भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रकाशन पार्टी जीवन पाक्षिक वार्षिक मूल्य : 70 रुपये; त्रैवार्षिक : 200 रुपये; आजीवन 1200 रुपये पार्टी के सभी सदस्यों, शुभचिंतको से अनुरोध है कि पार्टी जीवन का सदस्य अवश्य बने संपादक: डॉक्टर गिरीश; कार्यकारी संपादक: प्रदीप तिवारी

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गुरुवार, 31 अक्तूबर 2013

भारतीय लोकतंत्र और ह्रासमान जनसत्ता

‘‘पांच गेंदों से एक साथ खेलने की कला को राजनीति कहते हैं, जिसमें दो गेंदे तो हमेशा हाथ में रहती हैं और तीन हवा में।’ महान राजनेता और जर्मन साम्राज्य के निर्माता बिस्मार्क ने राजनीति की ऐसी ही परिभाषा दी थी। प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के नेतृत्व में बनी केन्द्रीय अल्पमत सरकार से लेकर एनडीए और संप्रग-1 तथा 2 की सरकारों के घटनाक्रम पर सरसरी निगाह डालने से कुछ ऐसा ही लगता है कि किस कलाबाजी से ऐसी पार्टी ने देश में राज किया, जिसका संसद में बहुमत नहीं था। इसी अवधि में हमने देखा कि नव उदार की आर्थिक नीति के चलते देश में भ्रष्टाचार और अपराधों की बाढ़ आ गयी और सरकारी खजाने एवं राष्ट्रीय संपदा की लूट, घूसखोरी आदि रोजमर्रा की बात हो गयी। हर्षद मेहता शेयर घोटाला से लेकर 2-जी स्पेक्ट्रम, कोयला आबंटन, हेलीकॉप्टर आदि कांड इसके प्रमाण है। सच ही पूंजीवाद, भ्रष्टाचार एवं अपराध की उर्वर भूमि पर फलता-फूलता है।
इस परिस्थिति के मद्देनजर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दागी सांसदों विधायकों को अयोग्य घोषित करने के फैसले से उत्पन्न चिंता, जो वर्तमान सरकार के मैनेजरों मे ंसमा गयी, को हम आसानी से समझ सकते हैं। सरकार ने इस फैसले पर पुनर्विचार करने की याचिका दाखिल की, जिसे भी कोर्ट ने खारिज कर दिया। इस न्यायिक फैसले को निष्प्रभावी बनाने के लिये सरकार ने जब प्रतिनिधित्व कानून में संशोधन का विधेयक संसद में पेश किया। लोकसभा ने इसे पास कर दिया, किंतु राज्यसभा ने इसे विचार के लिये स्टैंडिंग कमेटी को प्रेषित कर दिया। तब सरकार ने आनन-फानन में अध्यादेश जारी करने का फैसला किया।
आम चुनाव सिर पर है। शासक पार्टी का गठबंधन दागी सांसदों के चालाक समूहों से है। सरकार चलाने के लिये इनका संरक्षण और समर्थन महत्वपूर्ण है। सरकार के प्रबंधक इनके अयोग्य हो जाने का जोखिम नहीं उठा सकते थे। सामान्य संसदीय प्रक्रिया में समाधान की अनिश्चितता से बेचैन दागी सांसदों का भारी दबाव था। इसलिये सरकार ने अध्यादेश का रास्ता अपनाया। इस तथ्य को कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने प्रेस के सामने कबूल किया कि राजनीतिक दबाव में तैयार किये गये ऐसे अध्यादेश को फाड़कर फेंक देना चाहिये। यह अध्यादेश बकवास (नॉनसंेस) है।
इसी बीच चुनाव प्रणाली से संबंधित सर्वोच्च अदालत के कई निर्णय आये हैं। जैसे नकारात्मक मत डालने का अधिकार। इसके ऐसे परिणाम हो सकते हैं जिसका हल वर्तमान कानून में नहीं है। अगर 50 प्रतिशत से ज्यादा नकारात्मक मत किसी पक्ष में डाले गये तो क्या बाकी बचे अल्पमतों में जिसे ज्यादा मत प्राप्त होगा उसे ही विजयी घोषित किया जायेगा? यह तो अल्पमत का बहुमत पर राज थोपना होगा। इसलिये जरूरत है अपने देश की चुनाव प्रणाली में व्यापक आमूल-चूल बदलाव की। संसद में पेश संशोधन विधेयक का अत्यंत सीमित उद्देश्य है जो जनता की आकांक्षाओं को पूरा नहीं करता है। कुछ दागी पर ईमानदार सांसदों को बचाना एक मुद्दा हो सकता है, किंतु ज्यादा महत्वपूर्ण बात है कि चुनाव प्रणाली में व्यापक सुधार की, जिससे इन अधिकारों की रक्षा की जा सके।
भारतीय संविधान लागू होने के 50 साल पूरा होने पर संविधान के कार्यान्वयन की समीक्षा करने के एक उच्चस्तरीय आयोग का गठन किया गया। उस आयोग ने एक विस्तृत प्रतिवेदन प्रस्तुत किया है। प्रतिवेदन में एक सनसनी तथ्य उद्घाटित किया गया है कि देश के कुल सांसदों, विधायकों में से दो-तिहाई सांसद विधायक उनके क्षेत्रों में डाले गये कुल मतों के मात्र एक तिहाई मतों से निर्वाचित हुए हैं। दूसरा वर्तमान संसद व विधानसभाएं केवल 30 प्रतिशत के आसपास मतदाताओ का प्रतिनिधित्व करती है। ऐसा चुनाव का बरतानवी औपनिवेशक तरीका अपनाने के कारण हुआ है। चुनाव का बरतानवी मॉडल फर्स्ट पास्ट व पोस्ट (एफपीटीपी) में प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवारों में जिसे ज्यादा मत मिलते हैं, उसे विजयी घोषित किया जाता है। चुनाव की यह प्रणाली दोषपूर्ण है। सन 1952 से अब तक इस चुनाव प्रणाली के फलाफल निम्न प्रकार दर्ज किये जा सकते हैं -
द अल्पमत पर आधारित धनतंत्रीय संसद एवं राज्य विधान सभाओं का निर्माण।
द कार्यपालिका की बढ़ती स्वेच्छाचारिता। 
द चुनाव में अपराध और धन का बढ़ता हस्तक्षेप।
द राजनीति का अपराधीकरण और अपराध का राजनीतिकरण।
जन प्रतिनिधित्व अधिनियम में संशोधन विधेयक पर संसद मेें बहस के दौरान बहुत से सांसदों ने न्यायपालिका के फैसले पर ऐतराज जताया तथा संसद की वरीयता बहाल करने पर जोर दिया। सुनने में अच्छा लगता है कि फिर भी हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि शासक पार्टी ने बजाय बहुमत के बल के संसदीय मंच का बेजा इस्तेमाल किया है। सन 1974 में नागरिक स्वतंत्रता का हनन करने वाली आपातकाल घोषणा का अनुमोदन संसद द्वारा किया गया। हमें यह भी याद रखना चाहिये कि स्पेन में मुसोलिनी और जर्मनी में हिटलर ने पार्लियामेंट पर संसद की वरीयता कायम करने का मंतव्य भ्रामक है। संसदीय बहस में जब प्रतिनिधित्व कानून के कार्यान्वयन की समीक्षा नहीं की गयी। पूरी बहस सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को निष्प्रभावी बनाने तक सीमित थी। मीडिया की भी दिलचस्पी राजनेताओं की तुलना अपराधियों से करने की थी। संसदीय स्तर के निरंतर हो रहे क्षरण के मूल कारणों पर ध्यान नहीं दिया गया।
विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका संवैधानिक निकाय है इसकी वरीयता, प्राथमिकता और स्वतन्त्रता के प्रश्न का हल संविधान में ही दिया गया है। संविधान में जनता को सर्वोपरि माना गया है। भारतीय संविधान जनता को समर्पित है। संविधान में इन तीनों निकायों के कार्यक्षेत्र और इनके कर्तव्यों की स्पष्ट व्याख्या के साथ इनकी सीमाओं को भी रेखांकित किया गया है। संविधान में किसी को भी वरीय और कनिष्ठ नहीं बताया गया है। किसी की वरीयता किसी पर थोपी नहीं गयी है। इन तीनों निकायों को संविधान प्रदत्त अधिकारों और सीमाओं के अंदर जनता की की सेवा करनी है। इनमें किसी के भी सीमित अधिकार नहीं है। सभी की सीमाएं निर्धारित हैं। संविधान में जन अधिकार सर्वोपरि है। असीमित अधिकार केवल जनता को प्राप्त है। जनता सब कुछ कर सकती है और कुछ भी मिटा सकती है। यही सच्चा लोकतंत्र है।
धनतंत्रीय संसद
दिग्गज कम्युनिस्ट कामरेड ए.बी.बर्धन हाल के वर्षों में बराबर कहते रहे हैं कि संसद करोड़पतियों का क्लब बन गया है। भाकपा की पटना कांग्रेस के दस्तावेजों में भी यह तथ्य दर्ज किया गया है। चुनावों में जाति, संप्रदाय, धन और आम राय की भूमिका निर्णायक हो गयी है। इलेक्शन वॉच द्वारा प्रकाशित आंकड़ों के मुताबिक वर्तमान लोकसभा के 543 सदस्यों में 306 सांसद करोड़पति है। इनमें 160 सांसदों पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। आंकड़ों से पता चलता है कि पिछले चुनाव में जीतने वाले उम्मीदवारों में 32 प्रतिशत सांसदों के पास 5 करोड़ रूपये से ज्यादा की संपत्ति है। रिपोर्ट में कहा गया है कि जिन उम्मीदवारों के पास 10 लाख रूपये से नीचे की सम्पत्ति है उनके चुनाव जीतने का चांस मात्र 2.6 प्रतिशत है। जिन उम्मीदवारों के पास 50 लाख से 5 करोड़ रूपये की संपत्ति है। उनके जीतने का चांस 18.5 प्रतिशत हैं। इससे पता चलता है कि धनबल चुनावों के नतीजों को किस हद तक प्रभावित करता है।
देश के सांसदों और विधायकों की कुल संख्या 4835 है। इनमें 1448 अपराधी पृष्ठभूमि वाली दागी हैं और इनके विरूद्ध अदालतों में मुकदमें चल रहे हैं। सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि दो-तिहाई से ज्यादा सांसद अपने क्षेत्र में डाले गये कुल मतों का मात्र 30 प्रतिशत या इससे भी कम मतों से चुने गये हैं। इस तरह एफपीटीपी चुनाव प्रणाली का ब्रिटिश मॉडल बहुमत पर अल्पमत का प्रतिनिधित्व थोपता है। यह पूरी तरह अनैतिक है, किंतु मौजूदा कानून में यह पूरी तरह कानूनी है। चुनाव के इस बरतानवी मॉडल में धूर्तता, चालबाजी का पूरा मौका है जिससे मतदाता विभाजित होते हैं और अल्पमत का प्रतिनिधि चुन लिया जाता है। इसीलिये भारत में बहुमत के लोकतंत्र के बजाय अल्पमत का धनतंत्र मजबूत हो रहा है।
लोकसभा के पूर्व सेक्रेटरी जनरल और विख्यात विधि विशेषज्ञ डॉ. सुभाष कश्यप लिखते हैं: ‘‘भारतीय संविधान का लगभग 75 प्रतिशत गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 की प्रतिलिपि है।’ वे भी सांसदों और विधायकों की प्रतिनिधित्व हीनता पर सवाल उठाते हैं और चुनाव की बरतानबी पद्धति को दोषी ठहराते हैंः’ फस्ट पास्ट द पोस्ट प्रणाली के तहत विधायकों सांसदों का बहुमत उनके क्षेत्र में डाले गये कुल मतों का अल्पमत द्वारा निर्वाचित होता है।’
मैं एक कांग्रेसी उम्मीदवार को जानता हूं, जो बिहार विधानसभा के कांही क्षेत्र से चुनाव लड़े और उनकी जमानत जब्त हो गयी, फिर भी वे विजयी घोषित किये गये, क्योंकि लड़ रहे उम्मीदवारों में उन्हें ही ज्यादा मत मिले थे। वे बिहार सरकार के मंत्री भी बने। जमानत जब्त होने का मतलब है 6 प्रतिशत से कम मत मिलना। वर्तमान चुनाव प्रणाली में यह स्थिति आती है कि कंटेस्ट कर रहे सभी उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो जाए। ऐसी स्थिति में उनमें जिसे ज्यादा मत प्राप्त होता हे, वह विजयी घोषित किया जाता है। इसका मतलब है कि डाले गये मतपत्रों में 6 प्रतिशत से कम मत प्राप्त करने वाला विधायक 96 प्रतिशत के विशाल मतदाताओं के ऊपर थोप दिया जाता है। यह लोकतंत्र का मजाक नहीं तो और क्या है?
निरंकुश कार्यपालिका
संपूर्ण परिदृश्य का दूसरा चिंताजनक पहलू है कार्यपालिका की बढ़ती स्वेच्छाचारिता और बेलगाम हो  रही अफसरशाही। सरकार वह करती है, जो चाहती है और वह नहीं करती है, जो नहीं चाहती। पसंद और नापसंद के आधार पर काम होता है। इसके लिये संसद को दरकिनार कर दिया जाता है। लोकतांत्रिक निकायों, आयागों एवं विशेषज्ञ समितियों की अनुशंसाओं एवं निर्णयों की उपेक्षा चलती है। इसके चंद नमूने निम्न प्रकार देखे जा सकते हैं -
1. भारत सरकार खा़़द्य सुरक्षा योजनाएं ज्यादा उत्साहित देखी गयी। यह योजना राज्य स्तर पर लागू होनी है और राज्यों को भी इसके खर्च में हाथ बंटाना है। संसद का अधिवेशन होना तय था। इसलिये विपक्ष चाहता था कि संसद में इस योजना पर मांग विचार-विमर्श किया जाये। लेकिन सरकार ने पहले अध्यादेश जारी कर दिया। सरकार का मकसद जनमानस में मात्र भं्राति फैलाना था कि सरकार तो जनता की खाद्य सुरक्षा चाहती है, किंतु विपक्ष अड़चनें डाल रहा है। जाहिर है कि सरकार की निगाह आगामी चुनाव पर है।
2. नयी पेंशन योजना के बारे में कर्मचारियों के तीव्र विरोध को जानते हुए सरकार ने इसे संसद में नहीं पेश किया और कार्यकारी आदेश पारित कर दिया। कई वर्षों से सरकार बिना कानून बनाये कार्यकारी आदेश पारित कर कर्मचारियों से पैसे वसूलती रही है। यह गैर-कानूनी था। अब संसद के पिछले सत्र में यह कानून पास हुआ है।
3. बहुप्रचारित आधार कार्ड को लें, जिसे सरकार ने सभी तरह की वित्तीय सहायता राशि पाने के लिये अनिवार्य बना दिया था। यह आधारकार्ड यूआईडी का विधेयक साल 2010 से संसद की स्थायी समिति के समक्ष विचाराधीन है। समिति को कई आपत्तियां हैं और नये सुझाव हैं। किंतु संसद की उपेक्षा करके सरकार ने इसे कार्यकारी आदेश पारित करके लागू कर दिया। हाल में सुप्रीम कोर्ट ने इसकी अनिवार्यता पर रोक लगायी है।
4. आवश्यकता आधारित न्यूनतम मजदूरी तय करने की प्रणाली सुप्रीम कोर्ट द्वारा वर्ष 1991 में निर्धारित की गयी, किंतु सरकार ने उस पर अमल अब तक नहीं किया है। इसीलिये देश की विभिन्न अदालतों द्वारा मजदूरों के पक्ष में दिये फैसले/एवार्ड/एवं अनुशंसाएं जिसकी संख्या लाखों में हैं, वे कार्यान्वयन के इंतजार में अफसरशाही की फाइलों के ढेरों में धूल चाट रहे हैं।
5. असंगठित मजदूर सामाजिक सुरक्षा कानून 2008 सबसे बदतर उदाहरण है। पहले तो कोई उस वर्षों तक सरकार ने ट्रेड यूनियनों की वार्ताओं के दौर में उलझाये रखा। जब विधेयक के प्रारूप पर सहमति हुइ तो उसकी उपेक्षा पर मामलों को असंगठित उपक्रम आयोग को सुपुर्द कर दिया। जब आयोग ने अपना प्रतिवेदन दाखिल किया तो उस पर अमल के बजाय सरकार ने फिर विचार के लिये संसदीय स्थायी समिति को प्रेषित किया। जब संसदीय स्थायी समिति ने अपने प्रतिवेदन के साथ विधेयक का सर्वसम्मत प्रारूप पेश किया तो सरकार ने उसे खारिज कर दिया और अपना एकतरफा तैयार किया विधेयक संसद में पेशकर पास कराया जो किसी प्रकार भी मजदूरों के हितोें की रक्षा नहीं करता है। सभी केंद्रीय मजदूर संगठन इसका विरोध करते हैं। कोई दो दशकों से ज्यादा दिनों से सरकार श्रम संहिता का त्रिपक्ष वाद से लोक संसदीय समिति का सर्वसम्मत  अनुशंसा की उपेक्षा करती रही और मनमाना एकतरफा विधेयक संसद में पेश कर पास कराया जो किसी प्रकार भी मजदूरों के हित में नहीं है। केंद्रीय ट्रेड यूनियनों के संयुक्त मंच से चलाये जा रहे वर्तमान मजदूर आंदोलन की यह प्रमुख मांग है।
6. इसी तरह भारत के 12 करोड़ खेत मजदूरों के लिये केंद्रीय कानून आज तक नहीं बनाया गया। इस बारे में भी संसदीय समिति की अनुशंसा की उपेक्षा की गयी है।
अपराध और भ्रष्टाचार
नवउदारवाद आर्थिक व्यवस्था के प्रारंभ के बाद आर्थिक अपराध और भ्रष्टाचार मुक्त बाजार का अंग बन गया है। विकास और कल्याण योजना कोष सरकारी खजाने और राष्ट्रीय संपदा की लूट रोजमर्रा की बात हो गयी है। इस तथ्य की ओर उंगली उठाते हुए पूर्व सीएजी विनोद राय ने कहा कि सरकारी नीतियों से देश में चाहे तो पूंजीवाद (क्रोनी कैपिटलिज्म) का निर्माण हो रहा है।
2-जी स्पेक्ट्रम और कोयला ब्लॉक आबंटन में लाखों करोड़ के घोटालों के बारे में सरकार की ओर से कहा गया कि ये काम सरकारी नीति के तहत किया गया। इसलिये ये कारनामे भ्रष्टाचार की श्रेणी में नहीं आते। इस बारे में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सरकार नीति से राष्ट्रीय संपदा का दोहन चंद व्यक्तियों के हित में नहीं तकया जा सकता। लेकिन प्रकट है कि लोकतंत्र के नाम पर देश मे अल्पमत का धनतंत्र कायम हो गया है जो अपने वर्गीय हित में राष्ट्रीय संपदा की लूट मचाये हैं।
समाज विकास का इतिहास गवाह है कि पूंजीवाद और लोकतंत्र सहयात्री नहीं बन सकते। लोकतंत्र बहुजन आम आदमी के हित में है, किंतु इसके उल्ट पूंजीवाद चंद धनिकों के स्वार्थों का पोषक है। पूंजीवाद सही मायने में लोकतंत्र का निषेध है। इसलिए आज मूल प्रश्न सरकार की स्वेच्छाचारिता पर काबू पाने का अर्थात् कार्यपालिका की बढ़ती निरंकुशता पर लोकतांत्रिक अंकुश लगाने का, क्योंकि यह सरकार है जो लोकतांत्रिक अंकुश के अभाव में तानाशाह बन जाती है।
जनसत्ता का क्षरण रोको
लोकतंत्र में सत्ता लोगों के हाथों में होती है। जनता सर्वशक्तिमान होती है। जनता अपनी शक्ति का इस्तेमाल अपने चुने प्रतिनिधियों द्वारा करती है पर अपने देश में प्रतिनिधि चुनने का जो तरीका अपनाया गया, वह दोषपूर्ण साबित हुआ। इस दोषपूर्ण तरीके से जनसत्ता के बजाय धनसत्ता कायम हुई, जिसमें कुछ लोग मालोमाल हुए और आम लोग का विशाल समुदाय भूख और अभाव की जिंदगी जीने को मजबूर हुआ। योजना आयोग के ताजा आंकलन के मुताबिक 54 प्रतिशत अर्थात 83.75 करोड़ जनता भूख और गरीबी की अवस्था में है। अर्जुन सेन गुप्ता कमीशन के मुताबिक देश की 77 प्रतिशत अर्थात 96.25 करोड़ जनता 20 रूपये रोजाना से कम पर गुजारा करती है। दूसरी ओर भारत दुनिया के दूसरे नंबर का देश है जहां सर्वाधिक करोड़पति हैं। यह स्थिति बदलनी होगी।
इसीलिये चुनाव प्रणाली में व्यापक आमूलचूल सुधार की जरूरत है। इसके लिये निम्नांकित बिंदुओं पर विचार किया जा सकता है-

  • कुल मतदाताओं का आधे से अधिक को बहुमत के रूप में परिभाषित किया जाय और सांसदों-विधायकों के निर्वाचन के लिये यह बहुमत प्राप्त करना अनिवार्य बनाया जाय।
  • निकम्मे, भ्रष्ट सांसदों को वापस बुलाने का जन अधिकार सुरक्षित किया जाय।
  • मतदाताओं को नापसंदगी व्यक्त करने का प्रावधान।
  • चुनाव में उम्मीदवारों का चयन मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों द्वारा हो और बाकी स्वतंत्र उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने के लिये मतदाताओं की पूर्व अनुमति आवश्यक बनायी जाय। जनता की पूर्वानुमति हासिल करने की प्रणाली विकसित की जा सकती है।
  • समानुपातिक चुनाव प्रणाली।
  • चुनाव खर्च और सरकारी कोष से पार्टियों को प्रचार खर्च का भुगतान।
  • नीति निर्धारण और विकास योजनाओं के निर्माण में जनता की भागीदारी सुनिश्चित करना।

- सत्यनारायण ठाकुर
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जनरल सिंह का मकसद क्या है?

सेना के सीक्रेट फण्ड का गलत इस्तेमाल करने और संकट का सामना कर रहे राज्य जम्मू कश्मीर मे सत्ता परिवर्तन के लिये राजनेताओं को रिश्वत देने के आरोपों की जांच की गुप्त रिपोर्ट का लीक होना एक दुर्घटना थी अथवा यह एक सोचा समझा काम था इस पर लंबे समय तक कयास लगाये जाते रहेंगे। इसने राजनेताओं को एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप का मौका दिया है। इंडियन एक्सप्रेस की इस खबर का सरकार द्वारा खंडन नहीं किये जाने के कारण यह मुद्दा सेना के अराजनीतिक चरित्र के नजरिये से काफी गंभीर हो गया है। यह एक बड़ी ही खराब तस्वीर पेश कर रहा है जहां सेना का एक मुखिया ना केवल राजनीति में शामिल है बल्कि गुटबाजी को बढ़ावा दे रहा है और इसे प्राथमिकता के आधार पर संबोधित किये जाने की जरूरत है।
प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार जनरल वी.के.सिंह ने सेना के गुप्तचर विभाग (आईएम) से अलग एक संदिग्ध सीक्रेट एजेंसी बनाई थी जिसे टेक्नीकल सपोर्ट डिवीजन (टीएसडी) का नाम दिया गया था और राजनीतिक मामलों में दखल करने के लिये इसको पैसा भी मुहैय्या कराया गया था। पूर्व सेना प्रमुख ने इस रिपोर्ट से इंकार नहीं किया बल्कि दावा किया कि सेना आजादी के बाद से ही राजनेताओं को पैसा दे रही है। इसका आठ पूर्व सेना प्रमुखों ने एक संयुक्त बयान द्वारा विरोध किया है। यह स्वाभाविक है कि जनरल सिंह ने जो दोनों काम किये हैं वह स्पष्टतया सेना के परंपरागत चरित्र के विपरीत हैं। जहां हमारे पड़ोसी देशों पाकिस्तान और बांग्लादेश में सेना सत्ता में आने के लिये तख्ता पलट करती रही है वहीं हमारी सेना ने अपने अराजनीतिक चरित्र को सावधानी से सहेज कर रखा है। वी.के.सिंह ने अपनी अवैध और असंवैधानिक गतिविधियों से इस पर एक सवालिया निशान लगा दिया है।
वास्तव में जनरल वी.के.सिहं अपना पदभार ग्रहण करने के पहले दिन से ही विवादों के घेरे में हैं। इनमें से अधिकतर विवाद स्वयं को प्रोजेक्ट करने के लिये ही है। इसके लिये उन्होंने अपने मातहातों को निशाने पर लेना शुरू किया उनके खिलाफ कार्यवाही की। उन्होंने सुकना जमीन घोटाले में लेफ्टिनेंट जनरल अवधेश कुमार के खिलाफ कोर्ट मार्शल का फैसला लिया और असम में एक सैनिक ऑपरेशन में विफल होने पर लेफ्टिनेंट जनरल दलबीर सिंह को सेंसर होने का नोटिस दे डाला। उनके यह कदम अब पलट चुके हैं।
उन्होंने अपनी जन्म तिथि को लेकर कानूनी लड़ाई लड़ी (वास्तव में अपनी सेनानिवृत्ति को लेकर) और इसके लिये वह सुप्रीम कोर्ट तक भी गये। एक ऐसी भी रिपोर्ट है कि जब सुप्रीम कोर्ट की जन्म तिथि याचिका पर फैसला आने वाला था सेना की दो टुकड़ियों ने बगैर सरकार को सूचित किये हिसार से दिल्ली की ओर कूच किया था। ऐसा भी आरोप लगाया जाता है कि जनरल की उस समय एक गुप्त मंशा थी परंतु सेना ने उस समय आगे बढ़ने से मना कर दिया था। अब सिंह के कुछ दोस्तों ने इसकी पुष्टि की है कि वह टुकड़ियां हिसार से चली थी, परंतु दावा किया जाता है कि उनका कोई गुप्त मकसद नहीं था। उनका तक है कि दिल्ली में पहले से ही 30 हजार के लगभग फौज है इसीलिये और हजार लोगों का चलना कोई मायने नहीं रखता है। यह बकवास है।
हिसार प्रकरण के बाद मीडिया में कयास लगाये गये कि सेना प्रमुख के वफादार रक्षामंत्री ए.के.एंटोनी के घर और दफ्तर पर घेरा डालने वाले थे। इसके लिये जासूसी करने की नई प्रौद्योगिकी का उपयोग किया गया था। इसी दौरान जनरल सिंह द्वारा सेना की तैयारियों की कमी और अप्रचलित हथियारों के उपयोग पर प्रधानमंत्री को लिखा गया पत्र मीडिया को प्राप्त हुआ था। इस तरह के पत्र को लिखने और इस गुप्त संवाद को लीक कर देने में असली मकसद क्या था।
जब यह सब तरकाबे काम नहीं कर सकी, तो जनरल सिंह ने एक और लक्ष्य साधना शुरू किया। उन्होंने खुलासा किया कि लेफ्टिनेंट जनरल तेजेन्दर सिंह ने उन्हें सेना के ट्रकों की डील को हरी झण्डी देने के लिये 14 करोड़ रू. की रिश्वत की पेशकश की थी। कई पहलुओं के साथ यह मामला अभी तक कोर्ट के समक्ष लंबित है।
जनरल सिंह ने माना है कि उन्होंने टीएसडी नामक सीक्रेट संस्था बनाई थी जो संदिग्ध कामों में संलग्न थी, उन्होंने दावा किया कि यह मानव इंटेलीजेंस के लिये थी। सेना की आंतरिक रिपोर्ट कहती है कि जनवादी ढंग से चुनी गई उमर अब्दुल्ला सरकार को गिराने के लिये धन का उपयोग किया गया। जनरल ने इस भुगतान का विरोध नहीं किया परंतु उन्होंने दावा किया कि सेना ऐसी गतिविधियों में आजादी के बाद से ही लिप्त है। यह सत्य है तो इसके विस्तार में जाने की आवश्यकता है और यदि जनतंत्र को जिंदा रखना है तो दोषियांे के नाम सामने आने चाहिए और उन्हें सजा मिलनी चाहिये।
अब इसके बाद एक संदिग्ध गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) को पैसा मुहैय्या कराने का मामला भी है। एनजीओ को पैसा सेना के दो वरिष्ठ अधिकारियों को रोकने के लिये जनहित याचिका दाखिल करने के लिये दिया गया था जिसमें जनरल सिंह का स्थान लेने वाले वर्तमान प्रमुख भी शामिल थे।
हालांकि शुरू में भाजपा ने रेवाड़ी रैली में जनरल द्वारा मोदी के साथ मंच की शोभा बढ़ाने के बाद जनरल का पूरी तरह समर्थन किया था परंतु जैसे ही जनरल की महत्वाकांक्षाओं और सेना के अराजनीतिक चरित्र को बर्बाद करने की उनकी गतिविधियों पर दूसरे खुलासे सामने आने लगे उनका रूख नरम पड़ गया। परंतु भाजपा के राज्यसभा में नेता सदन अरूण जेटली ने इस विवाद में एक नया पहलू जोड़ दिया है। वह ना केवल सेना के आंतरिक मामलों को लीक करने को लेकर सरकार पर राजद्रोह के आरोप लगा रहे हैं बल्कि ऐसे सारे ऑपरेशनों को बचाने के लिये उन्हें ‘‘पवित्र गाय’ की प्रतिष्ठा भी प्रदान कर रहे है जिसमें उन मुठभेड़ों का संचालन भी है जो बाद में झूठे मामले सिद्ध हुए। यहां तक कि उन्होंने इशरत जहां केस की जांच करने के लिये भी सरकार पर राजद्रोह का आरोप मढ़ दिया है। जैटली नहीं चाहते कि इस मामले की जांच अंतिम निष्कर्ष तक पहुंचे। उन्हें मालूम है कि यह उनके प्रधानमंत्री पद के महत्वाकांक्षी उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी तक जा सकती है, जो कि अधिकतर झूठी मुठभेड़ों के मास्टर माइंड हैं। वह कहते हैं कि जनतांत्रिक ढंग से चुनी हुई सरकार इंटेलिजेस ब्यूरो, रॉ. फौजी इंटेलिजेंस अथवा ऐसी ही किसी अन्य संस्था के पैसों की जांच नहीं कर सकते है कि उन्होंने यह पैसा कहां खर्च किया अथवा उचित ढंग से खर्च किया कि नहीं। इस प्रकार की गतिविधियां ना तो संसद के प्रति जवाबदेह है ना ही न्यायिक प्रणाली के प्रति।
इसीलिये जेटली संसदीय जनवादी व्यवस्था के ऊपर एक समान्तर व्यवस्था बनाने का तर्क दे रहे हैं। वास्तव में यह ‘‘पवित्र गाय’’ का यही तर्क है जिसका नरसिम्हा राव सरकार के समय रक्षा सौदों में किया गया था कि कोई इसे छेड़ नहीं सकता है ना ही इस पर बहस कर सकता है। पुरुलिया में हथियार गिराने के समय सरकार ने इसी तर्क का सहारा लिया था तो भाकपा के वरिष्ठ सांसद इंन्द्रजीत गुप्त ने ना केवल इसे संसद में धराशायी किया था बल्कि रक्षा मामलों की संसदीय समिति की अध्यक्षता से भी इस्तीफा दे दिया था।
- शमीम फैजी
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गुरुवार, 24 अक्तूबर 2013

पूंजीवादी मीडिया के भरोसे नहीं रह सकता वामपंथ

३० सितम्बर को लखनऊ में भाकपा की विशालकाय रैली में भाग लेकर उत्साह से लबरेज पार्टी और जन संगठनों के नेता और कार्यकर्ता अगले दिन जब अपने-अपने जिलों में वापस पहुंचे तो सभी को इस बात की उत्सुकता थी कि रैली की खबर अख़बारों में पढ़ी जाये, और तमाम लोगों ने अलग-अलग अख़बार खरीद डाले| लेकिन उन्हें यह देख कर भारी हैरानी हुई कि किसी भी अख़बार में रैली के बारे में एक भी पंक्ति का समाचार नहीं था| गुस्से और हताशा में उन्होंने मुझे फोन किये| अख़बारों पर तो खीझ उतारी ही मुझे भी नम्रता पूर्वक नसीहत दी कि हमें मीडिया से रिश्ते बढ़ाने चाहिये, मीडिया मैनेजमेंट दुरुस्त करना चाहिये बगैरह-बगैरह| कईयों ने तो गुस्से में यह भी कहा कि हमें टी.वी.चेनल्स के खिलाफ प्रदर्शन करना चाहिये, अख़बारों की होली जलानी चाहिये और उन्हें सबक सिखाना चाहिये| यहाँ स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि राज्य नेत्रत्व मीडिया को पर्याप्त तरजीह देता है| यहाँ उल्लेखनीय है कि रैली की खबरें लखनऊ में समाचारपत्रों ने प्रकाशित की थीं| लेकिन वे लखनऊ संस्करणों तक सीमित थीं| बगल के जिलों बाराबंकी अथवा उन्नाव तक में किसी भी अख़बार में एक पंक्ति भी पढ़ने को नहीं मिली| अलबत्ता उर्दू अख़बारों और हिंदी के अख़बार ‘कल्पतरु एक्सप्रेस’ ने खबर को प्रदेश भर में छापा| इसी तरह रैली में किये गये आह्वान पर २१ अक्टूबर को जिलों-जिलों में सफल सत्याग्रह/जेलभरो आन्दोलन चलाया गया|जिलों में मीडिया के लिये इसकी खबर को नजरंदाज करना संभव नहीं था और सम्बन्धित जिले की खबर उस जिले के पन्ने पर सिमट कर रह गयी| प्रदेशव्यापी कार्यक्रम की यह खबर भी मीडिया ने स्थानीय बना कर रख दी| सवाल यह है कि भाकपा अथवा अन्य वामदलों के प्रति मीडिया ऐसा घिनौना रवैय्या क्यों अपनाता है? जबकि हम हर पल हर घड़ी खुली आँखों से देख रहे हैं कि छोटे-बड़े तमाम पूंजीवादी दलों के अदने नेताओं और अत्यंत छोटी घटनाओं की खबरें न केवल लाइव चलाई जाती हैं अपितु पूरे-पूरे दिन उन्हें खबरिया चेनलों पर चला कर औसत दर्शक के साथ बलात्कार किया जाता है| अख़बार भी उन्हें आवश्यकता से अधिक जगह देते हैं| यह सर्व विदित है कि आज का विशालकाय मीडिया कार्पोरेट घरानों के हाथों में है और उन्हीं के हित पोषण में लगा रहता है| कार्पोरेट जगत अपने हितों के लिए पूरी तरह चौकन्ना है और अपने मीडिया पर उसका पूरा-पूरा कंट्रोल है| निष्पक्षता का उसका साइन बोर्ड आज तार-तार हो चुका है| टी.आर.पी.बनाये रखने को यदा-कदा कुछ वाम नेताओं को भी दर्शा दिया जाता है,परन्तु जनता के हित में की जाने वाली वामपंथ की बड़ी से बड़ी कार्यवाही का ब्लैकआउट किया जाता है| ऐसा इसलिए हो रहा है कि यह केवल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और वामपंथ ही है जो किसानों,कामगारों और आम जनता के हितों पर चोट कर रहे कार्पोरेट घरानों और पूँजी समूहों की लूट को न केवल समझता है अपितु उसको रोकने और बेनकाब करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा| ऐसे में आखिर क्यों पूंजीवादी मीडिया भाकपा और वामपंथ को बढ़ावा देने वाले समाचारों को महत्त्व देगा? ‘हित अनहित पशु पक्षिन जाना’| ऐसे में हमें अपनी ख़बरों, अपने राजनैतिक कर्तव्यों और अपनी गतिविधियों को न केवल आम जनता अपितु अपने कार्यकर्ताओं तक पहुँचाने के लिए हमें आत्म निर्भर बनना होगा| वर्ग विरोधियों से दया अथवा सदाशयता की उम्मीद करना अकर्मण्यता अथवा कायरता ही कही जायेगी| यह कटु सत्य है कि आज हम उत्तर प्रदेश में अपना दैनिक समाचार पत्र तो क्या साप्ताहिक पत्र तक निकालने की सामर्थ्य नहीं रखते| पर जरूर हम एक दिन पहले अपना साप्ताहिक पत्र निकालेंगे और फिर दैनिक भी| हौसला बुलंद हो और इरादा पक्का तो कोई काम असंभव नहीं है| लेकिन यह तो आगे की बात है| लेकिन हमारा पार्टी जीवन लगातार प्रकाशित हो रहा है और पार्टी संबंधी तमाम समाचार और जानकारियां हमें उपलब्ध करा रहा है| परन्तु हम उसको लेकर कतई गंभीर नहीं हैं| सवाल उठता है कि क्या हमारे एक-एक कार्यकर्ता को उसका पाठक और ग्राहक नहीं होना चाहिये? क्या हमें अपने हमदर्दों,शुभचिंतको,पड़ोसियों और मित्रों को उसका ग्राहक और पाठक नहीं बनाना चाहिये? क्या जनसंगठनों के नेताओं और कार्यकर्ताओं को इसके प्रचार-प्रसार और ग्राहक विस्तार के काम को गंभीरता से नहीं लेना चाहिये| अवश्य ही हम सबको वह सब कुछ करना चाहिये कि हमारा अपना पार्टी जीवन हमारे हर कार्यकर्ता तक पहुंचे और हर शुभचिंतक को पढ़ने को मिले| यह कार्य कमेटियों में फैसला लेने अथवा कोटा निर्धारित करने से होने वाला नहीं है| आज यह हमारे लिए एक बड़ी चुनौती है और इस चुनौती को हमें मिशन के तौर पर लेना होगा| हम सब मिल कर इस चुनौती को स्वीकार करें और अक्टूबर,नवम्बर और दिसम्बर माहों में पार्टी जीवन के रिकार्ड तोड़ ग्राहक बनायें| लाल सलाम| डॉ.गिरीश
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सोमवार, 21 अक्तूबर 2013

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को देशव्यापी आह्वान पर प्रदेश में व्यापक सत्याग्रह एवं गिरफ्तारियां

लखनऊ 21 अक्टूबर। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य कार्यालय से जारी एक बयान में पार्टी के राज्य सह सचिव अरविन्द राज स्वरूप ने बताया कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने देशव्यापी आह्वान पर आज उत्तर प्रदेश में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ताओं ने व्यापक रूप से सत्याग्रह किया और गिरफ्तारियां दीं। इस अवसर पर पार्टी के राज्य सचिव डा. गिरीश ने पार्टी के कार्यकर्ताओं को बधाई दी है। ज्ञातव्य हो कि पार्टी द्वारा 3 से 5 अक्टूबर को देशव्यापी अभियान चलाया था परन्तु उत्तर प्रदेश को 21 अक्टूबर को यह कार्यक्रम करना था। पार्टी द्वारा 10 मांगें सरकार के समक्ष रखी गई हैं जिनमें सार्वजनिक खाद्य सुरक्षा, कीमतों पर रोक, रोजगार सृजन आदि प्रमुख हैं। इन मांगों के अतिरिक्त उत्तर प्रदेश में सद्भाव, विकास और कानून के राज को कायम रखने की मांगें जोड़ी गई हैं।
समाचार लिखे जाने तक लगभग 40 जिलों से सूचना प्राप्त हो चुकी है। जिलों के पार्टी कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया और छोड़ दिया गया। अपुष्ट समाचारों के अनुसार जौनपुर में 200 लोग पुलिस लाईन्स में है, उसी तरह कानपुर देहात में भी 35 लोग और मैनपुरी में 125 कार्यकर्ता पुलिस कस्टडी में हैं। पूरे प्रदेश में लगभग 15000 लोगों ने सत्याग्रह और गिरफ्तारी आन्दोलनों में हिस्सेदारी की है।
सत्याग्रह में भागीदार लोग 10 सूत्रीय मांग पत्र को स्वीकार किये जाने की मांग कर रहे थे। अलग-अलग जिलों में पार्टी के राज्य मंत्रिपरिषद, कार्यकारिणी और राज्य कौंसिल सदस्यों एवं पार्टी के जिला मंत्री के नेतृत्व में गिरफ्तारियां दी गयीं। राज्य की राजधानी लखनऊ में सत्याग्रह का नेतृत्व राज्य मंत्रिपरिषद की सदस्या आशा मिश्रा, राज्य कार्यकारिणी सदस्य सुरेन्द्र राम एवं जिला सचिव मो. खालिक ने किया। मऊ में पार्टी सह सचिव एवं पूर्व विधायक इम्तियाज अहमद के नेतृत्व में गिरफ्तारी हुई। केन्द्रीय सचिव मंडल के सदस्य अतुल कुमार अंजान भी उपस्थित रहे। 10 सूत्रीय मांगपत्र में महंगाई पर रोक लगाने, बढ़ी कीमतों को वापस लेने, 2 रूपये प्रतिकिलो की दर से 35 किलो खाद्यान्न मुहैया कराकर सबको खाद्य सुरक्षा की गारंटी करना, बलपूर्वक भूमि अधिग्रहण पर रोक लगाना, वास्तविक लैंगिक समानता के कदम उठाना, महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों पर रोक लगाना, सभी ग्रामीण और शहरी वृद्धों, विधवाओं एवं विकलांगों को पेंशन देना, रोजगार सृजन विकास पर ध्यान देकर देश भर में बेरोजगारी कम करना और नये रोजगार के अवसर उपलब्ध कराना शामिल है। उत्तर प्रदेश में सम्बन्धित मांगों में समाज में सद्भाव स्थापित करने, कानून व्यवस्था ठीक करने, महिलाओं एवं बालिकाओं के साथ दुराचार रोकने, साम्प्रदायिक ताकतों पर कारगर रोक लगाने और प्रदेश में हुए साम्प्रदायिक दंगों की उच्च स्तरीय जांच कराने, सच्चर समिति की सिफारिशें लागू करने तथा आतंकवाद के नाम पर निर्दोषों का उत्पीड़न बन्द करने, दलितों एवं आदिवासियों पर हो रहे अत्याचार बन्द करने, खेत मजदूरों और किसानों को 3000/- प्रतिमाह पेंशन देने, प्रदेश मे श्रम कानूनों का पालन करवाने, ठेकेदारी प्रथा समाप्त करने तथा बंद मिलों को चलाने एवं नये रोजगार सृजित कराने आदि मांगें शामिल की गई हैं।
पूरे प्रदेश में पार्टी कार्यकर्ताओं ने भारी उत्साह के साथ सत्याग्रह और गिरफ्तारियों में झंडे, बैनरों के साथ भागीदारी की है। सम्पन्न सभाओं में नेताओं ने पार्टी की राजनीति और मांगों के इर्द-गिर्द भाषण दिये और संकल्प लिया कि जनोन्मुखी विकास के मॉडल की आर्थिक-सामाजिक नीतियों के आधार पर राजनैतिक विकल्प का अभियान चलाया जायेगा। पार्टी नेताओं ने कहा है कि इस अभियान को आगामी लोक सभा चुनाव तक ले जाया जायेगा।
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गुरुवार, 10 अक्तूबर 2013

अंतरंग (क्रोनी) पूंजीवाद के युग में वैकल्पिक मीडिया की जरूरत

संप्रग शासन काल में पूंजीवाद के साथ जिस विशेषण का लगातार प्रयोग किया गया वह है ”क्रोनी“। अर्थशास्त्र का ज्ञान न रखने वाले लोग इसे छोटा पूंजीवाद, कारपोरेट पूंजीवाद या ऐसा ही कुछ और समझ लते हैं। अंग्रेजी में ‘क्रोनी’ संज्ञा है जिसका अर्थ है ‘अंतरंग मित्र’। अंग्रेजी भाषा की यह खासियत है कि संज्ञा को विशेषण और क्रिया के रूप में प्रयोग किया जा सकता है। अर्थशास्त्री ”क्रोनी कैपिटलिज्म“ को पूंजीवाद का वह भ्रष्टतम रूप बताते हैं जिसमें शासक और पूंजीपतियों में अंतरंग मित्रता हो और दोनों एक दूसरे के लिए कुछ भी करने को तैयार हों। यानी पूंजीवाद के जिस दौर से हम हिन्दुस्तान में गुजर रहे हैं वह पूंजीवाद का वही भ्रष्टतम रूप है जिसमें पूंजीपति और पूंजीवादी राजनीतिक दल अंतरंग मित्र बन चुके हैं। हमने पिछले पांच सालों में देखा कि पूंजीवाद के इसी भ्रष्टतम रूप के कारण संप्रग-2 के सात मंत्रियों को भ्रष्टाचार के आरोप में त्यागपत्र देने को मजबूर होना पड़ा परन्तु उनमें से केवल एक ए.राजा को छोड़ कर किसी को भी जेल की हवा काटने अभी तक नहीं जाना पड़ा है। भाजपा भी इस भ्रष्टाचार से अछूती नहीं रही।
यह कोई छिपा हुआ तथ्य नहीं है कि इलेक्ट्रानिक संमाचार माध्यम और प्रिंट मीडिया (विशेष रूप से अंग्रेजी और हिन्दी) के मालिकान कारपोरेट घराने हैं और निश्चित रूप से पूंजीवाद के वर्तमान रूप में वे अपने राजनीतिक मित्रों और हितचिन्तकों के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। आज पत्रकारिता पत्रकारिता रह ही नहीं गई है। इसे पत्रकारिता का कौन सा रूप कहा जाये, इस पर हम सबको विचार करना चाहिए। मीडिया आज कल कारपोरेट पॉलिटिक्स का औजार बन कर रह गया है।
आइये कुछ घटनाओं के साथ-साथ कारपोरेट मीडिया और राजनीतिज्ञों की अंतरंगता की बात करते हैं। रविवार 29 सितम्बर को दिल्ली में प्रधानमंत्री के इकलौते घोषित भाजपाई प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी की मीडिया में बहुप्रचारित रैली आयोजित थी। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार लगभग 7000 सुरक्षाकर्मियों और 5000 कार्यकर्ताओं को सम्बोधित कर मोदी प्रस्थान कर गये। ठीक उसी वक्त इलेक्ट्रानिक समाचार माध्यम इस रैली का ‘लाइव’ प्रसारण कर रहे थे और रैली में आई भीड़ को पांच लाख बता रहे थे। अगले दिन समाचार पत्रों ने इस रैली के समाचारों को मुखपृष्ठों पर बड़े-बड़े मोटे टाईप में प्रकाशित किया। यह वास्तविकता थी कि न कहीं जाम लगा और न ही मीडिया को पांच लाख की भीड़ आने पर लगने वाले जाम के न लगने पर कोई परेशानी हुई।
यही मीडिया अगले लोक सभा चुनावों को मुद्दों के बजाय दो व्यक्तियों - भाजपा के घोषित प्रधानमंत्री प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी और कांग्रेस के अघोषित प्रधानमंत्री प्रत्याशी राहुल गांधी के बीच केन्द्रित कर देना चाहती है। कारण स्पष्ट है कि कांग्रेस जीते या भाजपा नीतियां वहीं रहेंगी जो देशी और विदेशी पूंजी चाहती है, आखिरकार दोनों ही पार्टियां कारपोरेट घरानों की अंतरंग मित्र हैं।
आइये अब हाल में बनी ‘आम आदमी पार्टी’ के बारे में चर्चा करते हैं। यह पार्टी तथाकथित भ्रष्टाचार विरोधी (अन्ना) आन्दोलन की कोख से पैदा हुई है। इस आन्दोलन के शुरू होने के पहले ही चर्चा गरम थी कि एक के बाद एक भ्रष्टाचार के खुलते मामलों पर जनता में व्याप्त आक्रोश को शान्त करने के लिए कारपोरेट घरानों और सत्ताधीशों की अंतरंगता से यह आन्दोलन आयोजित किया जा रहा है। इस आन्दोलन के दौरान दो बातें सामने आयीं जिनका एक बार फिर उल्लेख जरूरी होगा। पहला जिस तादाद में पूरे हिन्दुस्तान में प्रचार सामग्री की बाढ़ आई थी, उसके लिए एक बड़े तंत्र की और करोड़ों के धन की जरूरत थी। भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन के पास एकाएक पैसा कहां से आया और एकदम से इतना बड़ा तंत्र कहां से खड़ा हो गया, इन दोनों बातों पर प्रश्नचिन्ह आज तक लगा हुआ है? दूसरा कारपोरेट मीडिया ने भ्रष्टाचार के राजनैतिक सवाल पर इसे एक गैर राजनैतिक पहलकदमी बताते हुए जितना प्रचार-प्रसार किया, वह आन्दोलन के फैलाव से कहीं बहुत अधिक था। पूंजी और उसके चन्द समाजवादी पैरोकार राजनीति का गैर राजनीतीकरण करने के लिए बहुत अरसे से काम करते रहे हैं। 1957 में समाजवादियों के मिलान सम्मेलन से विचारधारा विहीन मनुष्य की जिस परिकल्पना का जन्म हुआ था, जिसे आपातकाल के दौर में संजय गांधी ने पाला पोसा, उसे ही आज कारपोरेट मीडिया आगे बढ़ा रहा है। नवउदारवाद के जन्म के साथ उसके बरक्स वैकल्पिक राजनीति के निर्माण की भी शुरूआत हो गयी थी। भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन और आम आदमी पार्टी ने वैकल्पिक राजनीति को भारी नुकसान पहुंचाया और उसके इस कारनामे में कारपोरेट मीडिया उसका सहोदर बना रहा है। आज इस ‘आम आदमी पार्टी’ को मीडिया जितना कवरेज दे रहा है, उसका दशांश भी मुख्य धारा की वैकल्पिक राजनीतिक पार्टियों को वह कवर नहीं करता है।
लखनऊ में 30 सितम्बर को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने ”महंगाई, अत्याचार और भ्रष्टाचार के खिलाफ! सद्भाव, विकास एवं कानून के राज के लिए!!” के नारे के साथ लखनऊ में एक विशाल जुलूस निकाला और ज्योतिर्बाफूले पार्क में एक विशाल जनसभा की। यह घटना उत्तर प्रदेश जैसे राज्य के लिए महत्वपूर्ण इसलिए थी कि यहां काफी अरसे से वामपंथी पार्टियों का जनाधार विशालतम नहीं रहा है। इस रैली में मोदी की दिल्ली रैली के मुकाबले चार-पांच गुना अधिक कार्यकर्ता मौजूद थे फिर भी किसी इलेक्ट्रानिक मीडिया ने इसे कवर नहीं किया। अंग्रेजी और हिन्दी के समाचार-पत्रों ने केवल स्थानीय पन्नों पर इसका जिक्र किया। उर्दू अखबारों पर अभी भी कारपोरेट मीडिया का स्वामित्व नहीं है। उर्दू समाचार पत्रों ने इस घटना को पूरी गम्भीरता से स्थान दिया।
कुछ भी माह पहले सभी केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों तथा स्वतंत्र फेडरेशनों ने दिल्ली में एक बड़ी रैली की थी जिसमें लगभग एक लाख के करीब भीड़ थी। इस घटना को भी किसी टी.वी. चैनल ने नहीं दिखाया और समाचार पत्रों में जाम के कारण जनता को होने वाली असुविधा के समाचार ही छपे थे। एक लाख मजदूर और कर्मचारी पूरे देश से राजधानी दिल्ली में क्यों जमा हुए, कारपोरेट मीडिया का इससे कोई सरोकार नहीं था।
लगभग एक साल पहले वामपंथी पार्टियों ने जिस समय ‘हर परिवार को हर माह दो रूपये के हिसाब से 35 किलो अनाज की कानूनी गारंटी’ के लिए दिल्ली के जंतर-मंतर पर एक हफ्ते धरना दिया था, उसी समय ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ का उसी जंतर-मंतर पर धरना चल रहा था। मीडिया ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ के धरने को लगातार दिखा रहा था परन्तु उससे कहीं बहुत अधिक बड़े वामपंथी पार्टियों के धरने को कवर नहीं किया गया। कुछ यही समाचार पत्रों ने भी किया था।
मीडिया के यह दोहरे मानदण्ड यह इशारा करते हैं कि पूंजीवादी राजनीति के बरक्स वैकल्पिक राजनीति - वाम राजनीति के प्रचार-प्रसार के लिए बहुत जरूरी है कि आम जनता एक विशालकाय वैकल्पिक मीडिया खड़ा करे। इसे एक रात में खड़ा नहीं किया जा सकता है। इसलिए यह जरूरी है कि ”पार्टी जीवन“ और ”मुक्ति संघर्ष“ के प्रसार को आम जनता के मध्य ले जाया जाये। हर बड़े जिले में इन समाचार पत्रों के कम से कम 200-200 ग्राहक तथा छोटे जिलों में कम से कम 100-100 ग्राहक जनता के मध्य बनाये जाये, जिससे वैकल्पिक राजनीति के समाचार और लेख आम जनता के मध्य पहुंच सके। शुरूआत इसी से करनी होगी और हम आशा करते हैं कि हमारे साथी इसे गम्भीरता से लेते हुए इस कार्यभार को भी अदा करेंगे।
- प्रदीप तिवारी
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शनिवार, 5 अक्तूबर 2013

30 सितम्बर की रैली और उसके सबक

लगभग दो दशकों के अंतराल के बाद उत्तर प्रदेश में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी एवं उसके जन संगठनों ने मिल कर 30 सितम्बर 2013 को एक विशाल राज्य स्तरीय रैली का आयोजन किया। इस रैली पर तमाम-तमाम कारणों से तमाम लोगों की निगाहें टिकी थीं। हमें खुशी है कि हम और हमारे कार्यकर्ता लखनऊ में लाल झंडे की मजबूत दस्तक देने में पूरी तरह कामयाब रहे।
शासन, प्रशासन और प्रकृति द्वारा पैदा की गई तमाम अड़चनों के बावजूद रैली में भाग लेने वाले साथी 29 सितम्बर की शाम से ही चारबाग रेलवे स्टेशन पर आना शुरू हो गये थे, जहां से रैली को प्रारम्भ किया जाना था। हालांकि रैली निकालने के लिए प्रशासन ने अनुमति 11 बजे से दी थी परन्तु सुबह 10 बजते-बजते चारबाग रेलवे स्टेशन के विशालकाय परिसार में तिनके को भी ठहरने की जगह नहीं बची तो रैली को सड़कों पर उतारना आवश्यक हो गया। रैली क्या लाल झंडों का सैलाब सड़कों पर उतर चुका था। जोशीले और क्रान्तिकारी नारों के साथ यह रैली लगभग साढ़े दस कि.मी. लम्बी दूरी तय करके लगभग 12.30 बजे (2.30 घंटे में) सभास्थल ज्योतिर्बाफूले पार्क पहुंच सकी। राज्य सरकार और जिला प्रशासन के तुगलकी आदेशों के चलते अब शहर का कोई भी पार्क बड़ी रैलियों के लिए नहीं मिल सकता। अतएव हमें उपुर्यक्त पार्क लेना पड़ा। लगभग तीन-चार हजार स्त्री, वृद्ध, अधेड़ इतनी दूरी चल नहीं पाये और बीच रास्ते से ही स्टेशनों के लिए वापस हो लिये।
जैसाकि हमेशा होता है मीडिया में रैली को कम ही स्थान मिला। टी.वी. चैनलों ने तो लगभग पूरी तरह बायकाट रखा। मजबूरी में ही सही हिन्दी/अंग्रेजी के समाचार पत्रों ने समाचार मय फोटो के छापे लेकिन स्थानीय पन्नों पर। प्रदेश के किसी भी हिस्से में भाकपा की रैली की खबर पढ़ने को नहीं मिली। कई समाचार पत्रों ने रैली के कारण शहर में लगे जाम की फोटो और खबरें छापीं। हां कुछ छोटे हिन्दी समाचार पत्रों ने अपने प्रदेशव्यापी पन्नों पर रैली की खबरों को स्थान दिया। कई ने खबर न छापने के प्रायश्चित के तौर पर इन पंक्तियों के लेखक के साक्षात्कार अगले दिन प्रकाशित किये।
उर्दू अखबार सचमुच बधाई के पात्र हैं जिन्होंने रैली की न केवल राजनैतिक धार को पहचाना अपितु उसके संदेश को, खबरों को अपने ढंग से दुरूस्त कर प्रकाशित किया। कई ने लिखा - ”लगभग 25 साल बाद लखनऊ में लाल झंडे का इतना बड़ा सैलाब उमड़ा“ अथवा ”साम्प्रदायिकता, महंगाई, भ्रष्टाचार के खिलाफ भाकपा ने दी मजबूत दस्तक“ अथवा ”25 हजार का लाल सैलाब उमड़ा लखनऊ की सड़कों पर, यातायात ठप्प“ आदि।
यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि हमारा आकलन है कि रैली में गिने हुये 15-16 हजार से कम लोग नहीं आये। लेकिन प्रशासन, समाचार पत्रों और प्रत्यक्षदर्शियों का आकलन 20-25 हजार अथवा उससे अधिक का है।
यहां एक उल्लेखनीय पहले यह भी है कि इन दिनों गोरखपुर से गुजरने वाली अधिकांश गाड़िया रद्द थीं। मुजफ्फरनगर/शामली के दंगों से पश्चिमी जिलों में दहशत व्याप्त थी। 29 सितम्बर को मेरठ में गोलीबारी और पथराव से मेरठ ही नहीं अगल-बगल के जिलों में भारी तनाव पैदा हो गया और 29 सितम्बर की दोपहर से ही प्रदेश के कई भागों में बारिश से आवागमन प्रभावित हो गया था। अतएव बहुत से जिलों से आमद प्रभावित हुई।
केन्द्र सरकार के साढ़े चार साल के शासनकाल में जिस तरह से महंगाई, भ्रष्टाचार, विदेशी पूंजी, बेरोजगारी और आर्थिक पराभव का नंगा नाच देखने को मिला है, लोगों में उसके प्रति भारी गुस्सा है। कांग्रेस और भाजपा के बीच 2014 में सत्ता पर काबिज होने के लिये जिस तरह कबड्डी चल रही है, यह लोगों के गुस्से को और बढ़ा रहा है।
1 साल 5 माह के शासन काल में उत्तर प्रदेश सरकार जिस तरह जनविरोध की राह पर चली, लोग हतप्रभ हैं क्योंकि उन्हें इस सरकार के मुखिया में एक उम्मीद की किरण नजर आई थी। एस सौ की गिनती पार कर चुके साम्प्रदायिक दंगों, मुजफ्फरनगर/ शामली में हुये साम्प्रदायिक हत्याकांडों, पलायनों, बलात्कारों और सम्पत्ति की तबाही ने प्रदेश की धर्मनिरपेक्ष जनता को भारी हताश किया है और मुस्लिम अल्पसंख्यकों में भारी आक्रोश और असुरक्षा बोध है। दो दशक में पहली बार अल्पसंख्यकों का विश्वास सपा और उसकी सरकार से डिगा है जिसकी जल्दी भरपाई संभव नहीं है।
इस परिस्थति में पार्टी और जन संगठनों के नेता और कार्यकर्ता, जो कई वर्षों से लगातार आन्दोलन चला रहे थे, इस रैली को पार्टी की प्रतिष्ठा का प्रश्न मान कर उसकी तैयारियों में जुट गये और रैली की सफलता का श्रेय उन्हीं सबको जाता है।
मोटे तौर पर रैली ने केन्द्र और राज्य सरकार की जनविरोधी नीतियों, खासकर मुजफ्फरनगर दंगों से निपटने में राज्य सरकार की असफलता पर कड़ा प्रहार किया है। उत्तर प्रदेश की खासकर लखनऊ की जनता को यह बताने में कामयाबी हासिल की है कि भाकपा आज भी एक ताकत है। समूचे देश और उत्तर भारत की पार्टी कतारों में अहसास जगाया है कि देश की राजनीति में महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले उत्तर प्रदेश में भाकपा पुनः करवट ले रही है।
और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उत्तर प्रदेश भाकपा और जन संगठनों का एक-एक कार्यकर्ता उत्साह से लबरेज है, उनका आत्मविश्वास बढ़ा है और नई परिस्थतियों में स्वतंत्र रूप से लड़ाई लड़ कर, पार्टी एवं जन संगठनों का विस्तार कर वामपंथी ताकतों की धुरी बनकर वामपंथी लोकतांत्रिक विकल्प के निर्माण का उनका संकल्प सुदृढ़ हुआ है।
यह सब इसलिये संभव हो सका कि पार्टी कतारों में यह विश्वास पैदा हो गया है कि अब प्रदेश पार्टी किसी की पिछलग्गू नहीं बनेगी और अपनी ताकत के बल पर गैरों को ताकतवर नहीं बनायेगी।
रैली की सफलता की बधाइयां देने और स्वीकार करने का दौर अभी कुछ दिनों और चलेगा लेकिन अब वक्त आ गया है कि हम एक पल भी खामोश न बैठें। 2014 के लोकसभा चुनावों को लेकर भाजपा, कांग्रेस तथा दूसरे पूंजीवादी दल जिस तरह से लोगों की समस्याओं पर चर्चा से बचते हुये, आम जन को केवल अपना वोट समझते हुये अपना अभियान चला रहे हैं, उससे आम लोग संतुष्ट नहीं हैं। जनपरक नीतियां प्रस्तुत करने के बजाये जिस तरह से साम्प्रदायिक, जातीय और क्षेत्रीय विभाजन के कार्ड्स फेके जा रहे हैं, लोग उसको भी समझ रहे हैं। किसी हद तक कहा जाये तो किसी भी पूंजीवादी दल से लोग संतुष्ट नहीं हैं। ऐसी स्थिति देश की राजनीति में कई वर्षों के बाद आई है।
जहां तक भाकपा और वामपंथ की बात है, लोग उन्हें बेहद ईमानदार, भ्रष्टाचार से कोसों दूर, सही मायने में धर्मनिरपेक्ष और जातिवाद, क्षेत्रवाद तथा दूसरी संकीर्णताओं से मुक्त मानते हैं और उन पर भरोसा करते हैं।
हमें उनके भरोसे को जीतना है। अतएव स्थानीय, प्रादेशिक और राष्ट्रीय सवालों पर लगातार आन्दोलन चलाने होंगे। शोषित, पीड़ित जनता से मजबूत कड़ियां बनानी होंगी। इसके लिए पार्टी शाखाओं और जन संगठनों को सक्रिय करना होगा। पार्टी शिक्षा, पार्टी अखबार और पत्र-पत्रिकाओं को फैलाना होगा। पार्टी की आर्थिक स्थिति को नीचे से ऊपर तक सुदृढ़ करना होगा। सबसे अहम सवाल है कि छात्रों, नौजवानों और महिलाओं को बिना विलम्ब किये पार्टी कतारों में शामिल करना होगा।
और फौरी कर्तव्य यह है कि जिन सवालों पर रैली का आयोजन किया गया, उन सवालों के साथ स्थानीय सवालों पर 21 अक्टूबर 2013 को जिला केन्द्रों पर सत्याग्रह/जेल भरो आन्दोलन को पूरी शिद्दत से सफल बनाना होगा।
- डा. गिरीश
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