लाल ब्रिटिश प्रशासन में सुरक्षा अधिकारी के पद पर शिमला में कार्यरत थे इसलिए टीकाराम सखुन का जन्म स्थान शिमला था।
बालक टीकाराम जन्म से ही श्वेत रंगी थे उनकी चमड़ी, केश यहां तक कि उनकी भवें एवं आंखों की पलके तक भी सफेद थी। ऐसी सूरत के कारण वह अंग्रेजो के बच्चों की तरह लगता था। उनकी माता जी का परिवार आर्य समाजी था इसलिए उनकी माता जी पर भी आर्य समाज का प्रभाव रहा और टीकाराम के लालन-पालन पर भी आर्य समाज का प्रभाव पड़ा। लेकिन जब यें मात्र साढ़े चार वर्ष के थे तो इनकी माता जी का देहांत हो गया और उनकी बड़ी बहन बिमला देवी ने उनका पालन पोषण किया। पांच वर्ष की आयु में उन्हें ‘बिशप कॉटन’ स्कूल शिमला में दाखिल करा दिया गया, 1859 में अंग्रेजों के बच्चों के लिए यह स्कूल खोला गया था लेकिन बाद में एक विशेष वर्ग के भारतीय बच्चों को भी इसमें प्रवेश दिया जाने लगा। स्कूल में अ्रग्रेजों के बच्चों की संख्या अधिक थी और वे भारतीय बच्चों से बहुत धृणा करते थे और उनका मजाक उड़ाया करते थे हांलाकि भारतीय बच्चे भी बड़े-बड़े राजाओं, महाराजाओं के या उच्चाधिकारियों के होते थे।
विद्यार्थी जीवन में ही सखुन ने भारतीयों के प्रति अंग्रजों के व्यवहार को बहुत नजदीक से देखा, एक मामूली से मामूली अंग्रेज के सामने भी भारतीयों को बार बार गिड़गिडाते देखा। ऐसे वातावरण ने सखुन के दिल में अंग्रेजों के प्रति प्रबल संघर्ष की प्रवृति के बीज बो दिए। अंग्रेजो के बच्चों के व्यवहार के चलते उन्होंने छटी कक्षा में पढ़ते हुए बिशप कॉटन स्कूल छोड़ दिया और किसी को बिना बताए अपने बड़े भाई कल्याण सिंह के पास लाहौर पहुंच गये, उसने सखुन को डी.ए.वी. स्कूल में दाखिला दिला दिया। प्रथम विश्व युद्ध समाप्त हो चुका था और रोल्ट एक्ट पास हो चुका था। इस एक्ट के खिलाफ गांधी जी ने जन-आंदोलन छेड़ दिया था, कालेजों के साथ-साथ स्कूलों के विद्यार्थी भी इस आंदोलन में भारी संख्या में भाग ले रहे थे। सखुन भी अपने स्कूल के छात्रों के साथ बड़े जोशो खरोश के साथ इस आंदोलन में शामिल हुए और मात्र 10 वर्ष की उम्र में उन्हें 30-40 बच्चों के साथ गिरफ्तार करके बोर्स्टल जेल में भेज दिया गया।
जब सखुन के पिता जी को इस बात की खबर लगी तो वे लाहौर आये और उन्होंने पुलिस व जेल अधिकारियों को रजामंद कर लिया कि बालक के माफी मांगने पर उन्हें छोड दिया जायेगा, लेकिन सखुन ने माफी मांगने से साफ मना कर दिया और उनके पिता जी को निराश होकर वापस लौटना पड़ा। सन 1922 कें अंत में जेल से बाहर आने के बाद जब सखुन घर गये तो उनके पिता जी ने कहा कि या तो अपनी शर्मनाक हरकत छोड़ दो या घर छोड़ दो तो उन्होंने बड़ी नम्रता से उत्तर दिया कि ‘पिता जी मैं यह महसूस करता हूं कि इस घर को मेरी आवश्यकता नही है’। यह कह कर उन्होंने घर सदा के लिए छोड़ दिया। सखुन ने भाई कल्याण सिंह के पास आकर किसी तरह फिर डी.ए.वी. स्कूल में दाखिला लिया और मेहनत व लगन से पढ़ाई के चलते दसवीं कक्षा पास की और डी.ए.वी. कालेज में दाखिला लिया। डी.वी.ए. कालेज उन दिनों राजनीति का केन्द्र था और सखुन भी देश की आजादी के आंदोलन में सक्रिय हो गये और अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ाई में अगली कतारों में खड़े हो गये। सरकार ने डी.ए.वी. कालेज के प्राचार्य से टीकाराम को ठीक करने के लिए कहा तो प्राचार्य ने उन्हें कुछ दिन राजनीति छोड़ देने की सलाह दी। उन्होंने राजनीति छोड़ने के बजाए कालेज ही छोड़ दिया और एफ.सी. कालेज लाहौर में दाखिला लेकर वहां से बी.ए. की डिग्री प्राप्त की।
इसके बाद वे पूरे तौर पर सक्रिय राजनीति में उतर पड़े, बालकों वाला जोश अब होश में बदल गया था, सब बातें सोच-विचार कर करने लगे थे। हालांकि वे गांधी जी के असहयोग आंदोलन में शामिल हुए थे लेकिन उन्हें गांधी जी के रास्ते पर चलने में कोई औचित्य नजर नही आया। इसी समय में उनका झुकाव क्रांतिकारियों की ओर हुआ, इन्ही दिनों पंजाव नौजवान भारत सभा का गठन हुआ और वे इसमें शामिल हो गये। सन 1928 में सभी राजनीतिक पार्टियों ने साईमन कमीशन का विरोध करने का फैसला किया और लाहौर में इस विरोध प्रदर्शन की तैयारी में सखुन की महत्वपूर्ण भूमिका रही। 30 अक्तुबर 1928 को जब ‘साईमन कमीशन’ लाहौर आया तो उसके विरोध में काले झंडे उठाये, साईमन कमीशन वापस जाओं के नारे लगाते हुए विशाल प्रदर्शन किया, सखुन इस प्रदर्शन का नेतृत्व करने वाली टीम मे शामिल थे। इस प्रदर्शन से बौखलाकर प्रशासन ने जुलूस पर भंयकर लाठीचार्ज किया जिसमें काफी लोग घायल हो गये, लाला लाजपत राय की छाती पर काफी चोट आई और कुछ दिनों में ही लाला जी की मृत्यु हो गई।
इसी दौरान टीकाराम की मुलाकात हिन्दुस्तान सोशिलस्ट रिपब्लिकन आर्मी के कमांडर चन्द्रशेखर आजाद से हुई, उन्होंने सखुन को सलाह दी कि तुम क्रांतिकारी समाजवादी विचारों का अपनी वाणी एवं लेखनी से जनता में प्रचार करों और उन्होंने अपनी इस कला का अंत तक प्रयोग किया। वे अपने समय के प्रसिद्ध क्रांतिकारी शायर हुए और शायर होने के नाते ही उन्होंने अपना तखल्लुस ‘सखुन’ रखा था, सखुन का अर्थ है काव्य (शायरी)। इन्हीं दिनों सखुन भगतसिंह, चन्द्रशेखर जैसे बहुत सारे क्रांतिकारियों के विश्वसनीय साथी हो गये थे। सखुन ने युवा क्रांतिकारी बलदेव मित्र बिजली, इन्द्रपाल के साथ मिलकर उर्दू में ‘कड़क’ साप्ताहिक अखबार निकाला। क्रांतिकारी नजमों एवं राजनीतिक गतिविधियों के चलते सखुन पर विभिन्न धाराओं में मुकदमें चलाये गये और तीन मुकदमों में उन्हें एक-एक साल की कैद की सजा दी गई। लेकिन 5 मार्च 1931 को गांधी इर्विन समझौते के तहत सखुन सहित बहुत सारे क्रांतिकारियों को रिहा कर दिया गया। परन्तु भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव के बारे में कोई चर्चा न हो पाने के कारण तीनों को 23 मार्च 1931 को फांसी दे दी गई। पंजाब सहित पूरे देश के नौजवाानों का गुस्सा चरम सीमा पर था। इस समय सखुन ने कई नज्में लिखी, एक नज़्म में उन्होंने लिखा:-
कटे जो चन्द डालिया तो दरख्त में हो ताजगी।
कटे जो चन्द गरदनें तो कौम हो हरी-भरी।।
शहीद की जो मौत है वह कौम की हयात है।
हयात तो हयात है मौत भी हयात है।।
बाद में सखुन को अन्य क्रंातिकारियों के साथ ‘लाल पर्चा’ लिखने एवं छापने के जुर्म में गिरफ्तार कर लिया गया। इसी दौरान जेल मे बंद टीकाराम सखुन के बड़े भाई कल्याण सिंह बीमार पड़ गए और उन्हें टी.बी. हो गई। वे टी.बी. से उबर नही पाये और उनकी दुखद मृत्यु हो गई। अपने क्रांतिकारी सहयोगी व बड़े भाई की मृत्यु पर सखुन को बहुत दुख हुआ लेकिन उन्हें संस्कार में शामिल होने के लिये घर नही जाने दिया गया। सखुन को 3 साल की सजा हुई और झेलम जेल और शाही किले की जेल तक उन्हे भेजा जाता रहा, उन्होंने जेल को क्रंातिकारी समाजवादी विचारों का अध्यन केन्द्र बना लिया। इस दौरान वें अनेक क्रांतिकारियों से मिले औैैर काम के अनुभवों का आदान-प्रदान किया। 1937 के अंत में वे जबरदस्त बीमार पड़ गये थे। बीमारी की हालत में उन्हें 1938 के शुरु में रिहा कर दिया गया। इस दौरान वामपंथी शक्तियां साम्राज्यवाद के विरोध में एकता के साथ मुखर हो गई और मेंहनतकशों, बुद्धिजीवियों में उत्साह की नई तरंग पैदा हो गई, जनांदोलनों का एक तूफान खड़ा हो गया। कई राष्ट्रीय संगठन उभर कर सामने आये। 1936 में अखिल भारतीय किसान सभा, आल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन व प्रगतिशील लेखक संघ का गठन हुआ। मजदूर यूनियनंे भी अपने मतभेद भुलाकर 1938 तक आल इंडिया टेªड यूनियन कंाग्रेस (एटक) के झंडे के नीचे एकताबद्ध हो गई थी। इन सब घटनाओं का सखुन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा और वे बीमारी से थोड़ा ठीक होते ही साम्राज्यवाद विरोधी मोर्चे को मजबूत करने में जुट गये। इसी समय में अंग्रेजों ने बहुत सारे क्रंतिकारियों को काले पानी की सजा सुना कर अंडमान की जेल में भेज दिया। तमाम राजनीतिक पार्टियों की ओर से इन देश भक्तों की रिहाई की मांग उठने लगी और एक जबरदस्त आंदोलन खड़ा हो गया, लाहौर के क्रांतिकारियों के साथ मिलकर सखुन ने बंदी छुड़ाओं कमेटी का गठन किया औद गदरी बाबाओं से मिलकर कैदी छुड़ाओं आदांेलन में एक लाख लोगों का प्रदर्शन करने की योजना बनाई। सरकार ने प्रदर्शन से 10 दिन पहले ही सखुन को गिरफ्तार कर लिया लेकिन सखुन की गिरफ्तारी के बाद भी बहुत शानदार प्रदर्शन हुआ। बढ़ते जनांदोलनों को देखकर सरकार को झुकना पड़ा और अंडमान के बंदियों को अपने-अपने राज्यों से स्थानांतरित किया तथा कुछ बंदियों को रिहा भी किया गया।
इस समय तक जर्मनी में नाजीवाद, इटली में फांसीवाद और जापान में सैन्यवाद अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच चुके थे। युद्ध की पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी थी और सितम्बर 1939 में दूसरा विश्व युद्ध छिड़ गया। अंग्रेजो ने युद्ध के विरोध को देखते हुए भारत रक्षा अधिनियम भी पारित कर दिया और इस कानून के तहत 1940 में पूरे पंजाब से 40 कम्युनिस्टों एवं सोशलिस्टो को गिरफ्तार कर लिया गया, सखुन भी गिरफ्तार कर लिये गए और उन्हें लाहौर सेन्ट्रल जेल से शाही किले में भेज दिया गया, बाद में उन्हें मिंटगुमरी जेल में भेज दिया गया, वहंा कामरेड धनवतरी पहले से मौजूद थे, जेल में बंदियों को राजनीतिक कैदियों की सुविधा देने की मांग को लेकर भूख हड़ताल कर दी थी और सखुन भी इस भूख हड़ताल में शामिल थे। वे 87 दिन भूख हड़ताल पर रहे। सखुन का स्वास्थ्य पहले ही काफी कमजोर था परन्तु उनकी दृढ़ता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इन्होंने इतनी लम्बी भूख हड़ताल की और उनका स्वास्थ्य बहुत खराब हो गया। इस कारण उन्हें मिंटगुमरी जेल से देवली शिविर में भेज दिया गया।
देवली कैम्प में सखुन को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं - श्रीपाद अमृत डांगे, अजय घोष, जेड. ए. अहमद, एस.वी. घाटे, सोहनसिंह जोश एवं अन्य प्रबुद्ध नेताओं से राजनीतिक विचार विमर्श करने का अवसर प्राप्त हुआ। हालांकि सखुन मार्क्सवाद और वैज्ञानिक समाजवाद का पहले ही काफी अध्ययन कर चुके थे, परन्तु यहां उनकी वैज्ञानिक समाजवाद के संबंध में समस्त शंकाओं का समाधान हो गया। इसलिए वे कंाग्रेस समाजवादी दल छोड़कर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बन गये।
22 जून 1941 को सोवियत संघ पर जर्मनी द्वारा किये गये अचानक हमले के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का भी युद्ध के प्रति दृष्टिकोण में बदलाव आया। कम्युनिस्टों ने कहा कि जहां पहले युद्ध साम्राज्यवादी देशों के बीच मंडियों के बंटवारे को लेकर आपस में लड़ा जा रहा था वहीं अब युद्ध का मुख्य मोर्चा फांसीवादी ताकतों एवं समाजवादी व जनतांत्रिक शक्तियों के बीच बदल गया है। कम्युनिस्ट पार्टी ने इसे लोकयुद्ध कहकर युद्ध में मित्र देशों का समर्थन करने का निर्णय लिया। इस निर्णय को देखते हुए ब्रिटिश सरकार ने 23 जुलाई 1942 को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से प्रतिबंध हटा लिया और बहुत सारे कम्युनिस्टों को जेल से रिहा कर दिया गया। लेकिन टीकाराम सखुन, धन्वंतरी, बाबा टहल सिंह, कुन्दनलाल, पं0 किशोरी लाल, बाबा गुरमुख सिंह सबसे अंत में 14 फरवरी 1946 को रिहा होकर लाहौर पहुंचे, जहां 20 हजार के जन समूह ने इन देश भक्तों का जोरदार अभिनन्दन किया।
एक परिपक्व कम्युनिस्ट के रुप में अब सखुन का लक्ष्य शोषित पीड़ित लोगों के लिए संघर्ष, उन्हें संगठित करना तथा एक शोषण रहित समाज की स्थापना करना था। पंजाब की कम्युनिस्ट पार्टी ने सखुन की डयूटी लाहौर जिला में लगाई, सखुन बड़ी लगन से पार्टी के प्रचार में जुट गये। उन्होंने लाहौर में ट्रेड यूनियन फ्रंट पर काम किया और विशेष तौर पर लाहौर के रेलवे मजदूरों को संगठित करने में अहम भूमिका निभाई।
15 अगस्त 1947 को देश आजाद हो गया, लेकिन अंग्रेज जाते-जाते देश को हिन्दुस्तान एवं पाकिस्तान में बांटने में कामयाब हो गये। सखुन जी लाहौर से भारत आ गये और अमृतसर में रहकर पाकिस्तान से आये बेघर, असहाय लोगों की मदद में जुट गये, शरणार्थियों की उन्होंने हर सम्भव मदद की। थोडे दिन यहां ठहरने के बाद सखुन दिल्ली आ गये। दिल्ली में पार्टी ने एक दैनिक अखबार उर्दू में ‘नया दौर’ निकाला और डा. अशरफ एवं टीकाराम सखुन इस अखबार में सम्पादक बनाये गये, रिछपाल सिंह को मैनेजर बनाया गया। 30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की जघन्य हत्या पर सखुन ने अपनी प्रखर लेखनी से हिन्दू साम्प्रदायिक शक्तियों के खिलाफ एक जेहाद छेड़ दिया, 31 जनवरी को इन्हीं तत्वों ने गुडगांव के मेवात के क्षेत्र में मिठाई बांटी तो सखुन ने इसकी कठोर शब्दों में निदंा की। इसी क्षेत्र में पुलिस द्वारा किए गए अत्याचारों को भी सखुन ने साहस के साथ नया दौर में प्रकाशित किया। इसके लिए सखुन एवं रिछपाल सिंह को गिरफ्तार करके गुडगांव जेल में बंद कर दिया गया। इस अभियोग में गुडगांव के मजिस्ट्रेट ने दोनों को 9-9 महीने की सजा सुनाई जो सेशंस कोर्ट में अपील के बाद 6-6 महीने कर दी गई। कभी गुडगांव तो कभी रोहतक की जेलों में रहते हुए 1951 के अंत में रिहा हुए।
1952 मंे हुए प्रथम आम चुनाव के समय पंजाब में पार्टी उम्मीदवारों के चुनाव प्रचार में सखुन ने उल्लेखनीय भूमिका निभाई। इसी दौरन पंजाब कम्युनिस्ट पार्टी ने जालन्धर से उर्दू में नया जमाना दैनिक अखबार निकालने का फैसला किया और सखुन को इसके संपादक मंडल मंे कार्य के लिए जालंधर बुला लिया और वे इस कार्य में लगन से जुट गये।
हरियाणा उन दिनों पंजाब का पिछड़ा हुआ इलाका था, कारण 1857 की क्रांति में इस इलाके के लोगों ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया था। बाद में अंग्रेजों ने हरियाणावासियों पर भंयकर जुल्म किये, यहां कितने गांवों को जलाकर राख कर दिया, हजारों लोगों को जेलों में डाल दिया और सैंकड़ो लोगो को फांसी पर लटका दिया। शिक्षा आदि के क्षेत्र में यहां के लोगो को सहूलियत नही दी और नौकरी के द्वार इनके लिए बंद कर दिये। इस प्रकार यहां आर्थिक, समाजिक तौर पर पिछड़ापन रहना ही था। दुर्भाग्यवश आजादी के बाद भी इस इलाके के प्रति सोच में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया, उसी तरह के अत्याचार स्वतंत्र भारत में भी पुलिस करती रही। फरवरी 1954 मंे डाकुओं के सफाये के नाम पर रोहतक जिले के 12 गांवों में आम जनता पर पुलिस ने अमानवीय अत्याचार किये। पुलिस के इन जघन्य अपराधों के विरोध में सखुन ने नया जमाना में विस्तार से समाचार प्रकाशित किये और अपराधी पुलिस को दंडित किये जाने की मांग की। 12 मार्च 1954 को इसी संबंध में सम्पादकीय लिखने के कारण टीकाराम सखुन, सरदार गुलाब सिंह प्रीतलडी और बाबू गुरबक्श सिंह के खिलाफ मुकदमा चला दिया। इस अभियोग के लिए सखुन को काफी दिनों तक रोहतक में ठहरना पडा। इस दौरान रोहतक की मेहनतकश जनता से उनका काफी संम्पर्क बढ़ गया और उन्होंने हरियाणा में रहकर ही पार्टी का काम करने का निर्णय लिया।
रोहतक में कम्युनिस्ट पार्टी की एक ब्रांच पहले से ही काम कर रही थी, कामरेड आनन्द स्वरुप एडवोकेट ने इस ब्रांच को चलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सखुन के रोहतक आने के बाद यहां पार्टी एवं किसान सभा में काफी मजबूती आई। सखुन की मेहनत से यहां पार्टी ने किसानों, मजदूरों, कर्मचारियों के कई बड़े-बड़े आंदोलन चलाये। इन आंदोलनों के परिणामस्वरुप 1957 के आम चुनाव में रोहतक लोकसभा सीट पर प्रताप सिंह दौलता कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के रुप में 28000 वोटो से विजयी हुए और रोहतक जिले (वर्तमान में सोनीपत) के राई क्षेत्र से हुकम सिंह एवं झज्जर से फूल सिंह भी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट पर एमएलए चुने गये।
थोडे समय बाद सखुन ने करनाल की तरफ भी ध्यान देना शुरु किया। पाकिस्तान से आने के बाद डा. हरनाम सिंह ने करनाल जिले में पार्टी बनाने में अहम भूमिका निभाई। उन्होंने अन्य साथियों के साथ मिलकर सखुन को करनाल लाने का प्रयास किया। रोहतक में पार्टी की टीम बेहतर काम कर रही थी इसलिये सखुन फौरन करनाल चले आये। यहां आते ही उन्होंने पार्टी शिक्षा के कार्य को हाथ में लिया और थोड़े दिनों में ही पार्टी गुणात्मक रुप से सुदृढ़ हुई। वहीं पार्टी का जनाधार भी तेजी से बढ़ा। करनाल जिला पार्टी का दूसरा सम्मेलन 14 से 16 दिसम्बर 1955 को हुआ जिसमें कामरेड सखुन जिला सचिव चुने गये।
सखुन वास्तव में पार्टी के एक निस्वार्थ सेवक थे। यद्यपि उनका जन्म एक सम्पन्न परिवार में हुआ था परन्तु उन्होंने अपना सब कुछ त्याग कर मेंहनतकश जनता की मुक्ति के लिए संघर्ष का रास्ता अपना लिया। उन्हें व्यक्तिगत सम्पति से कोई लगाव नही था यहां तक कि उनके पास अपना घर तक नहीं था। इस संबंध में उनका कहना था कि ‘अभी तो कामरेड देश के करोड़ो लोगों के पास अपना घर नही है वे फुटपाथ पर रहते है, तो हमारा क्या?’। सखुन बार-बार कहा करते थे कि अगर सम्पति का लगाव एक क्रांतिकारी को रहता है तो उसे वह ले डूबता है, सम्पति उसे अपने इरादे से भटका देती है। क्रांतिकारियों का परस्पर विश्वास, पक्का इरादा और चट्टानी एकता ही क्रांतिकारियों की सम्पति होनी चाहिए, सखुन इन शब्दों को जीवन में उतार चुके थे। भारत सरकार ने जब स्वतंत्रता सेनानियों को पेंशन एवं ताम्रपत्र का एलान किया तो सखुन ने इन्हें लेने से स्पष्ट इन्कार कर दिया। इस संबंध मंे जब एक पत्रकार ने पूछा कि ‘आपकी जिंदगी तो हमेशा जेलों और भूख हड़तालों में रही, आप पेंशन (200 रुपये मासिक) क्यों नही लेते’? तो उन्होंने कहा कि मैने ऐसा करके राष्ट्र पर कोई एहसान नही किया है बल्कि अपने कर्तव्य के पालन का प्रयास भर किया है। मुझे केवल दो रोटी ही चाहिए। वे आराम से मिल ही रही है।
सखुन ने हरियाणा में केवल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का ही विस्तार नहीं किया बल्कि इस क्षेत्र में पंजाब सरकार एवं प्रशासन की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ आंदोलन भी चलाये और विपक्ष को एक जुट करने के लिए हरियाणा संयुक्त जनवादी मोर्चा भी बनाया। इसके झंडे के नीचे 11 नवम्बर 1956 को रोहतक में एक सम्मेलन आयोजित किया जिसमें 1000 लोगों ने भाग लिया। सन 1962 में चीन ने भारत पर हमला कर दिया, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में इस बात को लेकर तीव्र मतभेद हो गया कि चीन हमलावर है या नही। पार्टी की राष्ट्रीय परिषद ने बहुमत से प्रस्ताव पास किया कि चीन ने भारत पर आक्रमण करके गलती की है और सरकार को सहयोग करने का निर्णय लिया। कुछ लोग इस हक में नही थे और उनका कहना था कि चीन कम्युनिस्ट देश है इसलिए वह दूसरे देश पर हमला नही कर सकता। यही विचार सखुन के भी थे अतः उन्हें व उनकी धर्मपत्नी शकुन्तला सखुन को 21-22 नवम्बर 1962 को गिरफ्तार करके हिसार व गुडगांव जेल में बंद कर दिया और 11 महिने के बाद उन्हें रिहा किया गया।
जेल से आने के बाद भिन्न विचार के बाद भी सखुन ने दो पार्टी बनाने का कड़ा विरोध किया उन्होंने कहा कि ‘अगर हम इन्क्लाबी है और मार्क्सवाद में पक्का विश्वास है तो एक मुल्क में दो कम्युनिस्ट पार्टी नहीं हो सकती चाहे हमारे मतभेद कितने ही तीव्र हो’। इसके बाद सखुन ने कम्युनिस्ट पार्टी में बिदक रहे लोगों को सही रास्ते पर लाने का काम किया। बहुत मेहनत की, रात दिन एक कर दिया। सभाएं की, जलसे किये, इस्तहार निकाले और 20 अक्टूबर 1964 को ‘हरियाणा दर्पण’ नामक साप्ताहिक अखबार निकालना शुरु किया।
हरियाणा दर्पण में सखुन सम्पादकीय, विशेष लेख, नारद वाणी, आलोचना-समालोचना, सवाल आपके जवाब नारद के कालम स्वयं लिखते थे, यहां तक कि बीमारी की हालत में भी उन्होंने लिखना नही छोड़ा। उन्होंने हरियाणा दर्पण अखबार ही नही निकाला बल्कि अलग हरियाणा राज्य बनाने की मांग पर भी आंदोलन चलाया। उन्होंने कहा कि ‘हरियाणा की बोली, परम्परा, संस्कृति एवं सामाजिक जीवन पंजाब से भिन्न है, वहीं अलवर, भरतपुर और मारवाड़ आदि की भी पंजाब से भिन्न संस्कृति है और यह सब इलाके दिल्ली से जुड़े हुए हैं इन सबकी बोली, रहन-सहन, परम्परा एवं संस्कृति एक है इसलिए इस सब इलाकों को मिलाकर ”विशाल हरियाणा“ का निर्माण किया जाना चाहिए’। काफी तीव्र आंदोलन एवं अनेको लोगों द्वारा अनेक बार जेल यात्राओं के बाद अन्ततः 1 नवम्बर 1966 को विधिवत रुप से हरियाणा राज्य का गठन किया गया। इसके निर्माण में सखुन की शानदार भूमिका रही। हरियाणा बनने के बाद उन्होंने हरियाणा के विकास के लिये अनेक लेख हरियाणा दर्पण एवं दूसरे पत्रों में लिखे और लोगों एवं सरकार द्वारा सराहे गए।  इस विषय में उनका सबसे महत्वपूर्ण सुझाव था कि ‘हरियाणा बड़ा छोटा सा राज्य है, यह केवल अपने साधनों के बलबूते अपना विकास नही कर सकता, इसलिए केन्द्र की ओर से विशेष सहायता की जरुरत है’।
हरियाणा राज्य बनने के बाद सखुन ने पार्टी के काम को ओर लगन से, तेजी से करना शुरु किया। इसमें साथ ही सखुन को भाकपा का हरियाणा में प्रथम राज्य सचिव बनाया गया और राष्ट्रीय परिषद का सदस्य बनाया गया। उनके कार्यकाल में हरियाणा में पार्टी ने दिन दूनी तरक्की की। 1968 में हरियाणा में मात्र 1500 पार्टी सदस्य थे। उनके राज्य सचिव रहते 1976 मंे सदस्य संख्या बढ़कर 5345 तक पहुंच गई। कामरेड सखुन 1968 में पहली, 1972 में दूसरी तथा 1975 में तीसरी बार लगातार राज्य सचिव चुने जाते रहे। सखुन ने दर्जनों कहानियां, नाटक लिखे। वें बहुत अच्छे साहित्यकार थे, उन्होंने बहुत सारे पत्रों में काम किया। वे कार्यकर्ताओं से बहुत प्यार करते थे। करनाल दफ्तर में आने वाले प्रत्येक कामरेड को अपने हाथ से चाय पिलाने, खाना खिलाने में स्वयं को गौरवांवित महसूस करते थें। दिसम्बर 1975 में पार्टी की पचासवी वर्षगांठ के अवसर पर करनाल में राज्य स्तरीय समारोह का फैसला किया गया और सखुन जी ने इसकी तैयारियों में दिन रात एक कर दिया, परिणामस्वरुप पहले से चल रही बीमारी और बढ़ गई और उन्हें हस्पताल में दाखिल होना पड़ा। सखुन इस समारोह में शामिल नही हो पाये। मुख्य अतिथि डा0 गंगाधर अधिकारी ने अस्पताल जाकर उन्हंे मेडल देकर सम्मानित किया। इस अवसर पर टीकाराम सखुन, डा. हरनाम सिंह, रघबीर सिंह चौधरी, मक्खन ंिसह एवं बलदेव बक्शी पांच साथियों को पार्टी की सेवाओं के लिए सम्मानित किया गया।
कुछ समय बाद उनकी स्थिति और बिगड़ गई, पार्टी ने ईलाज के लिए उन्हें बुल्गारिया भेजा, काफी ईलाज के बाद भी वे स्वस्थ नही हो सके और 1 सितम्बर 1976 को मौत ने मेहनतकशों के इस महान मित्र को सदा के लिए उठा लिया। सब जगह शोक की लहर दौड़ गई, समाचार पत्रों ने शोक संदेश प्रकाशित किये। हजारों किसानों, मजदूरों, बुद्धिजीवियों, छात्रों, नौजवानो ने अपने प्रिय दिवंगत नेता टीकाराम सखुन को श्रद्धाजंलि अर्पित की।
- ¬दरियाव सिंह कश्यप
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सोमवार, 11 फ़रवरी 2013

महिलाओं के लिए एक तिहाई आरक्षण के समर्थन में एकजुट हों!

अभी हाल में एक छात्रा के साथ दिल्ली में घटी हृदयविदारक घटना से उपजे गुस्से से दिल्ली की सड़कों पर एक आन्दोलन ने जन्म लिया था, जो केवल एक मुद्दे पर - बालिकाओं और महिलाओं की सुरक्षा और उनके साथ घटने वाली वारदातों के अभियुक्तों के लिए सजा तक सीमित रह गया। न्यायमूर्ति वर्मा की अध्यक्षता में केन्द्र सरकार ने एक समिति बना दी, जिसकी अनुशंसाओं पर एक आर्डीनेंश जारी कर दिया गया और सम्भवतः संसद के बजट सत्र में इसे स्थाई कानून का जामा बनाने के लिए बिल भी पेश कर दिया जायेगा। लेकिन इस आन्दोलन के दौरान उपजे तमाम प्रश्न अभी तक जिन्दा जरूर हैं, पर उन पर बहस धीरे-धीरे मंद पड़ती जा रही है। कार्यस्थल पर महिलाओं के लिए बराबरी का संघर्ष होजरी के कारखाने में काम करने वाली क्लारा ज़ेटकिन ने शुरू किया था और उन्हीं के संघर्षों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर फैलाव देने के लिए हर साल 8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर महिलाओं की एकजुटता दिवस रूप में शुरू हुआ था। देश की आजादी के समय अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर महिलाओं के साथ भेदभाव का मुद्दा जोर पकड़ रहा था। 1948 में इसके लिए संयुक्त राष्ट्र संघ ने मानवाधिकारों पर घोषणापत्र जारी किया था, जिसमें अन्य तरह के भेदभाव साथ-साथ लैंगिक भेदभाव भी शामिल था। सत्तर के दशक में महिलाओं के लिए समानता का मुद्दा एक बार फिर उभरा और उसके बाद महिला वर्ष, महिला दशक, महिला सशक्तीकरण आदि तमाम आन्दोलन और नारे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उभरे।
इन्हीं आन्दोलनों की कोख से देश में महिलाओं के लिए संसद एवं विधायिकाओं में आरक्षण का मुद्दा पिछली शताब्दी के अंतिम दशक में उभरा था। देश की नारियां अभी तक अपने लिए एक तिहाई आरक्षण के लिए संघर्ष कर रहीं हैं परन्तु कामरेड गीता मुखर्जी जैसी महिला नेत्रियों के निधन के साथ यह आन्दोलन धीरे-धीरे अपनी धार खोता चला गया है।
8 मार्च यानी महिलाओं का अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता दिवस एक बार फिर आने वाला है। बेहतर होगा अगर पूरे देश की महिलायें इस साल 8 मार्च से इस आन्दोलन को फिर से धार दें और एक बार फिर कोशिश करें कि महिला सशक्तीकरण के लिए 2014 के आम चुनावों के पूर्व या तो महिला आरक्षण कानून पास हो या फिर 2014 के चुनावों में महिलाओं के लिए यह एक मुद्दा हो - महिला आरक्षण का विरोध करने वालों के खिलाफ 2014 में महिलायें एकजुट हो और उन्हें सबक सिखायें।
इस मुद्दे पर महिला-विरोधी ताकतों ने अपने निहित स्वार्थो के चलते तमाम तरीकों से शंकायें और भ्रान्तियां पैदा करने के प्रयास किया था। सन 1996 के अंतिम दिनों में इस आन्दोलन की दिवंगत पुरोधा कामरेड गीता मुखर्जी ने एक पैम्पलेट अंग्रेजी में लिखा था जिसमें उन्होंने आरक्षण के मार्ग में अवरोधों को स्पष्ट करते हुए शंकाओं और भ्रान्तियों के श्रोत और कारणों को स्पष्ट किया था। हम उस पैम्पलेट का हिन्दी भावानुवाद मुद्दे पर आज की युवा पीढ़ी को शिक्षित करने की जरूरत को महसूस करते हुए प्रकाशित कर रहे हैं। पाठकों से हमारा निवेदन है कि वे इसके अध्ययन के समय तिथियों आदि के बारे में भ्रमित न हों क्यांेकि इसे लगभग 17 साल पहले लिखा गया है। इस आलेख को अद्यतन करते हुए पाठन का अनुरोध किया जाता है।
साथ ही हम इसी अंक में कामरेड हरबंस सिंह का 10 साल पहले लिखा गया आलेख ”सती से सशक्तीकरण तक का लम्बा सफर“ भी महिलाओं की युवा पीढ़ी को शिक्षित करने के उद्देश्य से प्रकाशित कर रहे हैं। हमें आशा है कि हमारे पाठक इन लेखों से लाभान्वित होंगे और महिला आन्दोलन को नए शिखर की ओर ले चलने के लिए महिला आन्दोलन का अंग बनेंगे।
ये दोनों पुराने लेख उन पुरोधाओं द्वारा लिखे गये हैं, जोकि महिला आन्दोलन से क्रमशः प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े रहे हैं और उनके लेखन अधिकारिक होने के कारण हम नये लेख के स्थान पर इन्हें यथावत् प्रकाशित करने को प्राथमिकता दे रहे हैं।

- कार्यकारी सम्पादक

वर्तमान संसद के प्रथम सत्र में संयुक्त मोर्चा सरकार ने संविधान संशोधन (81वां) संशोधन विधेयक 1996 प्रस्तुत किया। यह वह विधेयक है जिसके जरिये लोक सभा और विधान सभाओं में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण देने का प्रस्ताव है। लगभग सभी राजनीतिक दलों द्वारा अपने चुनाव घोषणा पत्रों में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण के वायदों के चलते इस विधेयक का पास होना लगभग तय माना जा रहा था।
राज्य सभा में महिला सदस्यों ने प्रधान मंत्री पर इस विधेयक को उसी दिवस पास करवाने के लिए दवाब डाला और प्रधान मंत्री इसके लिए राजी हो गये।
लेकिन जब लोक सभा में विधेयक पर चर्चा शुरू हुई और प्रधान मंत्री वहां पहुंचे यह पाया गया कि स्थितियां वैसी आसान नहीं थीं जैसाकि सोचा गया था। वामपंथी दलों की ओर से, भाकपा से मेरे द्वारा, माकपा से का. सोम नाथ चटर्जी, आरएसपी से का. प्रमाथेश मुखर्जी और फारवर्ड ब्लाक से का. चित्त बसु ने विधेयक को तुरन्त पास करने की मांग की और इन पार्टियों में कोई विरोध के स्वर नहीं थे। परन्तु अन्य दलों के तमाम वक्ताओं ने तमाम ऐसे बिन्दुओं को उठाया जिससे यह स्पष्ट था कि इस पर कोई एकमत नहीं है।
भाजपा के वक्ताओं में से जहां सुषमा स्वराज ने बिल का समर्थन करते हुए उसी दिवस उसे पास करने की मांग की तो उमा भारती ने अन्य पिछड़ी जाति की महिलाओं के लिए आरक्षण का मामला उठाया। कांग्रेस की गिरजा व्यास ने जहां विधेयक का समर्थन किया तो नागालैण्ड से इस पार्टी के सांसद ने चाहा कि इस विधेयक के प्राविधानों को नागालैण्ड विधान सभा पर न लागू किया जाये क्योंकि उनकी राय में साक्षरता की दर बहुत अधिक होने के बावजूद राज्य की महिलायें राजनीति में आने की इच्छुक नहीं हैं। समता पार्टी के नितीश कुमार ने इसी विधेयक में पिछड़ी जातियों की महिलाओं के लिए आरक्षण के प्राविधान करने की मांग आक्रामक तरीके से उठाई। इसलिए यह साफ हो गया कि विधेयक उस दिन पास नहीं हो सकेगा और प्रधानमंत्री ने प्रस्ताव किया कि विधेयक को संयुक्त प्रवर समिति को सिपुर्द कर दिया जाये।
संयुक्त प्रवर समितियां लोक सभा और राज्य सभा दोनों के सदस्यों से बनती हैं और जन भावना और समिति के सदस्यों की भावना पर विचार कर अपनी राय संसद के दोनों सदनों को देती हैं। रिपोर्ट में समिति की राय, सिफारिश और संशोधन शामिल होते हैं। सामान्यतः संयुक्त प्रवर समितियां अपनी रिपोर्ट को अंतिम रूप देने में महीनों का समय लेती हैं। जहां तक इस संयुक्त प्रवर समिति का सवाल है, मैंने इसके कार्य को समयबद्ध तरीके से समाप्त होने की बात उठाई और लोक सभाध्यक्ष इसके लिए राजी हो गये तथा उन्होंने घोषणा की कि समिति द्वारा संसद में अगले सत्र के प्रथम सप्ताह के अंतिम दिवस तक रिपोर्ट को पेश कर दिया जायेगा।
इस विधेयक को पेश करने की सम्भावनाओं और वास्तव में विधेयक को पेश करने से पूरे देश की महिलाओं में जबरदस्त उत्साह का संचार हुआ था। संसद शुरू होने के दिन सात महिला संगठनों - नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन वीमेन, आल इंडिया डेमोक्रेटिक वीमेन्स एसोसिएशन, महिला दक्षता समिति, सेन्टर फॉर वीमेन्स डेवलपमेन्ट स्टडीज, आल इंडिया वीमेन्स कांफ्रेंस, यंग वीमेन्स क्रिश्चियन एसोसिएशन तथा ज्वांइट वीमेन्स प्रोग्राम ने संसद के बाहर एक बड़ी रैली की जिसमें  पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश, बिहार, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाम, पूर्वोत्तर राज्यों और दिल्ली की हजारों महिलायें प्ले कार्डो और बैनरों के साथ शामिल हुयीं।
विधेयक पेश होने के बाद विधेयक को तुरन्त पास करने की मांग करते हुए ज्ञापनों पर लाखों हस्ताक्षर इकट्ठा होने लगे। न केवल संगठित महिला आन्दोलन बल्कि असंगठित महिलाओं ने भी अभूतपूर्व तरीके से प्रतिक्रिया दी। उदाहरण के लिए संयुक्त प्रवर समिति की अध्यक्षा के नाते मुझे खून से लिखे ऐसे हजारों पोस्टकार्ड मिले जिसमें विधेयक को उसी सत्र यानी जिस सत्र में उसे पेश किया गया था, उसी सत्र में पास करने की मांग की गयी थी।
एक पुरानी महिला कार्यकर्ता होने के नाते मैंने तमाम तरह के शक्तिशाली आन्दोलन देखे थे परन्तु मुझे कहना ही चाहिए कि मैंने अपने जीवन में कभी भी समाज के तमाम तबकों की महिलाओं द्वारा रक्त से लिखे गये इतने अधिक पोस्ट कार्ड नहीं देखे थे। मैं इसे इस उद्देश्य से लिख रहीं हूं जिससे आगामी बजट सत्र के पहले अपना दिमाग बनाते समय सभी सांसद इस मुद्दे पर विशेषकर महिलाओं में विद्यमान परिस्थितियों को दिमाग में रखें।
महिला आरक्षण नई मांग नहीं है !
इस तथ्य को नोट किया जाना चाहिए कि हालांकि पिछले चुनाव (1996 चुनाव) के पहले लगभग सभी राजनैतिक दलों ने अपने चुनाव घोषणापत्रों में महिलाओं के लिए आरक्षण का वायदा किया था, परन्तु महिलाओं के लिए आरक्षण के प्रश्न पर विचार बहुत पहले ही शुरू हो चुका था।
भारतीय महिला फेडरेशन (एनएफआईडब्लू) की महाराष्ट्र राज्य कार्यकारिणी एवं परिषद ने सितम्बर 1991 में अपने नागपुर सत्र में एक प्रस्ताव पास करते हुए सभी निर्वाचित सदनों - पंचायतों, नगर पालिकों, विधान सभाओं और संसद में महिलाओं के लिए 30 प्रतिशत आरक्षण की मांग की थी।
जो लोग यह सोचते हैं कि महिलाओं के लिए सीटों का आरक्षण उन्हें एक ऐसी सहूलियत देना होगा जिसके वे योग्य नहीं हैं, उन्हें यह जानना चाहिए कि अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष (1975) की पूर्व बेला पर डा. फूलरेणू गुहा की अध्यक्षता में गठित स्टेट्स ऑफ वीमेन कमीशन के सामने उपरोक्त वर्णित सभी महिला संगठनों ने महिलाओं के लिए आरक्षण के खिलाफ अपना विचार रखा था। उन्होंने सोचा था कि राजनीतिक दल और अधिक महिला उम्मीदवारों को चुनाव में खड़ा करेंगे और संसद में महिलाओं की संख्या में इजाफा होगा।
परन्तु कठिन वास्तविकताओं के चलते उन्हें अपनी राय में बदलाव लाना पड़ा। यह पाया गया कि 1977-80 के मध्य लोक सभा में महिलायें केवल 3.4 प्रतिशत थीं और आजादी के पचास सालों में कभी भी यह संख्या 10 प्रतिशत के भी आस-पास नहीं पहुंच सकी जैसाकि नीचे की तालिका से स्पष्ट होता है।
इसलिए आबादी के आधे हिस्से यानी महिलाओं के साथ न्याय करने के लिए सीटों का आरक्षण ही एकमात्र तरीका है।
जो लोग ऐसा सोचते हैं कि लोक सभा और विधान सभाओं की एक तिहाई सीटों के लिए योग्य महिला उम्मीदवारों की निहायत कमी होगी, उन्हें यह याद दिलाने की जरूरत है कि आजादी के बाद पहले चुनाव में लोक सभा में केवल 22 महिला सांसद थीं जोकि कुल संख्या का केवल 4.4 प्रतिशत है। क्या आजादी की लड़ाई में योग्य महिलाओं की कमी थी? हर व्यक्ति यह स्वीकार करेगा कि आजादी की लड़ाई में कई उत्कृष्ट महिला नेत्रियों ने हिस्सा लिया था। इसके बावजूद राजनीतिक दलों ने उन्हें उम्मीदवार बनाना जरूरी नहीं समझा। इसलिए आरक्षण के प्रश्न को तो कभी पहले उठाया जाना चाहिए था। यदि इसे समय पर कर दिया गया होता और आज की परिस्थितियां बहुत ही बदली हुयी होतीं तो सम्भव है कि आरक्षण की आज जरूरत नहीं होती और समानता के लिए महिलाओं की आवाज बहुत ही प्रभावी होती।
पूर्व की गल्तियों को सुधारने की जरूरत
सन 1857 के शुरूआती क्षणों से वर्ष 1947 में ब्रिटिश शासकों से सत्ता हस्तांतरण तक चली आजादी की लड़ाई में महिलाओं ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। स्वतंत्र भारत के संविधान में महिलाओं के लिए पुरूषों के साथ समानता और लिंग सहित किसी भी आधार पर भेदभाव को प्रतिबंधित कर महिलाओं के इसी महती योगदान को मान्यता दी गयी थी।
वैसे हजारों साल पुराने रीति रिवाजों के कारण अधिकतर महिलायें शिक्षा और सम्पत्ति एवं उत्तराधिकार से वंचित रखी गयीं और उन्हें घर की चहरदीवारों के अंदर के कामकाज करने के लिए कैद रखा गया। परिवार और समाज में उनके स्तर को ऊंचा बनाने के लिए कुछ कानून पास तो जरूर किये गये परन्तु वास्तविकता में वे कागजों पर बने रहे।
सरकार और राजनीतिक दलों दोनों ने महिलाओं की समस्या को सामाजिक समानता कायम करने के बजाय समाज-कल्याण के नजरिये से देखा और तमाम महिला संगठनों से अपनी गतिविधियों को समाज कल्याण तक ही सीमित रखा।
संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा वर्ष 1975 को अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष और उसके बाद में दस वर्ष सन 1976 से 1985 को अंतर्राष्ट्रीय महिला दशक घोषित करने के फलस्वरूप महिला कल्याण की अवधारणा को महिला विकास के दृष्टिकोण में बदल दिया। अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष और महिला दशक की केन्द्रीय विषयवस्तु थी - ”समानता-विकास-शान्ति“।
सन 1948 में मानवाधिकारों पर भूमण्डलीय घोषणा-पत्र में संयुक्त राष्ट्र संघ ने स्वयं को नस्ल, रंग, लिंग, भाषा, क्षेत्र, राजनैतिक और अन्य विचारों, राष्ट्रीय या सामाजिक उत्पत्ति, सम्पत्ति, जन्म और अन्य आधारों पर विभेद के खिलाफ घोषित किया था। वैसे सदस्य राष्ट्रों ने उपरोक्त आधारों पर भेदभाव जारी रखा। इनमें से महिलाओं के खिलाफ भेदभाव धर्म, इतिहास और संस्कृति को आधार बना कर सबसे अधिक और सम्भवतः वैश्विक फैलाव लिए रहा। संयुक्त राष्ट्र संघ की आम सभा ने अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष और अंतर्राष्ट्रीय महिला दशक की घोषणा को पूर्व में की गयी गल्तियों को सुधारने के लिए की जा रही अंतर्राष्ट्रीय शुरूआत बताया था।
पिछले दो दशकों के दौरान सन 1975 में मेक्सिको, 1980 में कोपेनहागन, 1985 में नैरोबी और 1995 में बीजिंग में संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वाधान में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय महिला सम्मेलनों में लिये गये निर्णयों के जरिये ये प्रयास जारी रहे। हर सम्मेलन के दौरान संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य राष्ट्रों के प्रतिनिधियों के साथ-साथ हजारों गैर सरकारी प्रतिनिधियों का विश्व फोरम और उसके पहले तैयारियों के सिलसिले में सभी महाद्वीपों में अनगिनत राष्ट्रीय और क्षेत्रीय विचार गोष्ठियों और बहसों से करोड़ों-करोड़ महिलाओं को अपनी वास्तविक स्थिति के आकलन और अपने अधिकारों को समझने में जहां मदद मिली वहीं संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा महिला दशक के घोषित उद्देश्यों को समर्पित तमाम महिला संगठनों और ग्रुपों ने जन्म लिया।
18 दिसम्बर 1979 को संयुक्त राष्ट्र संघ की आम सभा ने महिलाओं के खिलाफ भेदभाव के तमाम तरीकों की समाप्ति पर एक अंतर्राष्ट्रीय परम्परा (कन्वेंशन)  (International Convention for Elimination of All Forms of Discrimination against Women - CEDAW)  अंगीकृत किया जिसे भारत सहित संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य राष्ट्रों के बहुमत ने स्वीकार कर लिया है। यह परम्परा भी इसे पृष्ठांकित करने वाले सभी राष्ट्रों पर अन्य सभी अंतर्राष्ट्रीय परम्पराओं और संधियों जैसे ही बाध्य अंतर्राष्ट्रीय कानून के सदृश है।
सन 1985 में नैरोबी सम्मेलन द्वारा ”वर्ष 2000 तक महिलाओं के विकास के लिए रणनीति की ओर आगे बढ़ने“ की घोषणा अंगीकृत करने के फलस्वरूप प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने महिलाओं के लिए सापेक्ष योजना की घोषणा द्वारा महिला विकास हेतु नीतिगत दिशा तय करते हुए एक नए प्रशासकीय ढ़ांचे को स्थापित किया।
नैरोबी सम्मेलन के एक दशक के बाद सितम्बर 1995 में सम्पन्न बीजिंग सम्मेलन का उद्देश्य आगे बढ़ने की रणनीति के वैश्विक स्तर पर परिणामों का मूल्यांकन करने और नैरोबी तथा सन 1979 में अंगीकृत संयुक्त राष्ट्र संघ परम्परा द्वारा घोषित लक्ष्यों के रास्ते में आ रहे अवरोधों को हटाने में वर्तमान शताब्दी के बाकी वर्षो (1996-2000) का किस प्रकार उपयोग किया जाये इसका निर्धारण करना था।
बीजिंग में पहले से अधिक जागरूक, संगठित और एकताबद्ध महिला प्रतिनिधि इस बात पर दवाब बनाने में सफल रहे कि महिलाओं को हर स्तर पर अपने से संबंधित सभी मसलों पर निर्णय की प्रक्रिया में भाग लेने का अधिकार होना चाहिए चाहे वह मामला उनकी जिन्दगी से जुड़ा राष्ट्रीय अथवा अंतर्राष्ट्रीय मामला हो, पारिवारिक जीवन हो, उनके बच्चों के स्वास्थ्य और शिक्षा का मामला हो, उनके स्वयं के निकायों का मामला हो, प्रजनन में उनकी भूमिका और कामुकता का मसला हो।
सन 1975 में लक्ष्य कल्याण से विकास तक पहंुचा तो सन 1995 में बीजिंग में लक्ष्य और आगे बढ़ कर ”महिला सशक्तीकरण“ के नारे तक जा पहुंचा।
बीजिंग में भारत सरकार के प्रतिनिधियों ने पंचायतों और नगर पालिकाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण कर देने की बात को बता कर खूब प्रशंसा लूटी। बीजिंग में अंगीकृत सिफारिशों में लोक सभा और विधान सभाओं में ऐसे आरक्षण की बात शामिल की गयी। भारत सरकार अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस प्रस्ताव को लागू करने के लिए वचनबद्ध है।
दूसरी ओर पूरे विश्व के अन्य हिस्सों की महिलाओं की भांति ही तमाम अवरोधों और परेशानियों के बावजूद भारत की महिलाओं ने पिछले पचास वर्षो में शिक्षा, कार्य अनुभवों और गरीबी एवं अशिक्षा के गम्भीर दुःखद स्थितियों से अपने परिवार और अपने बच्चों की रक्षा के लिए और स्वयं अपने जीवन एवं आजीविका (लिवलीहुड) की रक्षा के संघर्षो में भागीदारी द्वारा एक लम्बा सफर तय किया है। कई राज्यों के पिछले चुनावों ने यह दिखा दिया है कि महिलायें एक महत्वपूर्ण वोट बैंक हैं जिन्हें राजनीतिक दल उपेक्षित नहीं कर सकते।
इससे स्पष्ट है कि क्यों राजनीतिक दल आकस्मात जग गये और महिलाओं की राजनीति में सहभागिता की आवश्यकता पर जोर देने लगे तथा क्यों सभी राजनीतिक दल सन 1996 के चुनावों के अपने घोषणापत्रों में महिलाओं के लिए लोक सभा और विधान सभाओं में एक तिहाई आरक्षण का वायदा करने लगे।
इससे यह कारण भी स्पष्ट होता है कि संविधान (81वां) संशोधन विधेयक ने पूरे भारत में क्यों महिलाओं के मध्य उत्तेजना उत्पन्न कर दी।
मूल बिल और संयुक्त प्रवर समिति की रिपोर्ट
आइये देखते हैं संसद में पेश मूल विधेयक क्या था, किन संशोधनों को संयुक्त प्रवर समिति ने स्वीकार किया और किन्हें रद्द कर दिया और संयुक्त प्रवर समिति द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट में क्या सिफारिशें की गयीं थीं।
भारत सरकार द्वारा संसद में रखे गये मूल विधेयक में निम्न प्राविधान थे:
(1) लोक सभा एवं विधान सभाओं में महिलाओं के लिए कुल सीटों में से एक तिहाई से कम नहीं आरक्षित की जायेंगी जिनमें से अनुसूचित जाति एवं जनजाति की महिलाओं के लिए उसी अनुपात में आरक्षित होंगी जिस अनुपात में संविधान में अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों के लिए आरक्षण उपलब्ध है।
(2) जिन राज्यों में लोक सभा की तीन से कम सीटें हैं, वहां आरक्षण नहीं होगा।
मूल बिल में राज्य सभा और विधान परिषदों का जिक्र नहीं था। इसमें केन्द्र शासित राज्यों का भी जिक्र नहीं था।
संयुक्त प्रवर समिति ने अपने सदस्यों द्वारा प्रस्तुत तमाम संशोधनों को स्वीकार किया।
विधेयक में शामिल किये गये संशोधन इस प्रकार थे:
(1) ”एक तिहाई से कम नहीं“ को ”यथासम्भव एक तिहाई के निकट“ से संशेाधित किया जाये। कारण यह कि ”एक तिहाई से कम नहीं“ का अर्थ एक तिहाई से अधिक निकाला जा सकता है जोकि मूल विधेयक का उद्देश्य नहीं था।
(2) जिन राज्यों में तीन से कम संसदीय क्षेत्र हैं, उनमें आरक्षण न देने के मुद्दे पर समिति ने महसूस किया कि यह प्राविधान भेदभावपूर्ण होगा। इसलिए समिति ने सुझाव दिया कि पन्द्रह वर्षो की कुल अवधि यानी तीन आम चुनावों को एक साथ रखा जाये। ऐसे राज्यों में आरक्षण का निर्धारण करते समय जहां दो संसदीय सीटें हैं वहां पहले चुनाव में एक सीट आरक्षित और दूसरी अनारक्षित रखी जाये, दूसरे चुनाव में पहली सीट अनारक्षित और दूसरी आरक्षित रखी जाये और तीसरे चुनाव में दोनों सीटे अनारक्षित कर दी जायें। जिन राज्यों में एक ही सीट है, इसी सिद्धान्त को लागू करते हुए तीन चुनावों में केवल एक बार सीट को आरक्षित रखा जाये। इस प्रकार एक तिहाई आरक्षण का सिद्धान्त लागू किया जा सकता है।
समिति ने एक संशोधन स्वीकार किया कि केन्द्र शासित क्षेत्र दिल्ली में आरक्षण रहना चाहिए। संबंधित कानूनों में आवश्यक संशोधन किया जाये जिससे इसे पांडीचेरी में भी लागू किया जा सके।
आरक्षित क्षेत्रों का निर्धारण कैसे होगा, इस पर संयुक्त प्रवर समिति ने कोई सिफारिश नहीं की और इस कार्य को सरकार और चुनाव आयोग द्वारा नियत करने के लिए छोड़ दिया।
जिन संशोधनों को समिति द्वारा स्वीकार नहीं किया गया, वे थे - अन्य पिछड़ी जातियों की महिलाओं के लिए आरक्षण। इस संशोधन को इन सदस्यों द्वारा अलग-अलग पेश किया गया था - समता पार्टी के नितीश कुमार, जनता दल के राम कृपाल यादव तथा डीएमके के पी.एन. सिवा। समिति ने यह स्पष्ट कर दिया कि संविधान में किसी भी स्तर पर अन्य पिछड़े दलों के लिए किसी भी निर्वाचित सदन में आरक्षण का प्राविधान न होने के कारण इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। वैसे समिति ने अपनी सिफारिशों में यह सिफारिश की थी कि सरकार इस मुद्दे पर उचित समय पर विचार करे जिससे अगर इस तरह का संविधान संशोधन किसी भी समय संसद द्वारा पारित किया जाये तो अन्य पिछड़ी जातियों की महिलाओं को भी आरक्षण का लाभ मिल सके।
समिति ने कुछ और सिफारिशे भी की थीं जैसे राज्य सभा और विधान परिषदों में भी महिलाओं के आरक्षण करने के लिए सरकार किसी रास्ते को निकालने का प्रयास करे।
समिति ने विधेयक को बिना देरी किये पारित करने की बहुत स्पष्ट सिफारिश की थी। समिति की रिपोर्ट लोक सभा में 9 दिसम्बर 1996 को रख दी गयी थी जिससे सरकार और संसद दोनों को रिपोर्ट पर विचार करने और एजेन्डे में विधेयक को पास करने के लिए शामिल करने को 15 दिनों का पूरा समय था। संसद 20 दिसम्बर को स्थगित की गयी।
दुर्भाग्य से संसद के पुरूष सदस्यों के भयंकर दवाब के कारण 20 दिसम्बर तक सरकार ने कुछ नहीं किया और उसके कारण पूरा मुद्दा अभी तक लटका पड़ा है।
आपत्तियां हैं क्या?
आइये, अब विधेयक को पास न होने देने के लिए दिए जा रहे तर्को के गुण-दोषों की छानबीन करते हैं।
पहला, अन्य पिछड़ी जातियों की महिलाओं के लिए आरक्षण का मुद्दा लेते हैं। स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि जो इस बात की मांग कर रहे हैं, उनमें से किसी ने अन्य पिछड़ी जातियों के पुरूषों और महिलाओं के लिए आरक्षण की मांग अब तक क्यों नहीं की और संविधान में आवश्यक संशोधन के लिए कोई निजी बिल पेश क्यों नहीं किया गया? मंडल आयोग की रिपोर्ट को पूरे देश में नौकरियों में अन्य पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने के लिए अंगीकृत करते समय ऐसा क्यों नहीं किया गया था? पंचायतों में विभिन्न स्तरों पर आरक्षण की व्यवस्था करने वाले संविधान संशोधन विधेयक पर विचार के समय अन्य पिछड़ी जाति की महिलाओं के लिए भी आरक्षण के लिए कोई संशोधन क्यों नहीं प्रस्तावित किया गया था? इन तथ्यों से यह शंका पैदा होती है कि पुरूष सांसद अपनी सीटों के महिलाओं के लिए आरक्षित हो जाने के भय से इस विधेयक को पास होने से रोकने के लिए यह दलीलें दे रहे हैं और यह शंका अन्यायोचित भी नहीं है।
अन्य पिछड़ी जाति की महिलाओं के साथ सद्भावना रखने के लिए इस विधेयक के इसी रूप में पास हो जाने पर अन्य पिछड़ी जातियों के प्रभाव वाले क्षेत्रों में अन्य पिछड़ी जाति की महिलाओं को खड़ा किया जा सकता है। इसके लिए तैयारी क्यों न की जाये?
दूसरे, कुछ लोग कहते हैं कि महिलाओं को सुरक्षा और अधिकार देने वाले तमाम कानून बने हैं। उन कानूनों को लागू करने के लिए पहले संघर्ष करना चाहिए और उसके पहले महिलायें संसद और विधान मंडलों में क्यों जाना चाहती हैं? स्पष्ट रूप से महिलायें पर्याप्त संख्या में संसद और विधान मंडलों में इसलिए जाना चाहती है जिससे कागजों पर बने उन कानूनों को लागू करने के लिए जोरदार आवाज उठाने का मौका पा सकें।
तीसरे, कुछ लोग कहते हैं कि पंचायतों में आरक्षण दूसरी बात थी क्योंकि पंचायतें उनके घरों के पास हैं परन्तु संसद और विधान मंडलों में जाने के लिए उन्हें अपने घरों से दूर रहना होगा जिससे परेशानियां पैदा होंगी। बहुत खूब! पूरे देश में महिलाओं की कुल संख्या और संसद एवं विधान सभाओं में जाने वाली महिलाओं की कुल संख्या से तुलना कीजिए - क्या यह अत्यंत सूक्ष्म नहीं होगी? क्या यह सत्य नहीं है कि अपने रोजगार के लिए घरों से दूर जाने वाली महिलाओं की तादाद इस संख्या से कहीं बहुत ज्यादा है।
चौथे, कुछ लोगों का कहना है कि महिलायें अभी इस लायक नहीं बनी हैं कि वे इतनी बड़ी संख्या में सांसद के कर्तव्य निभा सकें। इस कारण संसद और विधान मंडलों में एक तिहाई संख्या में महिलाओं के आगमन से लोक सभा और विधान सभाओं का कार्य निष्पादन की गुणवत्ता घट जायेगी। माफ कीजिएगा, वर्तमान लोक सभा में 7 प्रतिशत ही महिला सदस्य हैं, 93 प्रतिशत पुरूष सदस्यों वाली वर्तमान लोक सभा के कार्य निष्पादन का क्या स्तर है?
लोक सभा के अन्दर से अथवा टेलीविजन के माध्यम से लोक सभा की कार्यवाही देखने वालों से उनकी राय पूछिये - जवाब ऐसा मिलेगा कि कोई भी लज्जित हो जाये। दूसरी ओर, इन सदनों में एक तिहाई महिलाओं की उपस्थिति से सम्भव है कि लोगों के व्यवहार और कार्य निष्पादन में व्यापक सुधार आ जाये।
पांचवे, समाचार पत्रों में लेखों द्वारा तथा ज्ञापनों द्वारा खड़ा किया गया एक सवाल है कि हर चुनाव के बाद चक्रानुक्रम से चाहे वह लाटों में किया जाये या किसी और तरह से निर्वाचित सदस्यों में अपने क्षेत्रों की देख-रेख के लिए जरूरी जोश नहीं होगा क्योंकि अगली बार उस क्षेत्र से चुनाव लड़ने का अवसर उसे नहीं होगा। इसे सुलझाने के लिए कुछ लोगों ने यह सुझाव दिया कि तीन क्षेत्रों को एक में मिला दिया जाये और उसमें से तीन सदस्य चुने जायें। इनमें से एक को अवश्य ही महिला होना चाहिए। प्रत्याशियों में से सबसे अधिक मत पाने वाले दो पुरूष उम्मीदवार और महिला उम्मीदवारों में से सबसे अधिक मत पाने वाली उम्मीदवार को निर्वाचित घोषित किया जाये।
विभिन्न दृष्टिकोणों से यह एक अजनबी मुद्दा है। पहला, निर्वाचित होने वाले सदस्य का दायित्व है कि वह अपने क्षेत्र की देख-रेख करे। यह अपेक्षा नहीं की जाती है कि दूसरी बार निर्वाचित होने के लिए क्षेत्र की देख-रेख की जाये। किसी क्षेत्र पर किसी भी व्यक्ति का स्थाई एकाधिकार नहीं होना चाहिए।
वैसे, अगर कोई भी पुरूष अथवा महिला अपने क्षेत्र की गम्भीरता से देख-रेख करता है तो उससे उसके कार्य क्षेत्र के आस-पड़ोस में ऐसी इज्जत बनती है कि वह किसी भी हैसियत में देश की सेवा बेहतर तरीके से कर सके। लोक सभा क्षेत्रों का इलाका इतना बड़ा होता है कि किसी भी व्यक्ति के लिए तीन क्षेत्रों में अपना प्रचार करना और देख-रेख का कार्य करना सम्भव नहीं है।
इसलिए ऐसे बेहूदे विचारों को रखने से बेहतर होगा कि निर्वाचित प्रतिनिधियों को चुनावों में प्राप्त विजय, चाहे वह एक बार ही क्यों न हो, द्वारा प्राप्त जन-विश्वास के साथ न्याय करने के लिए प्रेरित किया जाये। इसके इलावा उम्मीदवारों के परिवर्तन द्वारा इस प्रकार के विशिष्ट कार्य में ज्यादा लोगों को प्रशिक्षित करने का मौका पा सकते हैं, जो उनमें समर्पण भी भावना पैदा करेगा जो उन्हें विभिन्न आबंटित क्षेत्रों में जन-नेता बना सकता है।
और अंत में, आरक्षण के बारे में विभिन्न क्षेत्रों के लोगों द्वारा सामान्यतः उठाया जाने वाला सवाल - यदि इतना अधिक आरक्षण जैसे अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन जाति के लिए, महिलाओं के लिए तथा उसके बाद अन्य पिछड़ी जातियों के लिए, यदि अन्तोगत्वा एक अन्य संविधान संशोधन द्वारा ऐसा किया जाता है) तब इन श्रेणियों के अलावा लोगों के लिए विधान सदनों में पहुंचने के बहुत कम अवसर बचेंगे। इस प्रश्न से एक प्रतिप्रश्न उठता है। आजादी के 50 सालों बाद भी लोगों के इतने बड़े तबके के मध्य पिछड़ापन क्यों व्याप्त है? क्या यह उचित है?
इसके अलावा उदाहरणार्थ, महिलाओं के लिए सीटों का आरक्षण ही लेते हैं। संयुक्त प्रवर समिति ने सिफारिश की कि पन्द्रह वर्षो तक आरक्षण रहने के बाद, इसका पूनर्मूल्यांकन किया जाये और उस वक्त जैसी भी परिस्थितियां हो, आरक्षण को समाप्त कर दिया जाये या जारी रखा जाये।
सामाजिक न्याय और समानता सुनिश्चित करो!
इसलिए, अगर सामाजिक न्याय और समानता के लिए पूरा समाज संघर्ष करता है, और लगातार प्रयासों से पिछड़े तबकों को आगे लाया जा सकता है, आरक्षण के प्रश्न को हमेशा के लिए समाप्त किया जा सकता है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के मामले में पचास वर्षो के बाद संविधान में पूनर्मूल्यांकन का प्राविधान है। यह पचास साल पूरे हो रहे हैं, क्या हम ईमानदारी से उनके पिछड़ेपन के उन्मूलन का दावा कर सकते हैं? यदि नहीं तो क्यों? इसलिए इस चुनौती का मुकाबला करने के लिए सामाजिक न्याय हेतु वृृहद प्रभावी संघर्ष की जरूरत है जिससे एक वक्त सभी नागरिकों के मध्य मोटा-मोटी समानता स्थापित हो सके। यही एकमात्र सबके लिए बराबर अवसर मुहैया करा सकने का रास्ता है।
फरवरी 1997 में संसद का बजट सत्र शुरू हो रहा है, पूरे देश की महिलायें और महिला संगठन बेसब्री से देखेंगी कि आरक्षण विधेयक पर क्या होता है? इस बीच वे चुप नहीं बैठेंगी। वे अपने को संगठित करेंगी, वे विधान सभाओं और लोक सभा के सभी वर्तमान सदस्यों से सम्पर्क कर उनसे पूछेंगी कि क्या वे विधेयक का समर्थन करने जा रहें हैं? वे सरकार पर विधेयक को एजेन्डे में शामिल करने के लिए दवाब बनायेंगी। यदि वे पाती हैं कि सरकार लोक सभा और राज्य सभा में विधेयक प्रस्तुत करती है और वह इसलिए पास नहीं होता क्योंकि कुल सदस्य संख्या के आधे सांसद अनुपस्थित हो जाते हैं अथवा उपस्थित सदस्यों के दो-तिहाई सदस्य वोट नहीं देते तो ऐसी स्थिति के लिए जिम्मेदार सांसदों को स्पष्ट हो जाना चाहिए कि अगले चुनावों में वे खड़े होते हैं तो महिलायें उन्हें वोट नहीं देंगी।
हम ऐसे सदस्यों से अनुरोध करते हैं कि वे गंभीरता से देखे कि क्या यह बेहतर होगा कि उनकी कुछ सीटें महिलाओं को चली जायें न कि अगले चुनाव में वे बुरी तरह पराजित हों। हमें आशा करनी चाहिए कि अच्छी समझदारी व्याप्त होगी।
- स्व. का. गीता मुखर्जी
(अनुवाद: प्रदीप तिवारी)
लोक सभा में महिला सदस्य
लोक सभा  वर्ष कुल संख्या महिला सांसद प्रतिशत
पहली 1951   499    22      4.4
दूसरी 1957   500    27      5.4
तीसरी 1962   503    34      6.7
चौथी 1967   523    31      5.9
पांचवी 1971   521    22      4.2
छठी 1977   544    19      3.4
सातवीं 1980   544    28      5.1
आठवी 1985   544    44      8.1
नवी 1990   529    28      5.3
दसवी 1991   509    36      7.1
गयारहवी 1996   537    34      6.3
बारहवीं 1998   543    43          7.9
तेरहवीं 1999   543   49  9.0
चौदहवीं 2004   543    45  8.3
पन्द्रहवीं 2009   543 61   11.2
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सती से सशक्तीकरण तक का लम्बा सफर

इस समय महिलाओं के सशक्तीकरण का वैष्विक संघर्ष सारे संसार में एक समान प्रबलता के साथ लड़ा जा रहा है। परन्तु दो सौ साल पहले भारत और यूरोप की महिलाओं ने अपना सफर अलग-अलग मार्गो से शुरू किया था।
यूरोप में महिला आन्दोलन की शुरूआत
यूरोप की महिलाओं ने सबसे पहले आधुनिक उद्योगों के संसार में प्रवेश किया। क्लारा जे़टकिन का जन्म बर्लिन में सन 1857 में हुआ और उन्होंने पोशाक बनाने वाली एक फैक्ट्री में 18 वर्ष की आयु में नौकरी शुरू की। उन्होंने फैक्ट्री के अन्दर महिलाओं और पुरूषों के मध्य समानता का मुद्दा उठाया। उन्होंने सभी महिला मजदूरों को ट्रेड यूनियन में शामिल करने के लिए प्रेरित किया। एक हड़ताल में भाग लेने के लिए क्लारा को उनके पति ओसिप सहित जर्मनी से निकाल दिया गया। दोनों पेरिस चले गये। फ्रांस की पुलिस ने भी उनका पीछा किया। भूख से क्लारा के पति ओसिप और उनके बच्चे मर गये। क्लारा बर्लिन वापस चली आयीं। क्लारा ने सन 1890 में लिब्नेख्त के साथ जर्मनी की कम्युनिस्ट पार्टी का गठन किया।
कोपेनहागन में सन 1907 में क्लारा जे़टकिन ने समाजवादी महिलाओं का पहला अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया। सन 1910 में ‘काम के घंटे आठ’ की मांग कर रही अमरीका की फैक्ट्रियों में काम कर रही महिलाओं पर गोली चलाई गयी जिसमें 8 महिला मजदूरों की मृत्यु हो गयी। क्लारा ने सन 1910 में समाजवादी महिलाओं के दूसरे अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया जिसमें 8 मार्च को महिलाओं की अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता दिवस के रूप में मनाने का फैसला किया गया। उसके बाद से हर साल 8 मार्च को सारे संसार में रैलियां, प्रदर्शन, सभायें और तमाम आयोजन होते हैं और उनमें:
  • पूरे संसार की महिलाओं के साथ एकजुटता प्रदर्शित की जाती है;
  • संसार में शान्ति की स्थापना और युद्ध के अन्त की मांग की जाती है;
  • लैंगिक समानता की मांग करते हुए उनके लिए अनवरत संघर्ष का प्रण किया जाता है; और
  • तीन ‘के’ के अंत की मांग की जाती है।
आखिर क्या हैं यह तीन ‘के’
जर्मन भाषा में चर्च, शिशु और रसोई के शब्द ‘के’ अक्षर से शुरू होते हैं। चर्च की अगुआई में जर्मनी के सामन्ती समाज में कहा जाता था कि महिलायें केवल खाना बनाने वाली के रूप में, मां के रूप में और पादरियों की सेविका के रूप में ही अच्छी दिखाई देती हैं। क्लारा जे़टकिन ने सभी महिलाओं से इसी तीन ‘के’ के खिलाफ विद्रोह करने का आह्वान किया।
अक्टूबर क्रान्ति के बाद का. क्लारा जे़टकिन का सम्मान करने के लिए का. लेनिन ने उन्हें पेत्रोग्राद सोवियत में निर्वाचित करवाया। सन 1921 में क्लारा ‘कम्युनिस्ट इंटरनेशनल’ की कार्यकारिणी के लिए निर्वाचित हुयीं।
सन 1933 में अपने जीवन के अंतिम क्षण तक सारे संसार के महिला आन्दोलन की प्रथम नायिका, पहली महिला शहीद और अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन की पहली महिला नेत्री बनी रहीं।
भारत में महिला आन्दोलन की शुरूआत
यूरोप के विपरीत भारत में महिलाओं ने आधुनिक विचार और कार्यवाहियों के मार्ग पर चलना समाज सुधार आन्दोलन के जरिये शुरू किया।
महिलाओं के साथ सबसे अधिक पशुवत व्यवहार बंगाल में किया जाता था। जवान हिन्दू लड़कियों को उनके पति के शव के साथ बांध कर जला दिया जाता था। सती प्रथा के खिलाफ राजा राम मोहन राय (सन 1772-1833) ने अपनी जोरदार आवाज उठाई। ईष्वर चन्द्र विद्यासागर (सन 1820-1891) ने महिलाओं के लिए पहला आधुनिक विद्यालय खोला। उन्होंने विधवा विवाह के लिए कानून बनाने की मांग की और अपने पुत्र की शादी एक विधवा से की। इसी तरह मोहन गोविन्द रानाडे (सन 1842-1901), ज्योतिबा फूले (सन 1827-1890), विरसा लिंगम (सन 1848-1956), नारायण गुरू (सन 1855-1925), डा. भीमराव अम्बेडकर (सन 1890-1956) और पेरियार (सन 1879-1973) ने महिलाओं के अधिकारों के लिए संघर्ष किये। यह पहली धारा थी जिसके जरिये भारतीय महिलाओं ने पढ़ना-लिखना, घरों से बाहर निकलना, नौकरियां करना और समान नागरिक के रूप में अपने अधिकारों के लिए जागरूक होना शुरू किया।
स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं की भागीदारी
महिला जागरण की दूसरी धारा स्वतंत्रता संग्राम के जरिये शुरू हुई। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में कई धारायें शामिल थीं। स्वतंत्रता संग्राम की हर धारा ने कुछ न कुछ उत्कृष्ट महिला नायिकाओं को पैदा किया। सन 1857 के गदर ने महान कवियत्री सुभद्रा कुमारी चौहान के शब्दों में ‘तलवार लिए हुए घोडे पर बैठी हुई’ नायिका रानी लक्ष्मी बाई को पैदा किया।
सन 1885 में कांग्रेस की स्थापना के साथ अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ लोकतांत्रिक आन्दोलन का एक नया अध्याय शुरू हुआ। सन 1916 में जब महात्मा गांधी ने कांग्रेस की बागडोर संभाली तो जनांदोलनों के द्वार महिलाओं के लिए खुल गये। गांधी जी जानते थे कि अंग्रेजी राज को तभी समाप्त किया जा सकेगा जब उनके अनोखे सत्याग्रह में सड़कांे पर करोड़ों लोग जुट जायेंगे। गांधी जी ने लाखों महिलाओं को अपने घरों से निकल कर जेल जाने के लिए प्रेरित किया। एक बार जेल पहुंच कर महिलाओं ने न केवल सामंती बाधाओं को पार कर लिया बल्कि गांधी जी द्वारा स्वयं निर्धारित सीमाओं को भी लांघ गयीं। गांधी जी ने हमेशा भारतीय महिलाओं के लिए सीता और सावित्री को आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया। सन 1925 में कांग्रेस की अध्यक्षा निर्वाचित होने वाली सरोजिनी नायडू ने घोषणा कि - ”भारतीय महिलाओं के लिए सीता और सावित्री कभी आदर्श नहीं हो सकती। हमें सभी लक्ष्मण रेखाओं को तोड़कर पुरूषांे के बराबर बनना होगा।“
शिक्षित विद्यार्थियों के नेतृत्व में राष्ट्रीय क्रान्तिकारियों की धारा ने हाथ में बन्दूक लिए हुए कई उत्कृष्ट महिला संग्रामियों को पैदा किया। प्रीति लता और कल्पना दत्त इस धारा की प्रसिद्ध नायिकायें हैं।
सन 1925 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना हुई। मार्क्सवाद और समाजवादी विचारों से लैस होकर महिलाओं ने विद्यार्थियों, मजदूर संघों और तिभागा, तेलंगाना, पुन्नप्रा व व्यलार सरीखे क्रान्तिकारी किसान संघर्षो का नेतृत्व करना शुरू कर दिया। मणिकुंतला सेन, रेमी चक्रवर्ती, कमला मुखर्जी, कनक मुखर्जी, इला रीड, अनिला देवी, लतिका सेन, बेलालाहिणी, गीता मलिक, नजीमुन्निसां अहमद, सुप्रिया आचार्य, गोदावरी पुरूलेकर, संतोष गुप्ता, प्रभा दासगुप्ता, सकीना बेगम, सुरजीत कौर, हाजरा बेगम और इला मित्रा आदि इस धारा की प्रसिद्ध नायिकायें में से कुछ नाम हैं।
संगठन के स्वरूप
क्षेत्रीय आन्दोलनों के फलस्वरूप उत्पन्न समस्याओं से निपटने के लिए स्वयं स्फूर्त ढ़ंग से महिलाओं ने जिला एवं राज्य स्तरीय संगठनों को खड़ा किया।
  1. घरों से बाहर निकलने का फैसला करने वाली महिलाओं के खिलाफ सामंती एवं पुनर्जागरण की ताकतों द्वारा चालू की गयी गुंडागर्दी से निपटने के लिए शुरूआती दौर में ही महिलाओं ने स्वःरक्षा दस्तों की आवष्यक महसूस की।
  2. महिलाओं ने विशिष्ट चिकित्सा परामर्श और सहायता की आवष्यकता महसूस कर चिकित्सा सहायता कमेटियों का गठन किया। महिलाओं ने इसी आवष्यकता के मद्देनजर चिकित्सा शिक्षा लेना शुरू किया।
  3. महिलाओं ने धर्म एवं राज्य द्वारा प्रदत्त अधिकारों की जानकारी की आवष्यकता महसूस की और इसके लिए कानूनी सहायता कमेटियों का गठन किया।
इन स्थानीय संगठनों से होते हुए महिलाओं ने सन 1927 में पहले अखिल भारतीय संगठन ”आल इंडिया वीमेन कांफ्रेंस“ (एआईडब्लूसी) का गठन किया। यह संगठन किसी राजनीतिक दल से सम्बद्ध नहीं था और सन 1953 तक अकेले भारतीय महिलाओं का प्रतिनिधित्व करता रहा।
सन 1953 में वीमेन इंटरनेशनल डेमोक्रेटिक फेडरेशन (डब्लूआईडीएफ) की स्थापना हुई। डब्लूआईडीएफ का. क्लारा जे़टकिन द्वारा स्थापित ”इंटरनेशनल कांफ्रेंस आफ सोशलिस्ट वीमेन“ की उत्तराधिकारी संगठन था। डब्लूआईडीएफ से सम्बद्धता के प्रष्न पर एआईडब्लूसी में विभाजन हो गया और सन 1954 में ”नेशनल फेडरेशन आफ इंडियन वीमेन“ (एनएफआईडब्लू) की स्थापना हुई। अपनी स्थापना के समय से ही एनएफआईडब्लू महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए पूरे विष्व में संघर्षरत महिलाओं के साथ एकजुटता हेतु प्रतिबद्ध है।
भारत में महिला आन्दोलन के विभिन्न दौर और दृष्टिकोण
1 - सुधार एवं कल्याण का दृष्टिकोण :
भारत में महिला आन्दोलन की शुरूआत ही हिन्दू समाज सुधार आन्दोलन से हुई। समाज सुधार आन्दोलन की जरूरत अभी तक समाप्त नहीं हुई है। सुधार के पहले क्षण से ही सुधार का विरोध यानी पुनर्जागरण की ताकतों का जन्म हो गया।
समय के साथ पुनर्जागरण की ताकतों को पीछे हटना पड़ा परन्तु दुर्भाग्य से पिछले दस सालों से इन्हीं पुनर्जागरण की ताकतों का भारत में केन्द्रीय सत्ता पर कब्जा हो गया है। इसीलिए समाज सुधार के आन्दोलन को ढीला नहीं छोड़ा जा सकता है। पिछले तीन दशकों के दौरान जातिवादी ताकतों ने ताकतवर राजनीतिक दलों का गठन कर लिया। पुनर्जागरण और जातिवादी दोनों ताकतें महिलाओं के सशक्तीकरण के खिलाफ हैं। दहेज, बलात्कार, महिलाओं के खिलाफ शारीरिक हिंसा, बालिकाओं की भ्रूण हत्या जैसी सामाजिक बुराईयां उफान पर हैं। इन बुराईयों का उन्मूलन केवल कानून बना कर नहीं किया जा सकता। पितृसत्तात्मक विचारों के दिमागी नजरिये को ध्वस्त किये बगैर महिला आन्दोलन इन बुराईयों को रोक नहीं सकता।
मुसलमान सम्प्रदाय में सुधार आन्दोलन की शुरूआत एक सकारात्मक पहल है। ईरान की शिरीन इबादी को नोबल पुरस्कार एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम है। एक वकील, एक न्यायाधीश, एक विष्वविद्यालय शिक्षक रही शिरीन इबादी ने महिलाओं के अधिकारों के लिए संघर्ष करते हुए कई बार जेल यात्रा की। नोबल पुरस्कार प्राप्त करते हुए शिरीन ने दृढ़ता के साथ घोषणा की - ”मेरा संघर्ष इस्लाम के खिलाफ नहीं बल्कि पुरूषों को अति के खिलाफ है।“
पिछले वर्ष वदोदरा में मुसलमान बुद्धिजीवियों के एक सम्मेलन ने हिम्मत के साथ घोषणा की - ”मुसलमान स्वयं अपने कट्टरवाद से छुटकारा पाये बिना हिन्दू कट्टरवादी ताकतों से संघर्ष नहीं कर सकते। मुसलमानों को समय के साथ स्वयं में सुधार करना चाहिए।“
स्पष्ट है कि महिलाओं को अपने सशक्तीकरण के लिए संघर्ष के दौरान सुधार और कल्याण के दृष्टिकोण को साथ लेकर चलना होगा।
2 - विकास में सहभागिता का अधिकार :
पुरूष प्रधान समाज द्वारा यह घोषणा की गयी थी कि महिलायें केवल अध्यापक और नर्सिंग के कामों के ही योग्य हैं और अन्य कामों के लिए वे अयोग्य हैं।
स्वतंत्रता के बाद जब विकास की प्रक्रिया देश में शुरू हुई तो महिलाओं ने सभी प्रकार के काम - पुलिस और सेना में, नागरिक प्रशासन और न्यायालयों में, चिकित्सा एवं संचार में, सामाजिक गतिविधियों और खेलकूद में सहभागी होना शुरू किया। उन्होंने सभी क्षेत्रों में दखल दिया और यह साबित कर दिया कि योग्यता, क्षमता, साहस, प्रतिबद्धता और समर्पण में वे पुरूषों से किंचित मात्र भी कम नहीं हैं।
महिलायें अब सामाजिक आर्थिक सभी क्षेत्रों में दखल बना रहीं हैं। वे हर विभाग में महिलाओं के लिए आरक्षण की मांग कर रहीं हैं। जिसके फलस्वरूप जातिवादी राजनैतिक संगठनों ने महिला आन्दोलन में जाति के आधार पर दरार डालने के प्रयास करने शुरू कर दिये हैं। महिलाओं को और अधिक दृढ़ता के साथ जातिवाद के खिलाफ संघर्ष करना होगा। स्वतंत्रता एवं समानता के लिए महिलाओं के संघर्ष में जातिवाद उनका सबसे बड़ा दुष्मन है।
3 - सशक्तीकरण :
महिलाओं ने अपने सफर की शुरूआत सभी जगहों पर अलग-अलग मार्गो से शुरू की जो इतिहास ने उनके लिए खोला परन्तु अब अपने अनुभवों और संघर्षो से एक समान रास्ते पर आ गयीं है जो उनके सशक्तीकरण की ओर जाता है।
महिलाओं ने अपने पूरे संघर्ष में सामन्ती और धार्मिक ताकतों के प्रतिरोध को झेला है। परन्तु अब पूंजीवाद कथित ”वैज्ञानिक“ सत्यों के द्वारा उनके मार्ग पर प्रतिरोध के लिए आ गया है। उदाहरण स्वरूप:
  • विज्ञान बताता है कि एक स्वस्थ बच्चे के लिए एक ऐसी मां की जरूरत होती है जो गृहणी हो।
  • काम करने वाली महिला एक स्वस्थ बच्चे का जन्म नहीं दे सकती।
  • जन्म के बाद यदि बच्चे की देखरेख मां नहीं करती है तो बच्चा असामान्य, अपराधी और बुद्धिहीन हो जाता है।
  • काम करने वाली महिलायें पुरूषों को नैतिकता से डिगाती हैं। समाज में नैतिकता के हित में जरूरी है कि महिलायें घरों पर ही रहें।
सन 1895 में एंगेल्स की मृत्यु के बाद मातृसत्तात्मक सत्ता का मानव समाज के विकास की नीव के रूप में रक्षा नहीं की और मानव विज्ञान के क्षेत्र में पुरूष प्रधानता के कारण यह साबित करने की कोशिश की गयी कि मानव समाज का जन्म पितृसत्तात्मक था। अब यूरोप और अमरीका में महिला मानववैज्ञानिकों ने इस प्रतिपादन को ललकारना शुरू किया है।
इस प्रकार इन चारों तर्को के पीछे केवल एक उद्देष्य छिपा हुआ है - महिलाओं के सशक्तीकरण को रोकना।
सभी महिला संगठनों को ध्यान रखना होगा कि उनका संघर्ष पुरूषों या धर्मो से नहीं है बल्कि पितृसत्तात्मक विचारों के खिलाफ है।
- का. हरबंस सिंह
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