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शुक्रवार, 28 जून 2013

बिखरा राजग, अब संप्रग-2 की बारी

जैसे-जैसे लोक सभा चुनाव 2014 नजदीक आ रहे हैं, राष्ट्रीय राजनीति में नैसर्गिक रूप से एक नए ध्रुवीकरण की प्रक्रिया भी गति पकड़ रही है। जिस राजग में कभी भाजपा के साथ 23 और क्षेत्रीय दल हुआ करते थे, उसमें शुरू हुआ बिखराव एक तरह से अपने चरम पर पहुंच चुका है। सम्प्रति राजग में भाजपा के साथ केवल शिरोमणि अकाली दल और शिव सेना बचे हैं। मोदी के नाम पर शिव सेना भी आक्रामक रूख दिखा रही है, बात दीगर है कि उसे बाद में स्पष्टीकरण देकर नरम कर दिया जा रहा है। शिव सेना के मुखपत्र ‘सामना’ के सम्पादकीय में उत्तराखंड त्रासदी में मोदी के हवाले से किये गये इस दावे पर हमला किया गया था कि उन्होंने देहरादून जाकर उत्तराखंड में फंसे 15,000 गुजरातियों को सुरक्षित निकाल कर गुजरात वापस पहुंचा दिया। वैसे तो यह दावा स्वयं में हास्यास्पद था परन्तु आम जनता पर उसकी प्रतिक्रिया कुछ दूसरी तरह की थी। लोगों को यह कहते सुना गया कि इसी तरह अगर अन्य राज्यों के मुख्यमंत्री भी देहरादून जाकर अपने-अपने राज्य के पर्यटकों को निकाल लाते तो अच्छा होता। इसके मद्देनज़र इस दावे की हकीकत पर यहां गौर करना जरूरी हो जाता है।
मोदी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मजबूत कैडर हैं, संघ ने बहुत कुछ हिटलर और मुसोलिनी से सीखा और हिटलर के गुरू का यह कहना था कि किसी झूठ को सौ बार बोलने पर वह सच लगने लगता है। इतिहास में हमने स्टोव बाबा और गणेश जी के दुग्धपान जैसे तमाम झूठों का सच देखा है। मोदी इस गुरूवाणी पर बहुत यकीन रखते हैं और उन्होंने मीडिया - इलेक्ट्रानिक, प्रिन्ट एवं सोशल को प्रभावित करने का एक शक्तिशाली तंत्र विकसित कर रखा है। मोदी उत्तराखंड एक चाटर्ड हवाई जहाज से जाते हैं, वहां वे 80 इनोवा कारों को किराए पर लेते हैं और उसके ठीक 24 घंटों के बाद 15,000 गुजरातियों को बचा कर गुजरात पहुंचाने का दावा कर दिया जाता है। प्राकृतिक विपदा से जहां इतनी बड़ी विभीषिका आई हुई हो, रास्ते बंद हों, 10 दिन से अधिक का समय बीत जाने पर भी सेना हेलीकाप्टरों से लोगों को निकाल नहीं पाई है, वहां 80 इनोवा 24 घंटों में कैसे 15,000 गुजरातियों को गुजरात पहुंचा देती हैं, इसकी मीमांसा हम सुधी पाठकों पर छोड़ देते हैं। वे खुद तय कर लें कि मोदी से बड़ा मक्कार राजनीतिज्ञ हिन्दुस्तान में कोई दूसरा नहीं होगा। इसी के साथ हम अपने मूल विषय पर लौट चलते हैं।
राजग के विघटन के बाद क्या? यह एक सवाल है, जिस पर आज-कल हर आदमी बात करना चाहता है। क्या संप्रग-2 मजबूत हो रहा है? क्या तमाम घपले-घोटालों और महंगाई के बावजूद संप्रग-2 फिर एक बार सत्ता की ओर लौट रहा है? वैसे तो संप्रग-2 का विकल्प राजग नहीं था क्योंकि दोनों की आर्थिक नीतियों में कोई फर्क नहीं है। जनता जो बदलाव चाहती है वह नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के रास्ते आने वाला नहीं है। भाजपा खुद अपनी दुर्गति का एहसास कर छटपटा रही थी और इसी छटपटाहट में उसने मोदी का कार्ड खेलने की कोशिश की। यहां स्पष्ट करना जरूरी हो जाता है कि गुजरात गुजरात है, महाराष्ट्र महाराष्ट्र है और तमिलनाडु तमिलनाडु है। इन राज्यों में जो राजनीतिक युक्तियां कामयाब हो जाती हैं, वे पूरे हिन्दुस्तान में कामयाब हो ही नहीं सकती हैं। आडवाणी और नितीश की छटपटाहट के पीछे यही सत्य था, जिसे भाजपा अपनी छटपटाहट में देखना ही नहीं चाहती क्योंकि ऊपर यानी संघ के आदेश हैं।
संप्रग-2 आसन्न लोकसभा चुनावों में विजय प्राप्त करेगी, ऐसा तो वर्तमान हालातों में लगता नहीं है। जनता में भ्रष्टाचार के खिलाफ गुस्से को शान्त करने का सरमायेदारों ने जो गैर-राजनीतिक तरीका यानी भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल कानून का आन्दोलन चलाया था, उसका असर एक बार फिर समाप्त हो रहा है। जनता में गुस्सा पनप रहा है। जब गुस्सा पनप रहा है तो वह कहीं तो कहीं निकलेगा ही और अगर चुनाव सामान्य परिस्थितियों में हो जाते हैं, तो संप्रग-2 का सत्ता में वापस आना नामुमकिन लगता है।
संप्रग-2 में भी इस समय कुल 24 दल हैं। कुछ अन्दर तक शामिल हैं तो कुछ बाहर बैठ कर सहारा दिये हुये हैं। कोई मंत्री बन कर सहारा दिये हुये है तो कोई सीबीआई के खौफ से सहारा दिये हुये है। काठ की हांड़ी के नीचे जल रही आग ने हाड़ी के अधिसंख्यक हिस्से को जला दिया है। संप्रग-2 एक डूबता हुआ जहाज है और राजनीति में डूबते हुए जहाज से पहले चूहे भागते हैं और एक बार जो भगदड़ शुरू होती है तो रूकने का नाम नहीं लेती। देखना दिलचस्प होगा कि यह भगदड़ कब शुरू होती है - चुनावों के कितना पहले? कांग्रेसी बहुत खुश हैं कि वे 24 हैं लेकिन उनकी खुशी जल्दी ही काफूर होने वाली है। जमाना था जब राजग में 24 दल थे और इतिहास में यही लिखा जाने वाला है कि संप्रग-2 में 24 दल थे।
किसी मोर्चे के रूप में चुनावों के पूर्व कोई विकल्प उभर सकेगा ऐसा नहीं लगता है परन्तु वामपंथ को अपने इतिहास से सबक लेते हुए बहुत संभल-संभल कर चलना होगा। पहली बात, उसे अपनी वैकल्पिक आर्थिक नीतियों की स्पष्ट व्याख्या करनी होगी। जब तक यह अंक आम जनता तक पहुंचेगा, 1 जुलाई को दिल्ली सम्मेलन में वामपंथ उस वैकल्पिक नीति को पेश कर चुका होगा और उसी के इर्द-गिर्द एक सैद्धान्तिक मोर्चा खड़ा करने की शुरूआत करेगा। जनता ऐसे आर्थिक-राजनैतिक विकल्प के इर्द-गिर्द लामबंद हो सकती है। दूसरे उसे पिछले चुनावों की अपेक्षा अपने अधिक उम्मीदवार देने का प्रयास करना चाहिए और अधिक से अधिक सीटों को जीतने के लिए लड़ना चाहिए जिससे वह अपने पिछले आकड़े 60 के आगे निकल सके। 60 से आगे निकलने का मतलब होगा कि चुनाव पश्चात् होने वाले ध्रुवीकरण का केन्द्र यानी न्यूक्लियस वामपंथ होगा न कि कोई अन्य क्षेत्रीय दल। वामपंथी कतारों को भी अभी से ही जुट जाना चाहिए। यह वक्त धन इकट्ठा करने का है, जनता को लामबंद करने का है और जनता के गुस्से को धार देने का है। उन्हें इस समय इसी मुहिम पर जुटना चाहिए।
- प्रदीप तिवारी, 23 जून 2013
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