भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रकाशन पार्टी जीवन पाक्षिक वार्षिक मूल्य : 70 रुपये; त्रैवार्षिक : 200 रुपये; आजीवन 1200 रुपये पार्टी के सभी सदस्यों, शुभचिंतको से अनुरोध है कि पार्टी जीवन का सदस्य अवश्य बने संपादक: डॉक्टर गिरीश; कार्यकारी संपादक: प्रदीप तिवारी

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सोमवार, 14 जनवरी 2013

साम्प्रदायिक दंगे और पुलिस की भूमिका

    यह अंदर की बात है, पुलिस हारे साथ है दंगाई विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल एवं शिवसैनिकों ने 6 दिसंबर, 1992 को पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों की उपस्थिति में यह नारा लगाते हुए बाबरी मस्जिद को विध्वंस कर डाला था।
    कोई राज्य चाहे लोकतांत्रिक हो या तानाशाही पद्धति से चलता हो, उदारवादी हो या मार्क्सवादी, धर्मनिरपेक्ष हो या मज़हबी एक संगठित पुलिस व्यवस्था उसके लिए जरूरी है। हर राज्य के लिए पुलिस संगठन अपरिहार्य और अनिवार्य है। पुलिस बल राज्य के व्यवस्था तंत्र का एक हिस्सा होता है। पुलिस का मख्य उत्तरदायित्व नागरिक कानून लागू करना और बनाये रखना है। पुलिस बल जब राजनीतिक भावना से संचालित होने लगे, अगर यह सांप्रदायिक, जातिवादी या कोई दूसरे सामाजिक पूर्वगग्रह से प्रभावित हो जायेगा। साम्प्रदायिक या जातीय दंगों के दौरान ऐसा दिखाई भी देता है।
    भारत एक सार्वभौमिक राष्ट्र है। दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र में विभिन्न धर्मों, संस्कृतियों, भाषाओं तथा राजनीतिक मान्यताओं वाले लोग रहते हैं। विभिन्न धार्मिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक मान्यताओं वाले लोगों की मौजूदगी की वजह से भारत में अलग-अलग तरह के परस्पर विरोध एवं आंतरिक कलह की संभावना बनी रहती है। इन परिस्थितियों में पुलिस को, जिससे कानून की रखवाली और लोगों की जिंदगी एवं आजादी को बिना भेदभाव के सुरक्षा करने के अपेक्षा की जाती है, और अधिक सक्रिय एवं सकारात्मक भूमिका निभाने की जरूरत है। लेकिन भारत में पुलिस बल का जो प्रदर्शन रहा है वह अपने जरूरी लक्ष्य से बहुत पीछे है। पुलिस बल हमारे समाज का एक बेहद नफरत से देखा जाने वाला संगठन है। अपने अत्याचारों एवं मानवाधिकारों के घृणित उल्लंघन की वजह से पुलिसवालों को कभी-कभी ‘वर्दीवाले अपराधी’ भी कहा जाता है।
    हमारे देश में पुलिस और विभिन्न समुदायों के बीच सौहार्दपूर्ण रिश्ता नहीं है, और सामान्य रूप से भारतीय समाज की नजर में पुलिस की सकारात्मक छवि नहीं है, लेकिन अल्पसंख्यक तो विशेष रूप से पुलिस पर अपना विश्वास पूरी तरह खो चुके हैं। दलित भी पुलिस के हाथों प्रताड़ित होते रहे हैं, लेकिन नौकरियों में आरक्षण की वजह से इस विभाग में उनकी संख्या बढ़ गयी है, जिससे उन पर होने वाले अत्याचार कम हो गये हैं। हालांकि यह भी एक सच्चाई है कि सामान्य परिस्थितियों में पुलिस के दुर्वव्यहार और इस विभाग के संस्थागत भ्रष्टाचार की वजह से बहुसंख्यकों एंव अल्पसंख्यकों को समान रूप से परेशान होना पड़ता है। लेकिन साम्प्रदायिक दंगों या फिर दंगे जैसी परिस्थितियों में पुलिस योजनाबद्ध तरीके से जान-बूझकर अल्पसंख्यकों को परेशान करती है। वर्ष 1969 में अहमदाबाद के साम्प्रदायिक दंगों, 1980 के मुरादाबाद दंगों, 1984 के सिख विरोधी दंगों, 1987 के मेरठ दंगों, 1989 के भागलपुर दंगों, 1992-93 के मुंबई दंगों से लेकर 2002 में गुजरात में हुए जनसंहार से संबंधित कागजातों के सर्वेक्षण से यह स्पष्ट होता है।
    वर्ष 1977 में उत्तर प्रदेश के वाराणसी में एक भीषण सांप्रदायिक दंगा हुआ था। यहां फिर से पुलिस पर सांप्रदायिक दुर्भावना और भेदभाव रवैये का आरोप लगा था।
    वहाँ पर, पुलिस ने न सिर्फ लूटपाट और आगजनी में खुलेआम हिस्सा लिया था बल्कि मस्जिदों एवं मकबरों का विध्वंस भी किया था। दो मकबरों को पूरी तरह से नेस्तानाबूद कर दिया गया था और तीन मस्जिदों को इस बुरी तरह से विध्वंसित कर दिया गया कि यह विश्वास करना मुश्किल था कि कुछ सौ लोगों की भीड़ को मनचाहे समय तक तोड़-फोड़ करने के लिए पुलिस ने प्रोत्साहित किया था।
    वर्ष 1980 के मुरादाबाद दंगों ने भारतीय पुलिस के दुखद इतिहास में एक और अध्याय जोड़ दिया था। यह दंगा मुस्लिम विरोधी पीएसी द्वारा गलत तरीके से अपनी ताकत का इस्तेमाल करने की वजह से भड़का था। वह आजाद भारत के इतिहास का एक काला दिन था, जब ईद (खुशी और भाईचारे के त्यौहार) के दिन अंधाधुंध फायरिंग द्वारा मुसलमानों को निशाना बनाया गया था। प्रोफेसर सतीश सबरवाल और प्रोफेसर मुशीरुल हसन ने दंगा प्रभावित शहर का दौरा कर अपनी एक विस्तृत रिपोर्ट पेश की थी, जिसमें पुलिस और पीएसी को मुसलमानों के खिलाफ मनमानी और निर्दयता का दोषी ठहराया गया था। रिपोर्ट में लिखा गया था, शहर की पुलिस ने कई हफ्तों तक मुसलमानों को पीटने, लूटने और मारने वाले संगठित बल की तरह काम किया। पीएसी ने विशेष रूप से एक संप्रदाय के सांप्रदायिक तत्वों एवं गुंडों के साथ मिलकर सांठ-गांठ की थी। यही नहीं न्यायपालिका सहित व्यवस्था के विभिन्न अंगों ने एक तरह से स्थानीय पुलिस एवं पीएसी समर्थक रवैया अपनाया था।
    1984 के सिख विरोधी दंगों ने भी बताया कि जब बहुसंख्यक संप्रदाय का जुनून हद से गुजरता है तब सांप्रदायिक दंगों की स्थिति में किसी भी धर्म को मानने वाले अल्पसंख्यकों को उत्पीड़न और यहाँ तक कि नरसंहार का खतरा रहता है। इंदिरा गांधी की हत्या उनके दो सिख अंगरक्षकों द्वारा किया जाना बहुसंख्यक संप्रदाय के लिए पूरे सिख संप्रदाय को निशाने पर लिये जाने के लिए पर्याप्त था। सिर्फ दिल्ली में हुए दंगों मंे लगभग 3000 निर्दोष सिखों का कत्लेआम कर दिया ग्या। दिल्ली के सिख विरोधी दंगो की जाँच करने के लिए गठिन रंगनाथ मिश्र आयोग ने कहा कि पुलिस द्वारा सिखों की सुरक्षा एवं स्थिति को नियंत्रण करने में दर्शायी गयी ‘पूर्ण निष्क्रियता’, निर्दयता तथा भेदभाव की वजह से दंगे हुए। पुलिस ने सिर्फ अपना उत्तरदायित्व नहीं निभाया, बल्कि सिखों के खिलाफ होने वाले जनसंहार और लूटपाट में भी हिस्सा लिया।
    लेखक ने स्वयं अपनी आंखों से 1984 के सिख विरोधी दंगों में देखा है। जहां पर पुलिस तीन दिन तक न केवल मूक दर्शन बनी रही बल्कि दंगाइयों को पेट्रोल-डीजल एवं अन्य ज्वलनशील पदार्थ भी अपनी गाड़ियों से सप्लाई करती रही।
    मुझे याद है कि उस समय भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव स्वर्गीय सी. राजेश्वर राव ने क्षेत्र का दौरा करते हुए हम तमाम पार्टी कार्यकर्ताओं को स्पष्ट निर्देश दिया कि कॉमरेड आप लोग, आग में कूदकर सिखो की जान-माल की रक्षा करें। आज हमें गर्व है कि उस समय हम सभी कामरेडों ने ऐसा ही किया था।
    मई 1987 में मेरठ में हुए दंगों ने एक बार फिर से पुलिस को कटघरे में खड़ा कर दिया। इन दंगों की तुलना जर्मनी में नाजियों द्वारा यहूदियों के कत्लेआम से की गयी। मई 1987 के मेरठ दंगो के दौरान पीएसी ने हाशिमपुरा के मुस्लिम युवाओं को गिरफ्त में लेने के बाद उन्हें ट्रक में डालकर एक नहर के पास लाकर गोली मार दी। उन हत्याओं को व्यापक रूप से नरसंहार की संज्ञा दी गयी। तमाम सबूतों की जांच-पड़ताल के बाद एमनेस्टी इंटरनेशनल की रिपोर्ट इस नतीजे पर पहुँची थी कि इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि पीएसी दर्जनों गैरकानूनी हत्याओं और 22 तथा 23 मई, 1987 को अनेक अल्पसंख्यक लोगों के गायब हो जाने के लिए जिम्मेदार थी। वरिष्ठ पत्रकार निखिल चक्रवर्ती ने कहा कि पीएसी, जिसका सांप्रदायिक पूर्वाग्रह कभी छिपा नहीं रहा है, ने इस बार हिटलरी निर्दयता का अपना ही कीर्तिमाल ध्वस्त कर डाला। पीयूसीएल ने कहा कि ऐसी घटनाएं सिर्फ हिटलर की जमीन पर हो सकती हैं। डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी ने होशियारपुर मे मुसलमानों की निर्दयतापूर्वक की गयी हत्या को नरसंहार का एक स्पष्ट मामला बताया।
    साम्प्रदायिक दंगो के दौरान मुसलमानों के खिलाफ पुलिस का अमानवीय चेहरा सिर्फ उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात में ही सामने नहीं आया है बिहार में वीएमपी ने मुसलमानों के प्रति अपना साम्प्रदायिक पूर्वाग्रह उजागर किया था। इन दंगों में एक हजार से अधिक लोग मारे गये थे। लॉगन (जगदीशपुर पुलिस स्टेशन) में मुसलमानों के संहार हुए, जहां कुछ को छोड़कर 170 मुस्लिमों को मौत की नींद सुला दिया गया।
    वर्ष 1992-93 के मुंबई दंगों ने महाराष्ट्र पुलिस के मुस्लिम विरोधी पूर्वाग्रह का पर्दाफाश कर दिया था। दिसंबर 1992, जनवरी 1993 के दंगों तथा 12 मार्च, 1997 के बम ब्लास्ट की जांच करने के लिए गठित आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति बी.एन. कृष्णा ने टिप्पणी की है, हताश पीड़ितों को विशेष रूप से मुसलमानों की मदद की गुहार पर पुलिस की प्रतिक्रिया बेहद नकारात्मक और निन्दनीय थी। कई अवसरों पर उनकी प्रतिक्रिया ऐसी भी थी कि वे अपने लिए निर्धारित स्थान को दूसरों पर नही छोड़ सके। मकसद था कि एक मुस्लिम मरा मतलब एक मुस्लिम कम हुआ। पुलिस अधिकारी, विशेष रूप से जुनियर पुलिसवालों के मुसलमानों के प्रति पूर्वाग्रह का खुलासा तो बार-बार हुआ। मुसलमानों के प्रति उनका व्यवहार निर्दयतापूर्ण तथा रूखा था जो कभी-कभी अमानवीय हद तक पहुंच जाता था। पुलिसवालों का पूर्वाग्रह दंगाई हिन्दू भीड़ के साथ पुलिस कांस्टेबलों के सक्रिय सहयोग के रूप में दिखाई दिया। कई अवसरों पर पुलिसवाले बेहपरवाह दर्शकों जैसे चुपचाप खड़े होकर तमाशा देखने की मुद्रा में होते थे।
    वर्ष 2002 का गुजरात नरसंहार फासिस्ट हिन्दुवादी ताकतों द्वारा मुसलमानो के कत्लेआम का एक स्पष्ट उदाहरण है। 2002 के गुजरात के नरसंहार का अध्ययन एवं इसकी गहन जांच की जरूरत है। गुजरात का कत्लेआम योजनाबद्ध था और इसे विधिवत पूरा किया गया था। कट्टरपंथी हिन्दू संगठनों एवं दलों की देखरेख में मुसलमानों का नरसंहार हुआ। गुजरात के मुख्यमंत्री ने न्यूटन के गति के नियमों का उदाहरण देते हुए इस नरसंहार को सही ठहराया। पुलिस, जिसने लूटपाट, हत्याएं, आगजनी में सक्रिय भागीदारी की, अपनी मुस्लिम विरोधी छवि कायम रखी। सदमे वाली बात यह है कि अहमदाबाद के तत्कालीन पुलिस आयुक्त पी.सी. पाण्डेय ने यह कहते हुए अपने पुलिस बल की हरकातें को सही बताया कि ये लोग भी आम भावना की वजह से प्रभावित हो गए। यही सारी समस्या की वजह है पुलिस समान रूप से आम भावना से प्रभावित हो जाती है।
    4 नवम्बर 2012 को नई दिल्ली के मावलंकर सभागार में पी.सी.पो.टी. (पीपुल्स कैम्पेन अगेन्स्ट पॉलीटिक्स ऑफ टेर्र) द्वारा आयोजित कन्वेशन जिसमें सी.पी.आई. के ए.बी. वर्धन, सुधाकर रेड्डी, अतुल अन्जान, डी.राजा, अजीज पाशा, सी.पी.एम. के प्रकाश करात के अतिरिक्त लालू प्रसाद यादव, राम बिलास पासवान, कांग्रेस के मणिशंकर अय्यर व तमाम सेक्यूलर पार्टियों के नेतागण ने एक मंच पर आकर, पुलिस एवं खुफिया एजेंसियों द्वारा आतंकवाद के नाम पर चलाये जा रहे अभियान में ज्यादा से ज्यादा मुस्लिम नौजवानों को फंसाने की साजिश की पुरजोर शब्दों में निन्दा की। जैसा कि पिछली अटर बिहारी बाजपेयी की एडीए सरकार द्वारा संचालित अमेरिकन थ्योरी ‘सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं हैं लेकिन सभी आतंकवादी मुसलमान हैं’ पर अमल करते हुए हमारे देश की पुलिस एवं ए.टी.एस. ने पिछले 20 वर्षाें में अनेक पढ़े-लिखे मुस्लिम नौजवानों को झूठे केसों में फंसाया, और उन्हीं में से एक-एक-कर तमाम लोग उच्चतम न्यायालय से बाइज्जत बरी भी हो गये।
    इस बारे में जरा भी शक नहीं है कि आतंकवाद राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए एक बहुत बड़ा खतरा बन चुका है। इसने राष्ट्रीय महाविपत्ति का रूप ले लिया है। इसलिए इस समस्या का सामना करने के लिए व्यापक एवं सावधानी पूर्वक तैयार की गयी योजना की जरूरत है, लेकिन परेशानी यह है कि इस समस्या को हल्के ढंग से एक सीमित नजरिये से देखा जा रहा है। मीडिया और यहां तक कि सुरक्षा एजेंसिया भी इस समस्या को एक खास अंदाज में देख रही हैं। इसलिए ऐसा महसूस किया गया कि अधिकतर मामलों में आतंकवाद को इस्लाम एवं मुसलमानों से जोड़ दिया जाता है। मीडिया, पुलिस, राजनीतिज्ञों तथा खुफिया एजेंसियों द्वारा अक्सर इस्लामी कट्टरपंथ और मुस्लिम आतंकवादियों जैसे शब्दों को इस्तेमाल किया जाता है। पुलिस सुधार पर विस्तार से लिख चुके एक जाने-जाने पुलिस अधिकारी विभूति नारायण राय के अनुसार एक औसत पुलिसवाले के लिए खुफिया जानकारी का मतलब साम्प्रदायिक मुस्लिम संगठनों की गतिविधियों के बारे में जानकारियां इकट्ठा करना होता है। इसका परिणाम यह होता है कि साम्प्रदायिक हिन्दू संगठन संदेह के दायरे में नहीं आते और अपनी साम्प्रदायिक मुस्लिम गतिविधियां संचालित करने के लिए आजाद रहते हैं दूसरी तरफ पूरा का पूरा मुस्लिम सम्प्रदाय हमेशा ही संदेह की नजरों से देखा जाता है। मदरसों तथा मुसलमानों की साम्प्रदायिकता को झूठे एवं आधारहीन दुष्प्रचार के लिए निशाना बनाया जाता है। विडंबना यह है कि भारत सरकार ने भी टाडा और पोटा जैसे कानून बनाए हैं, जो पुलिस को बिना पर्याप्त सबूत के लोगों को फंसाने, तंग करने तथा धमकाने की ताकत देते हैं। चूंकि हमारी पुलिस बहुत अधिक साम्प्रदायिक है, इसलिए अल्पसंख्यक समुदाय पुलिस अत्याचारों को स्वाभाविक निशाना बन जाता हैं। पोटा का भी अल्पसंख्ययकोें के खिलाफ जमकर दुरुपयोग किया गया। डॉ. मुकुल सिन्हा ने देश पर पोटा के दुष्प्रभावों को समझने की कोशिश भी की हे। उन्होंने पोटा को आतंकवादियों की सुरक्षा करने वाला कानून बताया है। वे बताते हैं-आतंकवाद के खिलाफ अभियान कैसे छेड़ा जा सकता है अगर सामने कोई आतंकवादी नहीं हो। गुजरात में यही प्रयोग आजमाया गया है। पहले आतंकवादी बनाओ और फिर उनके खिलाफ युद्ध छेड़ो, जिससे असहाय नागरिक तुम्हें अपने रक्षक के रूप में वोट दे सकें। अक्टूबर, 2002 तक गुजरात में किसी किस्म का कोई आतंकवादी नहीं था, लेकिन जनवरी 2007 आते-आते गुजरात की जेलों में लगभग 180 हार्डकोर/देशद्रोही/जेहादी आतंकवादी गिरफ्तार कर पहुंचा दिये गये थे।
    यह ठीक है कि आतंकवाद का राज्य द्वारा प्रभ्साावशाली ढंग से सामना किया जाना चाहिए। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि पुलिस को अल्पसंख्यकों के खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए एक कठारे कानून थमा दिया जाये। आतंकवाद के खिलाफ कानून बनाते समय हमें अपने पुलिस बल के स्वभाव एवं चरित्र को ध्यान में रखना होगा।
    पुलिस राज्य के अब पीड़क तंत्र का प्रतिनिधित्व करती हैं। लेकिन यह तंत्र राज्य द्वारा संचालित सैद्धांतिक तंत्र से प्रभावित होता है। इसलिए शैक्षिक संस्थाओं, मीडिया जैसे सैद्धांतिक तंत्रों को धर्मनिरपेक्ष एवं संवेदनशील स्वरूप प्रदान करना जरूरी है। अगर आर.एस.एस. और वी.एच.पी, को अपनी संस्थानों की श्रंृखला चलाने की आजादी दी जाती रहेगी तब हमें अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पायेंगे, क्योकि ये संस्थाएं काल्पनिक एवं विकृत भगवाकृत इतिहास के द्वारा युवा छात्रों के मस्तिष्क को प्रदूषित करने का काम कर रहे हैं। इसी तरह से मीडिया को भी नियंत्रित या कम से कम इतना निर्देशित तो कर ही दिया जाना चाहिए कि वह साम्प्रदायिक रूप से उद्वेलित वातावरण की आग में घी नहीं डाले।
    ऐसा आमतौर पर माना जाता है कि उपयुक्त प्रशिक्षण एवं संवेदना का संचार करने वाले कार्यक्रमों के सहारे पुलिस को तटस्थ एवं पक्षपात रहित बनाया जा सकता है, लेकिन सच्चाई यह है कि जब तक पुलिस बल की संरचना में बदलाव कर उनमें विभिन्न समुदायों, विशेष रूप से दलितों एवं अल्संख्यकों को समाहित नहीं किया जाता है, तब तक पुलिस महकमे को तटस्थ नहीं बनाया जा सकता। इस तरह अपनी पुलिस को जिम्मेवार और कानून का पालन करने वाला बनाने के लिए किसी सुपरमैन या सुपर कोष की खोज करने की बजाय हमें सुपर विज्ञान की खोज करनी चाहिए, ताकि पुलिस बल को सक्षम, प्रभावशाली और भेदभाव रहित कानून का सेवक बनाया जा सके।
    भारत के अल्पसंख्यक पुलिस में अपना विश्वास पूरी खो चुके हैं। दुर्भाग्य से हत्या, बलात्कार, लूटपाट के अपराधी पुलिसवालों को पदोन्नति भी मिली है। इस तरह उन्हें जो दण्डमुक्ति का वरदान मिला हुआ है उसकी वजह से वे साम्प्रदायिक एवं निष्ठुर हो गए हैं। इसलिए पुलिस बल को इस तरह पुर्नगठित किया जाना चाहिए, जिससे पुलिस में सामाजिक संरचना भी परिलक्षित हो। पुलिस बल को भी पुरस्कार और सजा के सिद्धांत पर काम करना चाहिए। यानी अच्छे काम पर पुरस्कार और गलती की सजा। हालांकि यह बात ध्यान में रखी जानी चाहिए कि अगर साम्प्रदायिक दंगांें से बचना है या बिना अधिक क्षति के उन्हें नियंत्रित करना है, तो यह सुनिश्चित करना होगा कि दलित और भारत के विभिन्न धार्मिक अल्पसंख्यकों की कुल पुलिस बल में पचास फीसदी भागीदार दी जाये।
- डॉ ए.ए. खान
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मानेसर सुजुकी के सबक - कार्पोरेट शासन पर हल्ला बोल

   मानेसर सुजुकी प्लांट में गत 18 जुलाई के हादसे के बारे में अब यह तथ्य पूरी तरह उजागर हुआ है कि उस दिन की हिंसक घटना प्रबंधन द्वारा पूर्व नियोजित थी, जिसका उद्देश्य मजदूरों को सबक सिखाना था। कारखाना परिसर में अभी भी पुलिस बल की भारी तैनाती और बाद की घटनाओं से जाहिर है कि हरियाणा राज्य सरकार किस हद तक विदेशी कंपनियों की गिरफ्त में है। हरियाणा सरकार पूरी तरह विदेशी पूंजी की सेवा में समर्पित हो गयी है।
    राज्य सरकार द्वारा गठित विशेष जांच दल (एस.आई.टी.) के सुपुर्द प्रतिवेदन में लिखा गया है कि राज्य पुलिस प्रशासन द्वारा कोर्ट में दाखिल चार्जशीट में गवाहों के नाम नहीं दिये गये हैं और न अभियोगों के पक्ष में समुचित कागजात एवं दस्तावेज दाखिल किये गये हैं। इन दो तथ्यों के अभाव में मामले की न्यायिक जांच को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता। विशेष जांच दल ने यह भी सुझाव दिया है कि सरकार उन मजदूरों के नाम अभियुक्तों की सूची से हटा दें जिन पर हिंसा फैलाने का आरोप नहीं है। इसके बावजूद निर्दोष मजदूरों के नाम अभियुक्तों की सूची से नहीं हटाया गया है और ऐसे बेगुनाह मजदूरों को काम पर वापस भी नहीं लिया गया है। इस तरह मारूति सुजुकी प्रबंधन एवं हरियाणा राज्य सरकार के नापाक गठबंधन से मनमानीपूर्वक बेगुनाह मजदूरों को गोलमटोल अभियोगों के आधार पर जेल में बंद कर आतंक का माहौल बनाया हुआ है।
    अब तक बिना किसी ठोस आधार के 546 स्थायी कर्मचारियों को और 1800 से ठेका मजदूरों को बर्खास्त किया गया है। पुलिस ने 149 मजदूरों को गिरफ्तार कर जेल मेें बंद रखा है, जिसें यूनियन के अनेक पदाधिकारी शामिल हैं। इन गिरफ्तार लोगों में 125 मजदूर तो घटना के दिन कारखाने में मौजूद ही नहीं थे। विशेष जांच दल द्वारा ऐसे ही लोगों के नाम हिंसा के अभियोगों की सूची से हटाने का सुझाव दिया है।
    ‘ट्रेड यूनियन रिकार्ड’ के पिछले अंकों में गुड़गांव सहित नोएडा, फरीदाबाद, गाजियाबाद, धारूहेड़ा के औद्योगिक क्षेत्र में फैल रही अनेकानेक हिंसक घटनाओं का कारण अंधाधंुंध गैरकानूनी ठेका प्रथा के प्रचलन को बताया है। दिल्ली समेत यू.पी. और हरियाणा सरकार का श्रम विभाग ठेका प्रथा उन्मूलन एवं नियमन कानून के प्रावधानों के कार्यान्वयन के प्रश्न पर नीतिगत रूप से कान में तेल डालकर सोया है। इस प्रकार शासन में देशी-विदेशी कार्पोरेट घराने के बढ़ते प्रभाव और उसके चलते हो रही हिंसक घटनाएं देश को खतरनाक औद्योगिक अराजकता में धकेल रही है। भारत के सस्ता श्रम के दोहन के लिये विदेशी कंपनियां बेताब हैं। अब वालमार्ट जैसी दैत्याकार अमेरिकी कंपनियां भी भारत के कृषि उत्पाद तथा उपभोक्ता बाजार के शोषण के लिये मैदान में उतर रही है।
    शासक दल के राजनेताओं को ‘‘शिक्षित करने’’ के लिये बहुराष्ट्रीय विदेशी कंपनियों द्वारा भारी रकम खर्च करने की खबरें पहले भी आयी थीं। बोफोर्स तोप घोटाले में भी विक्रय प्रोत्साहन (सेल्स प्रमोशन) के लिये किया गया खर्च को रिश्वत नहीं माना गया था। योरोप के अनेक देशों में घूस की रकम को अनैतिक नहीं माना जाता है।
    बहुराष्ट्रीय विदेशी कंपनियां कारोबार को आगे बढ़ाने के लिये राजनेताओं को पटाते हैं और इसके लिये भारी रकम खर्च करते हैं। ऐसी खर्च रकम को वे लाबियिंग एक्पेंडीचर कहते हैं और बजाप्ता नियमित खाता में डालत हैं। अभी वालमार्ट कंपनी ने 125 मिलियन डालर भारत में खुदरा बाजार हासिल करने के लिये ‘लाबियिंग खर्च’ दिखाया है अमेरिका में ऐसा ‘लाबियिंग खर्च’ कानूनी तौर पर वैध है। यह मुद्दा संसद में भी गरमाया और सरकार ने इसकी न्यायिक जांच कराने की घोषणा की।
    सर्वविदित है कि ईस्ट इंडिया कंपनी के नेतृत्व में राबर्ट क्लाइब ने भारत में पैर जमाने के लिये किस तरह देशी रजवाड़े को घूस देकर पटाया था। भारत में विदेशी कंपनियोें के आचरण अत्यंत आपत्तिजनक हैं। वे भारत के श्रम कानूनों की उपेक्षा करते हैं। उनका एकमात्र उद्देश्य भारतीय श्रम बाजार का शोषण और कृषि उत्पादों को लूटना एवं उपभोक्ता बाजार में सामान बेचकर मुनाफा कमाना है। अतएव अब समय आ गया है कि भारतीय जनगण कार्पोरेट घरानें के शिकंजों के खिलाफ हल्ला बोलें।
    केंद्रीय ट्रेड यूनियन अधिकारों की रक्षा में संयुक्त संघर्ष 20-21 फरवरी 2013 को दो-दिवसीय आम हड़ताल को कामयाब करें। भारत का लोकतंत्र कार्पोरेट शासन के गिरफ्त में हैं। यह हमारी आजादी और सार्वभौमिकता पर खतरा है। इसलिये जरूरी है कि कार्पोरेट शासन के बढ़ते शिकंजे के खिलाफ जोरदार हल्ला बोलें।
- सत्य नारायण ठाकुर
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कैश ट्रांसफर और आधारकार्ड के लिये सरकार की हड़बड़ी का हम क्यों विरोध करते हैं: एक व्याख्यात्मक नोट

    हम वृद्धावस्था पेंशनो, विधवा पेंशनों, मातृत्व लाभों के लिये भुगतानों और छात्रवृत्तियों, जैसे कल्याणकारी कार्यों के लिये कैश ट्रांसफर का समर्थन करते हैं। वास्तव में हम में से अनेक सामाजिक सुरक्षा पेंशनों को विस्तारित करने और उन्हे प्रदान करने में बेहतरी के लिये किये जानेवाले संघर्षों का हिस्सा रहे हैं। हम इस उद्देश्य के लिये जनता को फायदा पहुंचाने वाली समुचित आधुनिक टेक्नोलाजी के इस्तेमाल का भी समर्थन करते हैं।
    परन्तु इन कैश ट्रांसफरों को ‘आधार’, (यूनीक आइडेंटिटी) से जोड़ने के लिये सरकार की हड़बड़ी एंव जल्दबाजी पर हमें गंभीर आपत्तियां हैं। यह इस कारण कि इन स्कीमों को ‘आधार’ से जोड़ने पर जबरदस्त अस्तव्यस्तता पैदा हो सकती है। जरा उस वृद्ध आदमी के बारे में सोचिए जिसे अभी स्थानीय डाकखाने के जरिये वृद्धावस्था पेंशन मिल रही है। उसे अब ऐसा बैंक खाता खुलवाने के लिये दौड़भाग करनी पड़ेगी जो आधार कार्ड से जुड़ा हो, फिंगर प्रिंट की समस्याओं, कनेक्टिविटी के मुद्दों, बिजली न आने, कामचोर ‘बिजनेस करेस्पोंडेंटों और अन्य तमाम वजहों से हो सकता है उसकी पेंशन ही कुछ महीनों के लिये बंद हो जायें।
    हम इस बात के सख्ती के खिलाफ हैं कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिये जनता को खाद्य सामग्री एवं अन्य वस्तुओं की सप्लाई के स्थान पर कैश ट्रांसफर (नकदी देना) शुरू कर दिया जाये। इस विरोध के कई कारण हैं।
     पहला, सार्वजनिक वितरण प्रणाली से मिलने वाले सब्सिडीयुक्त खाद्य पदार्थ देश के करोड़ों गरीब परिवारों के लिये खाद्य एवं आर्थिक सुरक्षा का जरिया है। 2009-10 में, जनवितरण प्रणाली में अंतर्निहित ट्रांसफरो से राष्ट्रीय स्तर पर लगभग 1/5 और तमिलनाडु और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में लगभग आधा ‘गरीबी अंतर’ (पॉवचर गैप) दूर हुआ। हाल के अनुभव से पता चलता है कि जनवितरण प्रणाली को बिना किसी देर के सुधारा जा सकता है और अधिक कारगर बनाया जा सकता है।
    दूसरा, ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग व्यवस्था ऐसी नहीं है कि छोटे-छोटे कैश ट्रांसफरों की बड़ी मात्राओं को हैंडल कर सकें। बैंक अक्सर दूर-दूर हैं। और उनमें भीड़-भाड़ है। इसके लिये बैंकिंग करस्पोंडेटों का जो कथित समाधान पेश किया गया है उसमें अनेकानेक समस्याएं आयेंगी। संभवतः डाकघरों को उपयोगी भुगतान एजेंसियों के रूप में बदला जा सकता है, परन्तु इसमें समय लगेगा।
    तीसरा, ग्रामीण बाजार अक्सर बहुत कम विकसित हैं। जन वितरण प्रणाली को भंग करने से देश भर में खाद्य पदार्थों का प्रवाह अस्तव्यस्त हो जायेगा और अनेक लोग स्थानीय व्यापारियो और बिचौलियों के रहमोकरम पर निर्भर हो जायेंगे।
    चौथा, अकेली महिलाओं, विकलांग लोगों और वृद्ध लोगों जैसे विशेष समूओं की समस्याएं अलग किस्म की हैं, वह अपना पैसा निकालने और दूर बाजार से खाद्य पदार्थ खरीदने के लिये आसानी से नहीं जा सकते।
    अंतिम कारण, जो कम महत्वपूर्ण नहीं है वह यह है कि मुद्रास्फीति कैश ट्रांसफरों की क्रयशक्ति को आसानी से कम कर सकती है। जब हाल यह है कि सरकार पेंशनों या मनरेगा मे मिलने वाली मजदूरी को भी बढ़ती मुद्रास्फीति के अनुरूप बढ़ाने से इंकार करती है तो इस पर कैसे यकीन किया जा सकता है कि वह कैश  ट्रांसफरों को महंगाई बढ़ाने के अनुरूप बढ़ा देंगी। यदि यह मान भी लें कि इसमें इस तरह कुछ वृद्धि की जायेगी तो भी उस वृद्धि में अवश्य समय लगेगा और बीच के समय में गरीबों को भारी मुश्किल होगी।
    कैश ट्रांसफर स्कीम का राजस्थान के कोटकोसिम में जो प्रयोग किया गया वह कैश ट्रांसफर की योजना की संभावित विफलता का एक जीता जागता उदाहरण हैं यह प्रयोग काफी धूमधड़ाके के साथ शुरू किया था और इसे यह कहकर एक जबरदस्त सफलता के रूप में पेश किया गया कि इससे कैरोसीन की सब्सिडी पर आने वाले खर्च में 80 प्रतिशत की कमी आ गयी। परन्तु हकीकत यह सामने आयी कि इससे केरोसीन की वितरण प्रणाली ही धराशायी हो गयी।
    देश में एक ऐसा इम्प्रेशन बना दिया गया है कि सरकार 2014 चुनाव के पहले आधार कार्ड से जुड़ी कैश ट्रांसफर स्कीमों को बड़े पैमाने पर शुरू करने के लिये तैयार हैं। यह अत्यंत गुमराह करने वाली बात है और लगता यह है कि यह इस बात की कोशिश है कि लोग आधार कार्ड बनवाने के लिये आधार कार्ड बनाने वाले केन्द्रों की तरफ दौड़ पड़े।
    सरकार ने एक राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून बनाने का वायदा किया था। सरकार उसमें विफल रही है। कैश ट्रांसफर की घोषणा से सरकार की इस विफलता से ध्यान डायवर्ट होता है। सरकार ने जो खाद्य सुरक्षा बिल बनाया वह अत्यंत कमजोर है और वह भी पूरे एक साल से स्थायी समिति के पास पड़ा हुआ है। इस बीच देश में खाद्यान्न भंडार अभूतपूर्व पैमाने पर जमा हो रहे हैं। इस समय देश को एक व्यापक खाद्य सुरक्षा की जरूरत है, आधार कार्ड संचालित कैश ट्रांसफरों की ऐसी हड़बड़ी एवं जल्दबाजी की नहीं जिसमे अनेक खतरे निहित हैं।
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बलात्कार के खिलाफ जनाक्रोश को भुनाने की कवायद

16 दिसम्बर की रात देश की राजधानी में एक पैरा-मेडिकल छात्रा के साथ बलात्कार की घृणित बहशी हरकत होती है। वह बेचारी तो अब इस दुनियां में नहीं रही लेकिन उसके साथ घटी घटना के फलस्वरूप दिल्ली की सड़कों और उसके बाद पूरे देश की सड़कों पर हुए विरोध प्रदर्शनों ने यह जाहिर किया कि जनता में आक्रोश है। जहां मीडिया ने शुरूआत से ही इसे एक विचारधाराविहीन जनसंघर्ष की संज्ञा देने शुरू कर दिया था, वहीं देश के राजनीतिक-सामाजिक क्षेत्र में तमाम लोगों ने इस घटना पर तरह-तरह की अनर्गल प्रतिक्रिया देकर उस जनाक्रोश को भुनाने की अपनी-अपनी तरह की कोशिशें कीं। इन कोशिशों में देखा जाना चाहिए कि जिन संगठनों का यह प्रतिनिधित्व करते हैं, उन संगठनों का महिलाओं के बारे में, महिलाओं के सशक्तीकरण के बारे में और उनकी अस्मिता के बारे में सोच क्या है।
दूरदर्शन सहित सभी प्रमुख न्यूज चैनलों पर सबसे पहले दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की वार्ता दिखाई गयी जिसमें वे इस घटना पर अपना गुस्सा प्रकट करते हुए सख्त एवं त्वरित कार्यवाही की मांग कर रही थीं। शीला जी लम्बे अर्से से देश की उसी राजधानी की मुख्यमंत्री हैं, जहां घटना घटी थी और केन्द्र में लगभग साढ़े आठ सालों से उन्हीं की सरकार सत्तासीन है। समझ में नहीं आया कि वे इस घटना के लिए किसको जिम्मेदार बता रही थीं - खुद को या सोनिया को या मनमोहन को? वे जो फार्मूले पेश कर रहीं थी, वे किसके लिए थे। उसी समय कांग्रेस के कुछ नेता, जिसमें राष्ट्रपति के सांसद पुत्र भी शामिल हैं, ने प्रदर्शनकारी महिलाओं के लिए अशोभनीय शब्दों का प्रयोग किया, बाद में उनकी बहन और उन्होंने खुद माफी मांग ली।
इसके बाद सोनिया जी खुद सामने आती हैं और बलात्कार के अपराधियों के लिए मृत्यु दंड और उन्हें नपुंसक कर देने तक की सजा की मांग करती हैं। वे किस हैसियत से और किससे यह मांग कर रहीं थीं, इस पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। चूंकि दिल्ली की घटना में एक नाबालिग भी शामिल था, इसलिए उन्हीं की पार्टी नाबालिग बच्चों पर भी मुकदमा चलाने के लिए कानून बदलने की मांग करती है। ध्यान देने योग्य बात है कि अगर कानून बदल भी दिया जाये तो उसे पीछे से लागू नहीं किया जा सकता। दूसरे यूएन कंवेंशन होने के कारण इसे बदल पाना शायद आसान नहीं है।
भाजपा के कुछ नेताओं ने भी कुछ अभद्र टिप्पणियां कीं। बाद में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत सामने आये और पहले दिन उन्होंने कहा कि बलात्कार ‘इंडिया’ में होते हैं, ‘भारत’ में नहीं। वैसे तो ‘इंडिया’ और ‘भारत’ में फर्क केवल इतना है कि ये दो अलग-अलग भाषाओं के शब्द हैं, जिसे हिन्दी में हम भारत कहते हैं उसे ही अंग्रेजी में इंडिया कहा जाता है। भागवत का इससे क्या आशय था, इसे साफ नहीं किया गया परन्तु इसके दो ही अर्थ हो सकते हैं - या तो वे प्राचीन भारत को भारत और वर्तमान को इंडिया कह रहे थे अथवा वे ग्रामीण भारत को भारत और शहरी भारत को इंडिया कह रहे थे। दोनों अर्थों पर उनके ज्ञान पर तरस आता है। प्राचीन भारत के “महाभारत“ में द्रौपदी के चीरहरण का प्रकरण जनमानस में बहुत ख्यात है। प्राचीन भारत के गांवों में उत्तर और दक्षिण टोला हुआ करता था और जो आज भी अपने अस्तित्व को समाप्त नहीं कर सका है। बात को स्पष्ट कहने की जरूरत नहीं है। ग्रामीण अंचलों में निवास करने वाले लोग आशय समझ जायेंगे। दिल्ली की घटना के बाद रोज अखबारों को पलटने पर पता चलता है कि रोजाना कम से कम पांच बलात्कारों के समाचार तो केवल उत्तर प्रदेश के ग्रामीण अंचलों के होते हैं। यानी कम से कम 5 घटनायें तो रौशनी में आ जाती हैं, पता नहीं कितनी घटनायें समाचार ही नहीं बन पाती हैं।
भागवत की इस टिप्पणी के समाचार पत्रों में प्रकाशित होने और न्यूज चैनलों में दिखाये जाने से वे उत्साहित हुये और फिर बोल उठे। उन्होंने विवाह को एक ऐसा ”समझौता“ करार दे दिया, जिसमें महिला अस्मिता और सम्मान तार-तार होते दिखाई देते हैं।
जमायते इस्लामी पीछे कैसे रहती। उसने भी न्यायमूर्ति वर्मा आयोग को एक प्रतिवेदन दे दिया जिसमें सह-शिक्षा पर पाबंदी लगाने और लड़के-लड़कियों के मिलने जुलने और चलने तक पर पाबंदी लगाने की मांग कर दी।
इन सबके टीआरपी को देख कर आसाराम बापू में भी जोश में आ गये और कहा कि पीड़ित लड़की को बलात्कारियों के सामने हाथ जोड़ कर, बलात्कारियों के पैर पकड़ कर गिड़गिड़ाना चाहिए था, दया की याचना करनी चाहिए थी। इनके इस बयान की भी खूब पब्लिसिटी हुई।
आने वाले दिनों पता नहीं कौन-कौन क्या-क्या कहेगा परन्तु इस घटना और उसके बाद उपजे जनाक्रोश तथा उसके फलस्वरूप हुए प्रलापों के कुछ अर्थ निकाले जाने जरूरी हैं। महिला आन्दोलन और भाकपा कार्यकर्ताओं को चाहिए कि जहां-जहां भागवत और आसाराम सरीखे महिला विरोधी जायें, वहां उनके कार्यक्रमों के समय इनके विरोध में महिलाओं को भारी संख्या में भागीदारी करनी चाहिए और उनके कार्यक्रमों में व्यापक व्यवधान पैदा करना चाहिए। जहां-जहां बलात्कार की घटनाओं के समाचार मिलते हैं, वहां-वहां जनता की व्यापक लामबंदी करनी चाहिए और दिल्ली जैसे लगातार और लम्बे समय तक चलने वाले तथा व्यापक विरोध आयोजित करने चाहिए।
- प्रदीप तिवारी
9 जनवरी 2013
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